विचार

बंगाल में अब तक के सबसे भीषण चुनावी संग्राम के लिए बजा बिगुल, आक्रामकता और धनबल बनाम बांग्ला सम्मान का मुकाबला

पांच राज्यों के लि चुनावी तारीखों का ऐलान हो गया। लेकिन सबसे अहम है पश्चिम बंगाल जो इस बार अब तक के सबसे भीषण चुनाव संग्राम का गवाह बनेगा। जो जीतेगा, वह तो सिकंदर होगा ही, लेकिन जो हारेगा, उसके राजनीतिक अस्तिव पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।

फोटो : Getty Images
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इस बार का पश्चिम बंगाल का चुनाव मैदान में उतरी सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए अस्तित्व की लड़ाई है। जिसे भी हार मिलेगी वह उसके लिए बड़ा राजनीतिक धक्का होगा और अगर हार बड़े अंतर से होती है तो और भी बड़ा नुकसान। इन राजनीतिक समीकरणों के चलते पश्चिम बंगाल का चुनाव इस बार ऐसा होने वाला है जो इससे पहले कभी नहीं हुआ। हर दल को 2021 की अहमियत समझ में आरही है और इसीलिए दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है। ममता बनर्जी के ही शब्दों में कहें तो ‘अभी, नहीं तो कभी’ वाली स्थिति है।

यह चुनाव इसलिए भी और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले साल हुए बिहार चुनाव के विपरीत, यह चुनाव विचारधारा की लड़ाई बन चुका है। एक उदारवादी, सेक्युलर, बहुलतावादी और संघीय विचार का एक मजबूत और तानाशाही हिंदु राष्ट्र की विचारधारा से मुकाबला है। हालांकि ममता बनर्जी ने इसे बंगाली बनाम बाहरी का चुनाव बनाने की कोशिश की है,। उन्होंने ऐलान किया है कि यह चुनाव बंगाल की आत्मा को बचाने का चुनाव है। इसके अलावा यह चुनाव दो लोकप्रिय और कुछ हद तक अधिकारवादी नेताओं का मुकाबला भी है। जो भी हारेगा, उसके लिए बहुत बड़ा राजनातिक नुकसान होगा।

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बीजेपी की हताशा बंगाल पर आक्रमण करने की है न कि बंगाल का विधानसभा चुनाव जीतने की, इसीलिए राज्य के बाकी तीन दल अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। तृणमूल कांग्रेस, वामदल और कांग्रेस, इन तीनों का दशकों से बंगाल की राजनीति पर वर्चस्व रहा है, लेकिन पहली बार इन तीनों दलों को कड़ी चुनौती के रूप में बीजेपी का सामना करना पड़ रहा है।

अगर तृणमूल कांग्रेस चुनाव हारती है और बड़े अंतर से हारती है, तो पार्टी में बड़े पैमाने पर पलायन की आशंका है, और हो सकता है पार्टी में दो फाड़ हो जाए। अगर बीजेपी बड़े अंतर से हारती है, तो इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा। इनके अलावा कांग्रेस और वामदलों को मुकाबले में बने रहना बहुत जरूरी है।

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पश्चिम बंगाल की 295 सदस्यों वाली मौजूदा विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस के 211 विधायक है। 2016 के चुनाव में बीजेपी मात्र 3 सीटें जीत पाई थी जबकि कांग्रेस ने 44 और वामदलों ने 26 सीटों पर जीत हासिल की थी।

चुनाव पर्यवेक्षक और ओपीनियन पोल के अनुमान बताते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीतने वाली बीजेपी की सीटों में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हो सकती है। वैसे भी 2016 के चुनाव में बीजेपी कुल 164 सीटों पर या तो जीती थी या दूसरे नंबर पर रही थी। लेकिन 2016 की मात्र तीन सीटों से जितनी भी अधिक सीटें बीजेपी के हिस्से में आती हैं, सारा नुकसान मोटे तौर पर तृणमूल कांग्रेस का ही होगा।

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लेकिन कुछ अनिश्चित सी बातें भी हैं। मसलन, क्या बीजेपी हकीकत में अपने दम पर 150 सीटें जीत सकती है? क्या तृणमूल कांग्रेस की सीटें 140 से भी नीचे आ सकती हैं? कांग्रेस-वाम मोर्चा के सेक्युलर फ्रंट और ओवैसी की एआईएमआईएम कितनी सीटें जीत सकेंगे? और इससे भी अहम की ओवैसी किसे नुकसान पहुंचाएंगे? इन सवालों के सीधे जवाब फिलहाल सामने नहीं हैं।
परंपरागत रूप से देखें तो अगर मुकाबला त्रिकोणीय होता है तो फायदा बीजेपी होगा और इसका खामियाजा ममता बनर्जी को भुगतना होगा। लेकिन ज्यादातर चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि तृणमूल और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है। विश्लेषक यह भी मानते हैं कि इस चुनाव में मतदाता या तो ममता के समर्थन में वोट देंगे या उसके खिलाफ वोट देंगे।

बीजेपी ने हालांकि अभी सीधे तौर पर नहीं कहा है कि वह बंगाल चुनाव जीत चुकी है। हां हाल के दिनों में उसने तृणमूल में खासी सेंध लगाई है। ममता के कई मंत्री और विधायक पाला बदलकर बीजेपी का दामन थाम चुके हैं, जिससे बीजेपी अपने आप को मजबूत स्थिति में दिखा रही है। इसके अलावा मीडिया भी यह आभास देने की कोशिश में जुटा है कि 1977 के बाद से बंगाल और केंद्र में अलग-अलग दलों की सरकार रही है (सिर्फ बीच के कुछ सालों में गठबंधन की सरकार को छोड़कर) इससे बंगाल का नुकसान हुआ है और बीजेपी अपने डबल इंजन ग्रोथ के फार्मूले को अच्छे से पेश भी कर रही है।

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बीजेपी को जो और लाभ है वह है कि बीजेपी के पास असीमित संसाधन हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा एक हाई प्रोफाइल प्रचारक है, कई राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों की फौज है, मीडिया पर इसकी गहरी पकड़ है और बंगला फिल्म जगत को रिझाने की कोशिशें हैं।

लेकिन जमीनी स्तर पर संगठनात्मक तौर पर बीजेपी मजबूत नहीं है। वह सिर्फ पैसे के दम पर भीड़ जुटा रही है, दुस्साहसपूर्ण तरीके से केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है। वैसे 2016 में जिस तरह से इसने सारदा-नारदा घोटाले का शोर मचाया था लेकिन अब उस पर बीजेपी यू-टर्न ले चुकी हैं, और लोगों को यह दोहरापन नजर भी आ रहा है। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की नाकामियां भी किसी से छिपी हुई नहीं है

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