वे ट्रेन की तलाश में निकले थे। इससे पहले कि वे अपनी ट्रेन तक पहुंच पाते, एक दूसरी ट्रेन ने उनको धर दबोचा और वे सोलह के सोलह रेल की पटरी पर ऐसी गहरी नींद सोए कि फिर कभी जाग ही नहीं सके। जी हां, यह उन सोलह मजदूरों का जिक्र है, जो पिछले हफ्ते औरंगाबाद में रेल की पटरी पर थक कर ऐसा सोए कि बस, सोते ही रह गए।
समाचार बताते हैं कि ये असहाय मजदूर भुसावल स्टेशन की ओर पैदल जा रहे थे। उन्होंने सुना था कि भुसावल से एक श्रमिक ट्रेन मध्य प्रदेश की ओर जाएगी। उनको उम्मीद थी कि भुसावल से उनको जो गाड़ी मिलेगी, वह उन्हें उनके गांव-देहात के आसपास छोड़ देगी। वहां से फिर वे अपने घरों को पैदल पहुंच जाएंगे। वे भुसावल और अपने घर तो नहीं पहुंचे; हां, भगवान के घर जरूर सिधार गए।
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यह तो केवल उन सोलह मजूदरों की गाथा है, जो सुर्खियों में आई। पता नहीं ऐसे कितने मजदूर होंगे जो घर पहुंचने की लालसा में पैदल चलते-चलते गुजर गए होंगे, जिन पर दो आंसू बहाने वाला भी कोई नहीं। भूल गए, एक बच्चा मां-बाप के साथ सैंकड़ों मील पैदल चलकर घर तो पहुंच गया, पर उस बेचारे की थकान भी नहीं उतरी थी कि मौत ने उसको दबोच लिया।
इस देश में पैदल चलकर घर पहुंचने की लालसा में मजदूरों का एक सैलाब आया हुआ है। हजारों लोग पैदल सैकड़ों मील चलकर घर पहुंचने की लालसा में चले जा रहे हैं। क्योंकि जिन ‘महानगरों’ में वे काम-काज कर दो रोटी कमाते थे, उन ‘महानगरों’ का दिल बहुत छोटा निकला। लॉकडाउन होते ही पहले तो उनका रोजगार गया, फिर मकान मालिकों ने घर से निकालना शुरू कर दिया। जब खाने के लाले पड़ गए तो अपना बोरिया-बिस्तर सिर पर रखा, दिल में उम्मीद जगाई कि पैदल चलकर ही सही, घर पहुंच गए तो कम-से-कम बच तो जाएंगे। परंतु न जाने कितने ऐसे हैं, जो औरंगाबाद जैसे हादसों में रास्ते में ही मौत को प्यारे हो रहे हैं।
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इनकी मौत पर आंसू बहाने वाला भी कोई नहीं है। अरे, जो सड़कों पर इस समय पैदल चल रहे हैं, वे दलित-पिछड़े ही तो हैं। हमारे देश में मजदूरी और कारीगरी करने वाले पिछड़े और दलित ही तो होते हैं। हमने तो उनको मानव श्रेणी में कभी रखा ही नहीं। वे केवल हमारे जैसे उच्च समाज के लोगों की मजदूरी और सहायता के लिए जन्मे हैं। वे हमारा काम करें और काम नहीं कर सकते तो जैसे चाहें जीएं और जैसे चाहे मरें, हमारी बला से। हमने आदिकाल से इनकी बस्ती, इनके कुएं और इनके पूजा स्थल तक अलग कर दिए। क्योंकि वे मजदूर हैं, कारीगर हैं। इसलिए निम्न श्रेणी के हैं।
इसलिए जब लॉकडाउन में ये निम्न श्रेणी के लोग पैदल निकल पड़े तो हमारी अंतर-आत्मा को कोई चोट नहीं पहुंची। हमने या आपने अपने घरों के दरवाजे इन असहाय लोगों के लिए नहीं खोले। आखिर, हम में से कितने थे जो इनके लिए खाना लेकर इनकी भूख मिटाने को निकल पड़े! और ऐसा करते भी क्यों! हमारे पूर्वजों ने हमारी घुट्टी में यह डाल दिया है कि ये मजदूर-कारीगर इस लायक नहीं कि घर में बिठाओ। बस, ये अपना काम करें और इनको चलता करो।
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इस समय पैदल चलकर घर पहुंचने की उम्मीद में इन असहाय हजारों मजदूरों के साथ यही तो हो रहा है। सभी अब यह भूल गए कि महानगर के जिस फ्लैट में हम रहते हैं, इसे उन्होंने ही बनाया है। हमारे घरों में जो पानी की पाइप लाइन बिछी है, वह इन्हीं में से किसी प्लम्बर ने बिछाई है। हमारे घर की जगमग रोशनी इन्हीं के हाथों की देन है। अरे! ये हमारे बड़े-बड़े कारखाने, ये मॉल और सिनेमाघरों की जगमग सब कुछ इन्हीं की देन है। हमारे पास लाख दौलत हो परंतु अगर इन मजदूरों की मजदूरी न होती तो इन ‘महानगरों’ की यह चमक-दमक कहां होती।
लेकिन इन ‘महानगरों’ में बड़े-बड़े घरों और फार्म हाउसों में रहने वालों और लंबी-लंबी गाड़ियों में चलने वाले जमाखोरों के दिल बहुत ही छोटे निकले। इनकी आत्मा ने इनसे यह नहीं पूछा कि आखिर वे जो सड़कों पर भूखे-प्यासे चल रहे हैं, वे भी तो इंसान हैं। उनकी तकलीफ में उनका दुख-दर्द बांटना तो हमारा फर्ज बनता ही है। भला हमारे मन में यह विचार कैसे आता। जातीय व्यवस्था में जकड़े हमारे माता-पिता ने तो हमको बचपन से ही यह सिखाया था कि ये मजदूर निम्न श्रेणी के हैं। इन अछूतों से अपना काम लो और इनसे दूर रहो।
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तभी तो औरंगाबाद जैसे हादसे के पश्चात भी इस देश की आत्मा नहीं जागी। जागती भी कैसे! इस देश की आत्मा को तो मनु हजारों वर्ष पहले शीशा पिला चुके हैं। और वह शीशा पुश्त-दर-पुश्त हमारे जीवन में इन निम्न श्रेणी मानवों के लिए बराबर जहर घोलता रहता है। तभी तो इन पैदल चलकर जान गंवा देने वालों के लिए हमारे मन में दया नहीं उमड़ती।
फिर आज देश में जो राजनीतिक वातावरण है, वह भी तो अपने से ‘दूसरों’ के लिए घृणा के जहर में डूबा है। वह ‘दूसरा’ केवल मुसलमान ही नहीं है। वह तो है ही हमसे अलग, हमारा शत्रु, जिहादी! उसकी तो यह गत हमको बनानी ही है। यही पाठ तो पढ़ाते हैं कपिल मिश्रा- जैसे नेता। फिर जब दंगा भड़कता है तो पुलिस और प्रशासन सब मन ही मन ताली बजाते हैं। और सोचते हैं, अच्छा हुआ, इनको सबक मिल ही गया। ये तो हमारे शत्रु थे। इनको ‘ठीक’ करना ही चाहिए था।
ऐसे माहौल में टीवी एंकरों की जो भाषा होती है या फिर तबलीगी जमात के प्रति जो सच्चे-झूठे समाचार होते हैं, वे कहीं-न-कहीं ऐसे टीवी देखने वालों के विचार भी होते हैं। तभी तो ऐसे एंकरों के टीवी चैनल की टीआरपी आसमान छूती है। यह उस आत्मा का कमाल है जिसको सदियों पहले शीशा पिला दिया गया है। और जिसने एक वर्ग विशेष के अतिरिक्त हर किसी को ‘दूसरा’ और शत्रु बना दिया है।
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तभी तो जब हमारा नेता गुजरात दंगों के बीच खड़ा होकर कहता है, ‘हर क्रिया की प्रतिक्रिया तो होती ही है’, तो हम उसको अपना ‘हृदय सम्राट’ बना लेते हैं। गुजरात में मोदी जी की लगातार तीन चुनावी विजय दुश्मन को ‘ठीक’ करने का श्रद्धा वोट नहीं तो और क्या था। हमको ऐसे राजनीतिक और सामाजिक ‘मैसेज’ इतनी जल्दी समझ में आते हैं कि पूछिए मत। कारण यह है कि हम अपने वर्ग एवं समाज के अतिरिक्त हर किसी को ‘दूसरा’, अर्थात अपना शत्रु एवं अपने से निम्न समझते हैं।
यह शीशा हमारी आत्मा में उतर चुका है। तभी तो आज भी गांव-गांव में दलितों और पिछड़ों के टोले अलग हैं। उनके कुएं अलग हैं। इसीलिए कि उनको याद रहे कि वे निम्न वर्ग के प्राणी हैं। और फिर जब वह निम्न वर्ग का प्राणी पैदल चलकर-थककर नींद से रेल की पटरी पर ट्रेन से कुचल कर मर जाता है तो हमारी आत्मा विचलित नहीं होती। क्योंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था ही सदा से दो श्रेणियों में बंटी है : ‘हम’ और ‘दूसरा’, जो हमारा शत्रु है, जिसको मरना ही चाहिए।
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हमारे लिबरल मित्र अकसर आश्चर्य करते हैं कि मोदी सरकार हर मोर्चे पर विफल है, फिर भी चुनाव जीतकर सरकार फिर उन्हीं की बनती है। आखिर क्यों! सीधी-सी बात है कि जो मोदी के नेतृत्व में आस्था रखता है, वह उसी सामाजिक ढांचे में आस्था रखता है जो अपने से दूसरे को ‘ठीक’ करने में भी आस्था रखता है। क्योंकि हमारी आत्मा में तो ‘हम’ एवं ‘दूसरा’- निम्न दर्जे का हमारा शत्रु- का शीशा समाया हुआ है। तभी तो मॉबलिंचिंग होती है और हम चुप रहते हैं। दलित महिला का घर में घुसकर बलात्कार होता है, हम मन ही मन खुश होते हैं। पिछड़ों को आरक्षण मिलता है, तो हमारा खून खौल जाता है।
मोदी जी हमारे नेता हैं क्योंकि वह इन सब ‘दूसरों’ को ‘ठीक’ कर रहे हैं। अरे, हमारे एक व्यापारी मित्र का नोटबंदी में धंधा चौपट हो गया। करोड़ों के घाटे में चले गए। चुनाव वाले रोज पूछा: किसको वोट दिया। श्रद्धा से बोले: मोदी जी को! पूछा, नोटबंदी में तो आपके लाले पड़ गए, फिर भी वोट मोदी जी को। जवाब मिला: और किसको देते ! आखिर मोदी जी ने उस ‘दूसरे’ को जो ठीक किया।
यह मनोवैज्ञानिक आनंद करोड़ों के घाटे से अधिक तृप्ति देता है। तभी तो नोटबंदी हो या लॉकडाउन का नुकसान, भक्तों का वोट मोदी जी को ही जाएगा। ऐसे समाज में पैदल चलते-चलते मर जाने वाले मजदूर पर आंसू बहाने वाले दो-चार भी मिल जाएं तो बड़ी बात है। एक औरंगाबाद क्या, ऐसे दर्जनों हादसे हो जाएं, तब भी हमारी आत्मा जगने वाली नहीं है। क्योंकि मजदूर ‘दूसरा’ है, उसका मरना ही उचित है।
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