विचार

मॉब लिंचिंग, भूखमरी, बच्चों की मौत से अब लोगों को फर्क नहीं पड़ता, मोदी सरकार में बदला समाज का व्यवहार

बड़ी, अहम और आम आदमी को परेशान करने वाली घटनाओं पर चुप रह जाना, ऐसे विषयों पर तीखी प्रतिक्रिया देना जो समाज को अलग-अलग खांचों में बांट सके, बीते पांच सालों में भारतीय जनमानस का व्यवहार हो गया है। ये ऐसे ही नहीं हुआ, इसे बाकायदा सुव्यवस्थित ढंग से बदला गया।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

भारतीय जनमानस का व्यवहार बीते पांच सालों में बहुत बदल गया है। वह अपने अड़ोस-पड़ोस, बेरोजगारी, काम में कमी और आसपास होने वाली हिंसक घटनाओं पर अब गुस्सा नहीं होता। वह गुस्सा होता है हिंदू धर्म के कथित अपमान पर। वह हिंदू धर्म के कथित अपमान पर उसी तरह जवाब देता है जिस तरह हमारे शासक देते हैं। वह कभी नहीं सोचता कि 2014 से पहले तक उसका हिंदू धर्म अवचेतन में कहां सोया था। अब वह अपने साथ के ही दूसरे मजहब के लोगों को स्नेह या सद्भाव से नहीं देख पाता।

यहां तक कि उसके परिवार का कोई सदस्य यदि उसे हिंदू धर्म के बारे में समझाने की कोशिश करता है तो वह उसे भी राष्ट्र विरोधी की तरह देखता है। उसमें यह तर्क (हीनता) और विवेक (हीनता) अचानक पैदा नहीं हुआ है। बावजूद इसके, अब तक उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहा। लेकिन अचानक उसे लगने लगा है कि वह राजनीतिक रूप से बहुत सजग और सक्रिय है। चीजों के प्रति उसकी प्रतिक्रिया में भी बदलाव आ गया है।

अब अगर विश्वकप में भारत पाकिस्तान को हराता है, तो उसे भारत की जीत से ज्यादा इस बात की खुशी होती है कि पाकिस्तान हार गया। वह खेल को खेल की तरह नहीं लेता बल्कि युद्ध की तरह लेता है। नोटबंदी के दौरान लाइनों में खड़े लोगों की मृत्यु पर उसकी प्रतिक्रिया चौंकाने वाली होती है। वह तर्क देता है कि सेना में भी लोग मरते हैं। वह नहीं जानता कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। बस उसे एक बात समझ आ रही है कि भारतीयों का विदेशों में सम्मान बढ़ रहा है। कैसे? यह जानने की उसके भीतर न इच्छा है और न ही कोई जरिया है।

इतिहास के प्रति भी जनमानस की रुचि अचानक जागृत हो गई है। बेशक उसका इतिहास से कोई लेना-देना न रहा हो, लेकिन वह इतिहास के कथित खलनायकों को नई नजर से देख रहा है। वह देख रहा है कि किन-किन लोगों ने भारत को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभाई। जिन्हें अब तक वह नायक समझता रहा, वे अचानक खलनायक में तब्दील हो रहे हैं।

वह इस नए इतिहास को जानने-समझने के लिए कुछ पढ़ना चाहता है, न ही बताए जा रहे इतिहास की तथ्यों से जांच करना चाहता है। यह नया इतिहास उसे रोमांचित कर रहा है। वह एक नए किस्म के कल्पनालोक में भटक रहा है। ऐसा कल्पनालोक जो उसे रोजमर्रा की समस्याओं से परे धकेल रहा है। यहां किसी तर्क, विवेक और अतीत का ज्ञान नहीं चाहिए।

भारतीय जनमानस का यह व्यवहार अचानक और अकारण नहीं बदला है। 2014 में देश के नए शासकों ने इसे बाकायदा सुव्यवस्थित ढंग से बदलना शुरू किया। बड़ी, अहम और आम आदमी को परेशान करने वाली घटनाओं पर चुप रह जाना, ऐसे विषयों पर कमेंट करना जो समाज को अलग-अलग खांचों में बांट सके। जैसे विश्वकप के दौरान जब भारत ने पाकिस्तान को हराया, तो शासक के नवरत्नों में से एक ने कमेंट किया, यह पाकिस्तान पर दूसरी एयर स्ट्राइक थी। जवाब में पाकिस्तान की तरफ से कहा गया कि भारत 27 फरवरी भूल गया जब हमने भारत के दो विमान मार गिराए थे और और विंग कामंडर अभिनंदन को गिरफ्तार कर लिया था।

भारतीय शासकों की तरफ से दिए गए इस संदेश का मकसद भारतीयों के बीच आपसी रंजिश को बढ़ावा देना था। शासक कहना चाहते थे कि किसी भी तरह की घटना को आप इसी नजरिए से देखें। इससे शासक को एक बड़ा फायदा यह होता है कि समाज में दोनों मजहबों के लोग आपस में एक-दूसरे के दुश्मन बने रहेंगे।

देश के एक हिस्से में चमकी बुखार से बहुत से बच्चे मर जाते हैं लेकिन शासक के कानों पर जूं नहीं रेंगती। वह इस पर कोई कमेंट नहीं करता। उसका कमेंट न करना भी जनमानस को यह सीख देता है कि इस तरह की घटनाएं इतने बड़े देश में होती रहती हैं। लेकिन यही शासक विश्व कप में शिखर धवन की चोट पर ट्वीट करता है।

इसके आशय है कि उस खेल को पसंद करता है जिसे जनमानस पसंद करता है। जब यही शासक अपने प्रतिनिधि के रूप में साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से टिकट देता है, तो अपनी समझ में वह जनता को यह संदेश दे रहा होता है किअब नई सोच के लोग राजनीति में सक्रिय होंगे, अब पुराना दौर खत्म हो गया। एक तरह से शासक इतिहास को खारिज करने और नया इतिहास बनाने का संदेश जनता को देता है। जनता इसे ग्रहण करती है और साध्वी प्रज्ञा को संसद पहुंचा देती है।

भारतीय जनमानस की एक बड़ी कमजोरी है। वह अंततः अपने शासक के जैसा ही हो जाना चाहता है। चाहे वह उसे नापसंद ही क्यों न करता हो। अगर देश की बात न भी की जाए, तो आप कार्यालयों में, घरों में छोटे-छोटे शासकों के अनुसार बदलते मातहत के बदलते व्यवहार से इस बात को समझ सकते हैं। हर मातहत अपने शासक (बॉस) को खुश करने के लिए तत्काल अपने व्यवहार और सोच को बदल लेता है। यही पिछले पांच साल से भारतीय राजनीति और समाज में हो रहा है।

हिंदुस्तान की जमीन पर कब्जा करने की चाह लिए यहां आने वाले हर हमलावर के बारे में एक मिथ प्रचलित रहा है। उसने जब यहां देखा कि यहां अलग-अलग मजहब, जुबानों, रहन-सहन और खानपान के लोग रहते हैं, तो उसके दिमाग में आया कि इन पर राज करना आसान है। इसी आधार पर उन्होंने यहां भरपूर शासन किया। समय बदल गया। भारत आजाद हो गया और विकास के रास्ते पर चलने लगा। लेकिन 2014 में नए शासकों ने फिर से इस मिथ को जीवित कर दिया। उसने भारतीय समाज को मुद्दों, मजहबों, खानपान, रहन-सहन को लेकर बांटने का काम किया। उसकी इसी सोच ने भारतीय जनमानस के व्यवहार को बदल दिया, जो और तेजी से बदल रही है।

(लेखक सुधांश गुप्त वरिष्ठ पत्रकार और रचनाकार हैं)

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