बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने पार्टी की जो नयी राष्ट्रीय कार्यकारणी घोषित की है, उसमें एक जानेमाने पसमांदा मुसलमान और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के पूर्व कुलपति तारिक मंसूर को तेरह उपाध्यक्षों में से एक नियुक्त किया गया है। बीजेपी की केरल इकाई के एक नेता पी अब्दुलकुट्टी, जो पिछली कार्यकारिणी के सदस्य थे, को भी पुनार्निर्युक्ति दी गई है। इस समय बीजेपी का फोकस राष्ट्रीय स्तर पर पसमांदा मुसलमानों को महत्व देने पर है। पसमांदा सबसे पिछड़े मुसलमान हैं, जिनमें से अधिकांश दलित या ओबीसी हैं। वे समाज और मुस्लिम समुदाय में सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से सबसे निचले पायदान पर हैं।
बीजेपी अलग-अलग दौर में मुसलमानों के विशिष्ट तबकों में अपनी पैठ बनाने का प्रयास करती रही है। इस समय, पार्टी का एक भी सांसद मुसलमान नहीं है, परन्तु पूर्व में उसने चुनिंदा मुसलमानों को राज्यपाल (सिकंदर बख्त) और केंद्रीय मंत्री (शाहनवाज हुसैन और मुख़्तार अब्बास नकवी) नियुक्त किया है। मोदी हाल में एक बोहरा मस्जिद में गए थे जहां उन्होंने घोषणा की कि बोहरा उनके परिवार का हिस्सा हैं। वे समय-समय पर अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चादर भी चढ़ाते रहे हैं।
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पिछले कुछ समय से बीजेपी पसमांदा मुसलमानों को लुभाने में लगी हुई है। इस साल, उत्तर प्रदेश में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव में उसने कुछ पसमांदा मुसलमानों को अपना प्रत्याशी बनाया था और उनमें से कुछ चुनाव जीते भी हैं। सन 2022 की जुलाई में बीजेपी की एक अहम बैठक हैदराबाद में हुई थी। उसमें मोदी ने बीजेपी कार्यकर्ताओं से कहा था कि वे पसमांदा मुसलमानों में अपनी पैठ बनाएं। उन्होंने यह भी कहा था कि मुस्लिम समुदाय एकसार नहीं है और पसमांदा, मुसलमानों का पिछड़ा तबका है। तभी से पसमांदा मुसलमानों को पार्टी की छतरी तले लाने के प्रयास चल रहे हैं।
बीजेपी इस समुदाय को लुभाने के लिए यह कह रही है कि मोदी की नीतियां किसी धर्म के लोगों के साथ भेदभाव नहीं करतीं और पसमांदा मुसलमान भी मोदी सरकार की ‘विकास योजनाओं’ के उतने ही ‘लाभार्थी’ हैं जितने अन्य समुदाय। इस बीच कई जानेमाने मुसलमानों, जिनमें पूर्व उप-राज्यपाल नजीब जंग, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी, जनरल ज़मीरुद्दीन शाह, शाहिद सिद्दीकी और सईद शेरवानी शामिल थे, ने आरएसएस मुखिया मोहन भागवत को एक चिट्ठी लिखकर उनसे ‘मेलमिलाप संवाद’ के लिए समय मांगा। एक महीने के इंतजार के बाद उन्हें संघ प्रमुख के दरबार में आने की इजाजत मिली।
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इन प्रमुख मुसलमानों ने भागवत से ‘मुस्लिम समुदाय के प्रति बढ़ती नफरत’ और उनके साथ ‘बुलडोजर न्याय’ पर बात की। यह भी कहा कि मुसलमानों को जिहादी और पाकिस्तानी कहा जाता है। भागवत का जवाब था कि हिन्दू भी गौहत्या और उन्हें काफिर कहे जाने से आहत महसूस करते हैं। इस ‘संवाद’ के बाद, आरएसएस के प्रमुख नेताओं, जिनमें मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मुखिया इन्द्रेश कुमार, कृष्ण गोपाल और राम लाल शामिल थे, ने 22 सितम्बर 2022 को आल इंडिया इमाम आर्गेनाइजेशन के मुख्य इमाम उमर अहमद इल्यासी से मुलाकात की। इल्यासी ने उम्मीद जाहिर की कि इस बातचीत से सांप्रदायिक सौहार्द में वृद्धि होगी।
इन संवादों का भारतीय राजनीति पर क्या असर पड़ा है? यह महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय राजनीति की दशा और दिशा मुस्लिम अल्पसंख्यकों को प्रभावित करती है। संघ परिवार के कई लेखक जिनमें राम माधव और पूर्व बीजेपी नेता सुधीन्द्र कुलकर्णी शामिल हैं, ने सितम्बर 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में भागवत के तीन व्याख्यानों के बाद तर्क दिया था कि आरएसएस बदल रहा है। भागवत ने कहा था कि हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है, मुसलमानों के बिना हिंदुत्व अधूरा है आदि, आदि।
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सच क्या है? सच यह है कि किसी भी राजनैतिक संगठन, भले ही वह खुद को सांस्कृतिक संगठन बताता हो, के दावे का सच इससे जाहिर होता कि वह और उसके साथी संगठन किस तरह की राजनीति करते हैं और कौन से मुद्दे उठाते हैं। भागवत स्वयं भी गौमांस और गौमाता का मसला उठाते रहे हैं। पिछले कुछ दशकों में यह एक भावनात्मक मुद्दा बन गया और इसके चलते न केवल मुसलमानों को अत्याचार और दमन का शिकार होना पड़ रहा है वरन ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी पटरी से उतर गयी है। ऐसा क्यों है कि बीफ को हिंदी पट्टी में तो मुद्दा बनाया जा रहा है पर केरल, पूर्वोत्तर और गोवा में नहीं? ऐसा क्यों है कि किरण रिजुजू जैसे नेता खुलकर कहते हैं कि बीफ उनके खानपान का हिस्सा है? और ऐसा क्यों है कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष नेता बीफ खा सकते हैं?
सच यह है कि नफरत की राजनीति के सबसे बड़े शिकार पसमांदा ही हैं। अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के खिलाफ नफरत संघ की शाखाओं और शिशु मंदिरों और बीजेपी के आईटी सेल द्वारा फैलाई जा रही है। नफरत से हिंसा फैलती है, हिंसा से ध्रुवीकरण होता है और ध्रुवीकरण के कारण मुसलमान अपने-अपने मोहल्लों में सिमटते जा रहे हैं। पसमांदा मुसलमान साम्प्रदायिक हिंसा से सबसे अधिक पीड़ित हैं।
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पिछले कुछ समय से बुलडोजर भी न्याय करने लगे हैं। संघ और बीजेपी के प्रवक्ता कहते हैं कि जो कुछ हो रहा है वह कानून के मुताबिक है। जाहिर है कि यह सच नहीं है। इसके अलावा संघ का शीर्षतम नेतृत्व यह प्रचार कर रहा है कि मुसलमान बहुसंख्यक बन जाएंगे। हम सबको याद है कि कुरैशी ने अपनी पुस्तक ‘पापुलेशन मिथ’ मोहन भागवत को भेंट की थी। इसमें इस मिथक को तर्कसंगत ढंग से गलत सिद्ध किया गया है। लेकिन कुछ समय पहले भागवत ने भी अपरोक्ष रूप से यह कहा था कि देश की मुस्लिम आबादी अन्य समुदायों की तुलना में तेजी से बढ रही है।
नफरत फैलाने के नए-नए तरीके ढूंढ़े जा रहे हैं। कोरोना जेहाद की बातें हुई हैं और अब टमाटर की कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए भी मुसलमानों को दोषी ठहराया जा रहा है। कुछ समय पहले हमें बताया गया कि मुस्लिम महिलाओं के साथ न्याय करने के लिए यूसीसी लागू की जाएगी। मजे की बात यह है कि यूसीसी का पहला मसविदा भी तैयार नहीं है। इसके पहले एनआरसी और सीएए के नाम पर मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करने के प्रयास हुए थे। इसके विरोध में मुस्लिम महिलाएं सड़कों पर उतर आई थीं और शाहीन बाग पर ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया था।
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इस बीच हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को गहरा करने वाली कई फिल्में रिलीज हुई हैं, जिनमें कश्मीर फाईल्स, केरला स्टोरी और 72 हूरें शामिल हैं। सरसंघचालक से लेकर प्रधानमंत्री तक ने इन फिल्मों की तारीफ की और बीजेपी नेताओं ने थोक में इनके टिकट खरीदकर लोगों को दिखाईं ताकि नफरत के जहर को ज्यादा से ज्यादा फैलाया जा सके।
कुल मिलाकर संघ का मूल चरित्र वही है जो पिछले सौ सालों से रहा है। भाषा और शब्द बदल गए हैं परंतु हिन्दू राज का एजेंडा वही है। पसमांदा मुसलमानों को केवल चुनावों में लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। यह मुसलमानों को बांटने की रणनीति का हिस्सा भी है। सच यह है कि चाहे पसमांदा हो या अशराफ- सभी मुसलमान संघ और बीजेपी की नीतियों के शिकार बन रहे हैं। पसमांदा मुसलमानों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन एक नए प्रहसन से ज्यादा कुछ नहीं है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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