26 जनवरी, 1972 को गणतंत्र दिवस पर राजपथ के सलामी मंच पर राष्ट्रपति का स्वागत करने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुली जीप पर आईं। अपनी विजयी प्रधानमंत्री के प्रतिकृ तज्ञता अर्पित करने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ा था। भीड़ खुशी में इस तरह चिल्ला रही थी कि वातावरण गुंजायमान हो गया था। दृश्य ऐसा था कि कड़ाके की उस ठंडी सुबह में एक महिला ऐसी थी जो अकेले खड़ी ललकार रही है। उन्होंने चुनौती स्वीकार की थी और पाकिस्तान के खिलाफ विजयी हुई थीं। उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति और उनके कुटिल सहयोगी हेनरी किसिंजर को भी चुनौती दी थी। उन्होंने उन लोगों को अनुमान ही लगाते रहने दिया और इतनी तेजी से सबकुछ किया कि उन लोगों की चालाकी धरी रह गई।'
इतिहास में सबसे गौरवशाली सैन्य विजय में देश का नेतृत्व करने के लगभग दो दशक बाद इंदिरा गांधी के एक जीवनीकार ने इस घटना को इस तरह प्रस्तुत किया। कोई भी युद्ध प्रेरक राजनीतिक नेतृत्व, उत्कृष्ट सैन्य नेतृत्व और जमीन, समुद्र या आसमान में शत्रुओं से आमने-सामने लड़ने वाले अफसरों तथा जवानों के पराक्रम और साहस के बिना नहीं जीता जा सकता। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के प्रतिष्ठित सैन्य नेतृत्व के बारे में सब जानते हैं और इसकी चर्चा भी जब-तब होती रहती है, नौ सेना के एडमिरल एस.एम. नंदा और वायु सेना के वायु सेनाध्यक्ष मार्शल पी.सी. लाल शायद ही कभी याद किए जाते हैं। इसी तरह, बांग्लादेश की मुक्ति के युद्ध के निर्णयात्मक विजय को उचित ही हर साल याद किया जाता है, उत्सव मुख्यतः पूर्वी सीमा पर हुए युद्ध पर रहता है, पश्चिमी सीमा पर हुई ज्यादा कठिन लड़ाई को आम तौर पर याद नहीं किया जाता। लोकप्रिय फिल्म 'बॉर्डर' से लोगों को पश्चिम में हुई कई घटनाओं की याद आती है।
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चार लोगों को 1971 की लड़ाई में परमवीर चक्र से सम्मानित किया गयाः मेजर होशियार सिंह, फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों, सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेतरपाल और लांस नायक अल्बर्ट एक्का। अल्बर्ट एक्का को छोड़कर सभी पदक पश्चिमी क्षेत्र में ही हासिल हुए। पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी कमान के कमांड-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जे. एस. अरोड़ा के सामने समर्पण किया था। उस समय लेफ्टिनेंट जनरल के.पी. कैंडेथ पश्चिम कमान में कमांड-इन चीफ थे। जिस तरह इस वक्त उत्तरी कमान है, यह उस समय इस तरह का नहीं था। कैंडेथ के जिम्मे का इलाका बहुत बड़ा था- जम्मू-कश्मीर से लेकर पंजाब और उत्तरी राजस्थान तक। उससे दक्षिण- जैसलमेर और बाड़मेर से सटे राजस्थान सीमा से गुजरात में कच्छ के रन तक दक्षिणी कमान के कमांड-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जी. जी. बेवूर के पास था। पाकिस्तान सेना की तरफ से पंजाब में आक्रमण और राजस्थान में धावों का मुंहतोड़ जवाब दिया गया। लेकिन चूंकि पूर्वी सीमा पर अधिक ध्यान देना जरूरी था, इसलिए भारत सरकार ने निर्णय लिया कि इस ओर आक्रमणकारी रक्षात्मक रणनीति रखना सबसे अच्छा व्यावहारिक तरीका होगा।
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काफी लंबा इलाका होने की वजह से पश्चिमी कमान के पास 11 इन्फैंट्री डिवीजन और एक बख्तरबंद डिवीजन था, दक्षिणी कमान के पास सिर्फ दो इन्फैंट्री डिवीजन, एक तोपखाना ब्रिगेड और बख्तरबंद के दो से भी कम रेजिमेंट थे। पश्चिमी कमान के तहत कमांडर थे- लेफ्टिनेंट जनरल सरताज सिंह, के के सिंह और एनसी रॉले। वे सभी, खास तौर से सरताज सिंह ने मानेकशॉ की 'रोके रखने की रणनीति' की सीमाओं से अपने आपको अलग कर लिया था। दरअसल, इस सीमा की वजह से इनमें से किसी कमांडर को यह अवसर नहीं मिला कि वह पूर्वी क्षेत्र में लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह की तरह अपना सच्चा शौर्य दिखा सके।
कई बख्तरबंद रेजिमेंटों, इन्फैंट्री बटालियनों और अन्य यूनिटों ने पश्चिमी और दक्षिणी कमानों- दोनों जगहों पर हुई खूनी लड़ाइयों में अपना जज्बा दिखाया। छंब की लड़ाई में 9 हॉर्स ने मनावर तावी नदी के किनारे 24 शत्रु टैंक नष्ट कर दिए; बसांतर की लड़ाई में शाकारगढ़ सेक्टर में 46 शत्रु टैंकों को नष्ट करने में रेजिमेंट की प्रमुख भागीदारी के लिए पूना हाउस के 20 साल के सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेतरपाल को मरणोपरांत परमवीर चक्र और उनके कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल हनुत सिंह को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 3 ग्रेडेनियर्स के मेजर होशियार सिंह इस क्षेत्र में परमवीर चक्र से सम्मानित होने वाले दूसरे अधिकारी थे।
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बाद में सेना प्रमुख बने ए एस वैद्य को इसी सेक्टर में ब्रिगेडियर रहते हुए पाकिस्तानी बख्तरबंद ब्रिगेड के खिलाफ साहसी कार्रवाई के लिए दूसरी बार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। इससे पहले वह 1965 में सीओ 9 हॉर्स रहते हुए महावीर चक्र से सम्मानित हुए थे।
लौंगेवाला की लड़ाई में वायुसेना ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। संख्या और हथियार काफी कम हो जाने के बावजूद अपनी पोस्ट की रक्षा किए रहने के लिए कंपनी कमांडर कुलदीप सिंह चांदपुरी को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
हालांकि 1965 में वायु सेना का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया गया था, 1971 तीनों सेवाओं का युद्ध था जिसमें दोनों सेक्टरों में थलसेना के प्रयासों में वायु सेना और नौ सेना- दोनों ने मारक तरीके से मदद की। 1965 में वायु सेना ने जितनी उड़ानें भरी थीं, इस बार सामरिक उड़ानों की संख्या सिर्फ पश्चिमी सेक्टर में ही दोगुने से भी ज्यादा थी। नौ सेना ने कराची बंदरगाह पर साहसी हमला कर मनोबल बढ़ाया। हालांकि आईएनएस खुकरी को आग में खो देना पड़ा लेकिन इसने पीएनएस गाजी पनडुब्बी को डुबो दिया। इससे बंगाल की खाड़ी में आईएनएस विक्रांत और अन्य जहाजों को बेरोकटोक ऑपरेट करने का रास्ता खुल गया। श्रीनगर के आसमान में दो हवाई जहाजों की लड़ाई में वायु सेना के लिए एन.एस. सेखों को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। वह सिंगल नैट पर सवार थे जबकि पाकिस्तानी सेना के छह सैबर थे। सेखों ने अपना जीवन कुर्बान करने से पहले उनमें से दो को मार गिराया।
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जब पाकिस्तानी सेना ने ढाका में आत्मसमर्पण किया, याहया खां ने अपने लोगों को संबोधित कर कहा कि युद्ध जारी रहेगा। लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ऐसा करने का कोई इरादा नहीं था। बांग्लादेश को आजाद करने का मिशन पूरा हो गया था और पश्चिमी क्षेत्र में युद्ध जारी रखने का मतलब अधिक लोगों का हताहत होना, विनाश और पीड़ा ही होती। इसलिए उन्होंने 17 दिसंबर को संसद में घोषणा की कि भारतीय प्रतिरक्षा बलों को आज ही शाम 8 बजे से युद्ध विराम के निर्देश दे दिए गए हैं। यह शासन कला का उच्चतम आदर्श था। जो लोग संदेह जता रहे थे कि विदेशी दबाव में भारत ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की है, उनके लिए मानेकशॉ का उत्तर थाः 'मैं यकीन ही नहीं कर सकता कि कोई देश इंदिरा गांधी पर दबाव डाल सकता है।
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