विचार

आकार पटेल का लेख: कुछ से कतराना, कुछ खास केसों को निपटाना, इससे बट्टा तो नहीं लग रहा सुप्रीम कोर्ट की साख पर!

सुप्रीम कोर्ट की साख स्वतंत्र संस्थान की है जो राजनीति से ऊपर उठकर काम करता है और संविधान की रक्षा करता है। इस साख को बनाने में वर्षों लगे हैं क्योंकि कुछ साहसी न्यायाधीशों ने दशकों तक सरकारी मंसूबों और राजनीतिक नेतृत्व की मंशा के विपरीत काम किए हैं।

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इलेक्टोरल बॉन्ड को सुप्रीम कोर्ट में पांच साल पहले चुनौती दी गई थी। लेकिन इस पर अभी तक कोई फैसला नहीं हुआ है। इस बॉन्ड की स्कीम को मोदी सरकार ने 2017 के बजट में ‘मनी बिल’ के तौर पर पेश किया था, ताकि इस पर राज्यसभा में कोई बहस और वोटिंग न हो सके।मोटे तौर पर इस योडना के तहत कोई भी व्यक्ति (विदेशी कंपनियां और दूसरे देशों की सरकारें, यहां तक कि कुछ आपराधिक तत्व भी) बिना नाम सामने लाए राजनीतिक दलों को असीमित चंदा दे सकते हैं।

आरबीआई ने इस योजना के यह कहकर विरोध किया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह का नकद पैसा ही है, लेकिन सरकार ने आरबीआई की इस आपत्ति को खारिज कर इसे लागू कर दिया था। इसे चुनौती दिए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक इस पर सुनवाई नहीं की है और न ही कोई फैसला हुआ है।

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इसी तरह नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को आए हुए दो साल हो गए और तभी इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई थी कि यह संविधान का उल्लंघन है। वहीं केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इसे तो शुरुआत बताते हुए कहा था कि इसकेसाथ ही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एनआरसी) भी आएगा, जो देश से ‘दीमकों’ को खत्म कर देगा।

पाठकों को याद होगा कि सीएए-एनआरसी का देश भर में कितना व्यापक विरोध हुआ था और लगभग हर शहर में लोग इसके खिलाफ सड़कों पर उतरे थे। लेकिन फिर भी किन्हीं कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने इस केस की भी सुनवाई नहीं की।

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लगभग उसी दौरान जम्मू-कश्मीर राज्य का स्वरूप बदल दिया गया। हालांकि अनुच्छेद 370 को निरस्त तो नहीं किया गया, लेकिन इसे खोखला जरूर कर दिया गया। कश्मीर से राज्य का दर्जा छीन लिया गया और उसे एक केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया। लद्दाख को इससे अलग कर दिया गया। (इससे चीन के साथ समस्या खड़ी हो गई, लेकिन वह एक अलग मुद्दा है)। कश्मीर के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को बर्खास्त कर दिया गया और कई को जेल में डाल दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर भी सुनवाई नहीं की। पूर्व सीएम महबूबा मुफ्ती सहित हिरासत में लिए गए कश्मीरी नेताओं की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर न तो सुनवाई हुई और न ही फैसला सुनाया गया। हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने अभी भी यह तय नहीं किया है कि यह सब संवैधानिक था या नहीं। इसने उन मामलों में भी तात्कालिकता नहीं दिखाई है जिसे बहुत से लोग बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं।

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इसी तरह ऐसे विभाजनकारी कानून जिन्हें सरकार का समर्थन हासिल है, उन्हें भी सुप्रम कोर्ट ने नहीं सुना। मसलन लव जिहाद कानून, जिसे 2018 के बाद सात बीजेपी शासित राज्यों ने पारित किया। इन कानूनों के जरिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाह को अपराध बना दिया गया, फिर भी इसे इतना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है कि इसपर तत्काल सुनवाई हो सके।

कृषि कानूनों को लेकर अदालतों ने शोर तो बहुत मचाया, लेकिन सिर्फ एक कमेटी का गठन करने के बाद कोर्ट इसे भूल गया और फिर सरकार ने खुद ही इन कानूनों को वापस ले लिया।

पेगासस के मुद्दे पर भी मौजूदा चीफ जस्टिस ने काफी कठोर टिप्पणियां की थीं, लेकिन इस जासूसी का शिकार होने वाले लोगों को कोर्ट गए एक साल हो चुका है, पर उस पर भी अभी तक कुछ खास नहीं हुआ है। दरअसल सरकार ने इस बात का हलफनामा देने से ही इनकार कर दिया कि उसने इस जासूसी उपकरण को मीडिया, विपक्षी नेताओं और यहां तक कि अपने ही मंत्रियों और न्यायपालिका पर इस्तेमाल करने की इजाजत दी है या नहीं।

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इन हालात की उन मामलों से तुलान करते हैं कि जिन पर कोर्ट ने तत्काल सुनवाई की और फैसले भी दिए।

2019 में 16 अगस्त को वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के जजों को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने उन आरोपों को दोहराया जो सुप्रीम कोर्ट के चार (बागी) जज लगा चुके थे। आरोप यह है कि जो केस प्रधानमंत्री की पसंद के होते हैं उन्हें सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच को बिना बारी के ही सौंप दिया जाता है जिसमें जस्टिस अरुण मिश्रा शामिल हैं।

दवे ने कहा कि तत्कालीन चीफ जस्टिस गोगोई के उस फैसले से समूचा कानूनी जगत भौंचक रह गया था जब उन्होंने 2019 के ग्रीष्म अवकाश के दौरान खुद को और जस्टिस मिश्रा को वेकेशन बेंच आनी अवकाश पीठ में शामिल किया था। ग्रीष्म अवकाश में आमतौर पर वरिष्ठ जज छुट्टी पर होते हैं और सिर्फ कुछ जज ही काम करते हैं। लेकिन इस बार अवकाश बेंच ने कई महत्वपूर्ण मुद्दों की सुनवाई की।

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इन केसों में अडानी समूह से जुड़ा एक मामला था जिसे जस्टिस मिश्रा ने बिना नियमित बेंच के आदेश के ही अवकाश बेंच के सामने सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया, जबकि इस केस में तात्कालिकता की ऐसी कोई आवश्यकता भी नहीं था। ऐसे ही ऐसे एक केस को सुना गया और 22 मई को इसे निपटा भी दिया गया।

अगले दिन जस्टिस मिश्रा ने अडानी समूह से जुड़ा केस सुना, जबकि इस केस की पिछली सुनवाई फरवरी 2017 में हुई थी। लेकिन अगले ही दिन जस्टिस मिश्रा ने इस केस को निपटा दिया। दवे ने लिखा कि इन दो केसों से अडानी समूह को हजारों करोड़ का लाभ हुआ होगा।

दवे ने कहा कि बिना बारी के जस्टिस मिश्रा द्वारा अडानी समूह से जुड़े केसों को सुनना और उन पर अडानी समूह के पक्ष मे फैसला देने का काम 29 फरवरी 2019 और 29 मई 2018 को भी हुआ था। इन आरोपों का जस्टिस मिश्रा और जस्टिस गोगोई ने कोई जवाब नहीं दिया। किसी भी अन्य जज ने भी कोई टिप्पणी नहीं की।

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पत्रकार अबीर दासगुप्त और प्रॉन्जय गुहा ठकुरता के एक इंवेस्टिगेशन से सामने आया कि जस्टिस मिश्रा ने सदा अडानी समूह के पक्ष में फैसला दिया। रिटारयमेंट के बाद जस्टिस मिश्रा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष नियुक्त कर दिए गए। और उसके बाद से ही सरकार की तरफ से हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में आयोग ने कोई चुनौती नहीं दी है।

सुप्रीम कोर्ट की साख एक स्वतंत्र संस्थान के रूप में है जो राजनीति से ऊपर उठकर काम करता है और संविधान की रक्षा करता है। इस साख को बनाने में वर्षों लगे हैं क्योंकि कुछ साहसी न्यायाधीशों ने दशकों तक सरकार मंसूबों और राजनीतिक नेतृत्व की मंशा के विपरीत काम किए हैं।

न्यायपालिका, और खासतौर से सुप्रीम कोर्ट विशेष माने जाते हैं क्योंकि वे सैद्धांतिक तौर पर मीडिया, विपक्ष और सिविल सोसायटी के दबाव से परे होते हैं। लेकिन अगर कोर्ट इसी तरह कुछ खास मामलों को सुनकर फैसले सुनाएगा और कुछ खास मालमों को अनदेखा कर देगा, तो क्या इतिहास इस संस्थान की साख को बट्टा लगते देखेगा।

(आकार पटेल एम्नेस्टी इंडिया के अध्यक्ष हैं। लेख में विचार उनके निजी हैं।)

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