कोविड-19 एक ऐसी महामारी है, जिसने पूरी दुनिया को लगभग एक ही समय में अपना शिकार बनाया है। कुछ समय पहले तक समाज विज्ञानी यह मान रहे थे कि ऐसे माहौल में दुनिया एकजुट होगी, वर्ग संघर्ष, जातिवाद और नस्लवाद का असर कुछ कम होगा। पर, आज के दौर में पूरी दुनिया में इसका ठीक उल्टा हो रहा है, जिसमें भारत भी शामिल है।
चीन में अफ्रीकी लोगों को कोरोना का कारण मान कर प्रताड़ित किया जा रहा है, अमेरिका के राष्ट्रपति लगातार इसे चीनी वायरस बताकर अपने देश और कनाडा में चीनी समुदाय के प्रति नफरत फैला रहे हैं, यूरोपीय देशों में अफ्रीकी और चीनी मूल के नागरिकों का बहिष्कार किया जा रहा है, तो हमारे देश में पहले से ही भड़के हुए हिन्दू-मुसलमान विवाद को एक नई ऊर्जा मिल गई है। सोशल मीडिया पर लगातार अफवाहें फैलाई जा रही हैं, पर सरकार तभी जगती है जब कोई उसका या उसकी नीतियों का विरोध करता है।
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दरअसल, चरम पूंजीवाद के इस दौर में हरेक सरकार जनता को अपने हाल पर छोड़ देती है और अपनी सारी नाकामियां इन्ही विवादों की आड़ में छुपाती है। अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप ने जब अपनी नाकामियों से पूरी स्थिति को अनियंत्रित कर दिया तब भी अपने हरेक विरोधी को अपने पद से हटाने और रक्षा सौदों पर ही ध्यान देते रहे। हमारे देश में भी इस महामारी के दौर में मिसाइलें खरीदी जा रहीं हैं, सरकारें बदली जा रहीं हैं और मीडिया को यह छूट मिली है कि वह असली समस्यायों की जानकारी किसी तक न पहुंचने दे।
अगर किसी सरकार को लगता है कि स्थितियां नियंत्रण में हैं, तो फिर इस पर झूठ बोलने की जरूरत कहां है? हमारा मीडिया झूठ छोड़कर जान है, जहान है को चार दिनों से दिखा रहा है। क्या किसी मेनस्ट्रीम मीडिया ने केरल के मुख्यमंत्री के किसी वक्तव्य को कभी दिखाया, जबकि इस समय देश में यही राज्य ऐसा है, जिसने गरीबों का ध्यान रखते हुए भी कोविड-19 को नियंत्रण में कर रखा है।
अमेरिका में अश्वेत और भूरी चमड़ी वाले लोग लगातार उपेक्षित रहे हैं। हरेक महामारी ने इनको अधिक संख्या में प्रभावित किया है। इनकी अधिकतर जनसंख्या शहर के बाहर गंदी बस्तियों में रहती है और अधिकतर आबादी श्रम वाले सर्विस सेक्टर में काम करती है। इनमें कुपोषण अधिक है और स्वास्थ्य सेवाओं तक इनकी पहुंच नहीं है। इस बार पहली बार कुछ राज्यों ने कोरोना के आंकड़ों को नस्ल के आधार पर भी प्रस्तुत किया है।
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लुसिआना में अश्वेतों की जनसंख्या 32 प्रतिशत है, पर कोरोना से मरने वालों में 70 प्रतिशत से अधिक अश्वेत ही हैं। महामारी का केंद्र बने न्यू यॉर्क में अश्वेतों की प्रति 10000 आबादी पर 20 व्यक्ति कोरोना से पीड़ित हैं। हिस्पानिक्स (भूरी चमड़ी वाले स्पेनिश बोलने वाली नस्ल) में यह दर 22 है, जबकि श्वेतों में कोरोना ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या महज 10 प्रति दस हजार है। यही स्थिति न्यू मेक्सिको में भी है। न्यू यॉर्क के गवर्नर एंड्रू कोमो ने कहा है कि इस पर शोध की आवश्यकता है कि अश्वेत लोग इसकी चपेट में अधिक संख्या में क्यों आ रहे हैं।
दूसरी तरफ अनेक जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते हैं कि अश्वेतों या फिर हिस्पानिक्स की अधिक मृत्यु दर के लिए किसी अध्ययन की आवश्यकता ही नहीं है, बल्कि उनकी सामाजिक और संगठनात्मक स्थिति ही सबकुछ बता देती है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड की जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ सांद्रा क्रौस क्विन के अनुसार ये लोग समाज के हाशिये पर हैं, इन लोगों की बस्तियां बहुत साफ़ नहीं होतीं, इसलिए ये लोग अनेक बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। बस्तियों में जनसंख्या का घनत्व बहुत रहता है, इसलिए महामारी के समय चाह कर भी ये लोग व्यक्तिगत दूरी का पालन नहीं कर सकते और स्वास्थ्य सेवाओं तक इनकी पहुंच नहीं है।
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सांद्रा क्रौस क्विन ने एच1एन1 (स्वाइन फ्लू) के समय भी साल 2009 में इन लोगों की स्थिति का अध्ययन किया था। उस दौर में अकेले ओक्लोहामा में इससे 1081 लोगों की मृत्यु दर्ज की गई थी, जिसमें 55 प्रतिशत अश्वेत थे, 37 प्रतिशत हिस्पानिक्स थे और महज 8 प्रतिशत श्वेत थे। उस समय भी अध्ययन करने के बाद सेंटर फॉर डिजीज कन्ट्रोल को अनेक सुझाव दिए गए थे, पर किसी पर अमल नहीं किया गया। दूसरी तरफ इस बार कोविड-19 के मामले में अधिकतर अश्वेत यह मान बैठे थे कि यह श्वेतों की बीमारी है, क्योंकि वही हवाई यात्राएं अधिक करते हैं। उनके समुदाय में किसी स्वास्थ्य कर्मीं ने इस रोग की पूरी जानकारी मुहैय्या नहीं कराई।
इस पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसा ही आगे भी चलेगा, क्योंकि हर ऐसी आपदा के बाद समाजवाद और कमजोर हो रहा है और पूंजीवाद सशक्त होता जा रहा है। पूंजीवाद का मतलब अब राष्ट्रवाद और कट्टरता रह गया है। ऐसी ही सरकारें हमारे ऊपर हुकूमत करेंगीं और हाशिये का समुदाय हमेशा सीमान्त ही बना रहेगा। सीमान्त लोगों की आवाज नहीं होती, वे तो समस्याओं से घिरे-घिरे ही मर जाते हैं।
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