जवाहरलाल नेहरू को इस देश में 1952, 1957 और 1962 में जबर्दस्त जनादेश मिला था। इस जनादेश का उपयोग उन्होंने संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने, भारत के संविधान के सिद्धांतों और प्रावधानों को जमीनी दृढ़ता देने और विपक्ष को अपनी न्यायसंगत भूमिका निभाने में सहयोग करने में किया। उन्होंने संसद को सर्वोच्च सम्मान दिया और कभी भी इसकी बैठक में अनुपस्थित नहीं रहे। विपक्ष के प्रति उनका नजरिया ऐसा था जो राष्ट्र-जीवन में इसके महत्व को मान्यता देता था।
इतना ही नहीं, उन्होंने विपक्ष को पनपने और भय मुक्त होकर पूरी ताकत के साथ अपनी बात कहने के लिए प्रोत्साहित किया। संसद हो या इसके बाहर, कभी भी असहमति की आवाज को दबाने की कोशिश नहीं की। अपने विचारों से असहमत लोगों को राष्ट्र विरोधी करार देकर उन्हें कलंकित करने का प्रयास नहीं किया। तब भी नहीं, जब उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़ा, आक्रामक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा, जबकि ऐसे वाकये अक्सर होते रहे। इसके बजाय, व्यक्ति और राजनीतिक दल अलग-अलग दृष्टिकोणों को सामने रखने और इसके प्रचार के लिए स्वतंत्र थे।
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नेहरू के कई समकालीन राजनीतिक विरोधी थे। वे नेहरू और उनकी नीतियों की आलोचना में बड़े बेबाक थे। कार्टूनों में नेहरू पर बड़ी निर्दयता से व्यंग्य किया जाता। फिर भी, नेहरू ने कभी सामने वाले को धमकी देने या डराने की कोशिश नहीं की। उनमें दृढ़ता तो थी, लेकिन कभी निरंकुश नहीं हुए। उनके पास विशाल बहुमत था, लेकिन उन्होंने कभी भी इसे अपने विचार थोपने का साधन नहीं माना। वह तर्क के आधार पर समझाने-बुझाने में, कुछ अपनी-कुछ औरों की बात मानने में भरोसा करते थे ताकि हर दृष्टिकोण के लोगों को इस बात का संतोष हो कि उन्हें सुना गया, उनकी राय को जगह दी गई।
नेहरू ने जिस विशाल हृदयता का परिचय दिया, आज उसकी कमी स्पष्ट रूप से खलती है। हम अपने गौरवपूर्ण उदार लोकतंत्र को बड़ी तेजी से एक खंडित और संकीर्ण राजनीतिक इकाई में बदलते देख रहे हैं, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें तमाम संस्थानों की स्वायत्तता और स्वतंत्रता को खत्म किया जा रहा है, जिसमें पूर्वाग्रह, कट्टरता और भेदभाव को सरकारी नीति के औजार के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि समाज को निरंतर ध्रुवीकरण की स्थिति में रखा जा सके।
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इस साल, जब हम अपनी आजादी की 72वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, लक्षण निराशाजनक हैं, अनिष्ट का पूर्वाभास दे रहे हैं। क्या यही वह लोकतंत्र है जिसकी हमने कल्पना की थी? क्या यही वह लोकतंत्र है जिसके लिए हमारे पूर्वजों और स्वतंत्रता सेनानियों ने संघर्ष किया और अपना बलिदान दिया? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है- नहीं। समय आ गया है कि नेहरू और उनकी पीढ़ी जिन मूल्यों को लेकर चली, उन्हें फिर से स्थापित किया जाए। इन मूल्यों पर वही ताकतें सवाल खड़े कर रही हैं जिनकी हमारे राष्ट्रवाद की नींव रखने में कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन आज वही सत्ता को नियंत्रित कर रही हैं। संघ परिवार का एकमात्र एजेंडा है नेहरू को नीचा दिखाना और लोकस्मृति से उन्हें भुला देना और वे ऐसा ही उन तमाम लोगों के साथ कर रहे हैं जिन्होंने नेहरू के साथ संघर्ष किया, उनके साथ काम किया।
यह समझना जरूरी है कि नेहरू पर ये हमले क्यों किए जा रहे हैं। दरअसल, इसका उद्देश्य न केवल भारतीय राष्ट्र-राज्य और भारतीय लोकतंत्र बल्कि भारतीय समाज की आधारभूत प्रकृति को बदलना है। इसे हासिल करने के लिए इतिहास को कपटपूर्ण तरीके से तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, घटनाओं को फिर से लिखा जा रहा है। नेहरूवादी विरासत को गलत तरीके से पेश करने की कोशिशों का विरोध होना चाहिए, इसपर आपत्ति की जानी चाहिए।
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नेहरू एक खांटी कांग्रेसी थे। फिर भी, वह किसी एक पार्टी की थाती नहीं, पूरे देश के हैं। निस्संदेह, उनके मूल्यों और सिद्धांतों को बचाने, संरक्षित रखने और फैलाने में कांग्रेसियों की विशेष भूमिका है। लेकिन इसके लिए बड़े स्तर पर देशव्यापी प्रयास जरूरी है, जिसमें उदार और बहुलतावादी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के साथ विभिन्न राजनीतिक दृष्टिकोण के लोगों को साथ आना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि नेहरू की कई नीतियों को उस समय के सापेक्ष देखना होगा, लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि नेहरू को एक कालखंड तक ही सीमित कर दिया जाए।
हमें उन मूल्यों का उत्सव मनाना चाहिए जिन्हें नेहरू ने हमारे राष्ट्रीय जीवन के आधारभूत तत्व के रूप में हमें सौंपा- धर्मनिरपेक्षता को लेकर उनका अटूट विश्वास, सभी प्रकार की सांप्रदायिकता का विरोध, वैज्ञानिक सोच के प्रति उनका दृढ़ विश्वास, गरीबी को मिटाकर एक निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समाज बनाने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और अपने देश की एक अलग विशिष्ट पहचान बनाने के प्रति उनका समर्पण।
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