अरब कहा करते थे
जब कोई अजनबी तुम्हारे दरवाजे आए
उसे तीन दिनों तक खिलाओ-पिलाओ
यह पूछने के पहले कि वह कौन है,
कहां से आया है
और किधर जा रहा है।
इस तरह, उसे इतनी ताकत आ जाएगी कि जवाब दे सके।
या, तब तक तुम दोनों इतने अच्छे दोस्त बन चुके होगे
कि तुम्हें इसकी परवाह ही न रह जाए।
तो चलें उस ओर।
भात? चिलगोज़े?
यह लो यह लाल कढ़ाईवाला तकिया।
मेरा बच्चा तुम्हारे घोड़े को
पानी पिलाएगा।
नहीं, मैं व्यस्त नहीं था जब
तुम आए
मैं व्यस्त होने की तैयारी नहीं कर रहा था.
यह वह कवच है जो हर कोई ओढ़ लेता है
यह दिखाने को कि दुनिया में उन्हें ख़ास मकसद है.
मुझ पर कोई कब्जा नहीं कर सकता।
तुम्हारी प्लेट इन्तजार कर रही है
तुम्हारी चाय में ज़रा नानेया कतर दूं।
मित्र नीधीश त्यागी द्वारा भेजी फिलस्तीनी-अमरीकी कवि नाओमी शिहाब नाए की यह कविता पिछले दिनों लगातार याद आती रही है। यूरोप में आप्रवासियों की लहर पर लहर आने और उन्हें राष्ट्रों की सीमाओं पर ही रोक देने की कुछ राष्ट्रों की कठोरता और कुछ के सरहद खोल देने की उदारता के बीच एक बड़ी दुविधा उन सरकारों की थी जो उन्हें शरण तो देना चाहती थीं, लेकिन इन नये अजनबियों के आने से देश में बढ़ रही बेचैनी का शमन करना उनके लिए आसान नहीं था।
आप्रवासियों की बढ़ती संख्या के साथ ही लगभग हर यूरोपीय देश में कट्टर राष्ट्रवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। जर्मनी में हिटलरी अभिवादन लौट रहा है और ‘बाहरी’ लोगों पर हमले भी बढ़ रहे हैं।
“बाहरी’ लोगों के आने से जो बेचैनी पैदा होती है, वह अस्वाभाविक नहीं, लेकिन उसे सहलाते रहने और उसी को राजनीतिक भाषा को परिभाषित करने का औजार बना लेने का नतीजा पूरी दुनिया में दिखलाई दे रहा है। बल्कि बाहरी लोगों का डर दिखलाकर उनसे सुरक्षा दिलाने का आश्वासन देकर ऐसे राजनेता देश पर कब्जा कर रहे हैं जो दूसरे वक्तों में सभ्य लोगों की पंक्ति में बिठाने लायक न माने जाते।
हमारी कवि तीन दिनों के साथ को काफी मानती हैं आत्मीयता के लिए। इस सवाल के फिजूल हो जाने के लिए कि आने वाला कहां का है और कहां जाएगा। यानी वह जो अजनबी था, घर का होकर रह जाएगा।
गुजरात से भागते बिहारियों, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के दृश्य कवि को झुठलाते हैं। ये लोग सालों-साल गुजरात में रहने के बाद यकायक बाहरी, अजनबी और खतरनाक बना दिए जा सकते हैं। एक बच्ची के बलात्कार के बाद जिस तरह इन प्रदेशों के आप्रवासियों पर हमले हुए हैं, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि बाहरीपन हमेशा ही बना रह सकता है। जो एक बार अजनबी था, वह हमेशा ही अजनबी बना रहता है। बीच में जो रिश्ता बनता है, वह सिर्फ कामकाजी है।
इसीलिए इन हमलों के खिलाफ जो फिक्र जाहिर की जा रही है, वह आर्थिक या कामकाजी है। कहा जा रहा है कि अगर ये हिंदी भाषी वापस चले गए तो उद्योग धंधों पर बुरा असर पड़ेगा, अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। बताया जा रहा है कि ये बाहरी लोग जिन परिस्थितियों और जिस मुआवजे पर काम कर लेते हैं, स्थानीय गुजराती कभी न करेंगे। इसलिए इनका बने रहना बहुत जरूरी है। गुजराती समाज के विशेषज्ञ इन हमलों को अपवाद और आश्चर्यजनक ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि गुजरात में हिंदी सीरियल, हिंदी गाने बहुत लोकप्रिय हैं और कोई विद्वेष हिंदी भाषियों के खिलाफ रहा नहीं है। इसलिए अधिक से अधिक इसे तात्कालिक माना जा सकता है और यह उबाल ठंडा पड़ जाएगा, ऐसा वे मानकर चल रहे हैं।
ये व्याख्याएं पर्याप्त नहीं हैं। वह विद्वेष जो बाहरीपन के खिलाफ एक राजनीति के तौर पर पिछले कई वर्षों से पैदा किया जाता रहा है और जिसे जायज राजनीति मान लिया गया है, वह सामाजिक स्वभाव का अंग बन जाता है। वह एक बाहरीपन से दूसरे बाहरीपन तक स्थानांतरित कर दिया जा सकता है।
मेघालय में बीच-बीच में खासी लोग अपनी पहचान की सुरक्षा के नाम पर जो बाहरी लोगों पर हमले करते रहे हैं, उसे देख लें। या मिजोरम से खदेड़ दिए गए ब्रू जनजातीय समुदाय की पीड़ा को। जो लोग असम में नागरिकता रजिस्टर बनने के पक्ष में तर्क गढ़ रहे थे, उन्हें क्या इसका अंदाज न था कि उसकी घोषणा के अगले दिन मेघालय, नागालैंड की सीमाओं पर भी स्थानीय पहरा शुरू हो जाएगा, जिससे इन प्रदेशों में बाहरी लोगों का प्रवेश रोका जा सके? हर राज्य में अब जो राष्ट्रीय रजिस्टर की मांग शुरू हो गई है, वह भारत नामक विचार के विखंडन की शुरुआत तो नहीं? इस प्रश्न पर विचार करने की फुरसत निरंतर चुनाव जीतने के लिए आसन बहुमत जुटाने की जुगत लगा रहे राजनीतिक दलों के पास नहीं।
इसलिए ज्यादातर दलों के नेताओं ने भी इस बड़े प्रश्न को न उठाकर यह कहना जरूरी समझा कि असल समस्या स्थानीय आबादी में बढ़ रही बेरोजगारी है। इस वजह से लोगों में गुस्सा बढ़ रहा है जो इस तरह बीच-बीच में फूट पड़ता है।
बेरोजगारी को बढ़ते बलात्कार, मुसलमानों की सामूहिक हत्या या ईसाईयों पर हमलों के लिए पहले भी जिम्मेवार ठहराया जाता रहा है। स्थानीय लोगों के लिए रोजगार में 80 प्रशिशत आरक्षण देने की मांग इस हिंसा के बाद करना राजनेताओं ने जरूरी समझा इसकी जगह कि यह सपष्ट रूप से कहा जाए कि बाहरी लोगों के खिलाफ हिंसा के लिए कोई भी कारण जायज नहीं माना जा सकता और इस हिंसा को स्वाभाविक नहीं माना जा सकता।
गुजरात में चूंकि यह हिंसा हुई है तो यह भी न भूलें कि 2002 के बाद से एक विशिष्ट किस्म के गुजराती राष्ट्रवाद को हवा दी गई है। जब गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ हुई हिंसा का प्रश्न उठाया गया और इंसाफ की मांग की गई तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इसे गुजराती अस्मिता पर बाहरी लोगों का हमला बताया। उन्होंने गुजरातियों को कहा कि ये बाहरी लोग उन्हें बदनाम करना चाहते हैं। याद कीजिये कि इसी हिंसा को छिपाने के लिए गुजरात गौरव यात्रा निकाली गई थी। ये बाहरी लोग भारतीय ही थे, लकिन इन्हें गुजरात विरोधी घोषित कर दिया गया।
यह भी न भूलें कि सरदार सरोवर बांध का विरोध करने के कारण मेधा पाटकर को गुजरात विरोधी घोषित कर दिया गया और हाल तक गुजरात के ‘धर्मनिरपेक्ष’ जन भी मेधा के साथ खड़े होने या उनका अपने मंच पर स्वागत करने को तैयार न थे।
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आश्चर्य नहीं कि हाल की हिंसा को भी गुजरात को बदनाम करने की साजिश कहा जा रहा है। इस तरह के तर्क अपने भीतर छिपी हिंसा पर पर्दा डालने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं हैं। अगर हमने अपने अंदर पल रहे इस विद्वेष का हिम्मत से सामना न किया तो ऐसी हिंसा का दोहराया जाना अवश्यंभावी है। यह अपवाद भी न रह जाएगा।
कविता में अंत में जो कहा जा रहा है कि मैं अपने ऊपर किसी का कब्जा न होने दूंगा, उसके अर्थ को भी हमिएँ समझने की जरूरत है।
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