किसी देश के इतिहास में ऐसा दुर्लभ संयोग बहुत कम होता है जब कोई एक घटना या कोई एक क्षण तत्कालीन विश्वदृष्टि या दौर का प्रतीक बन जाए। ईरान में हिजाब पहनने के कानून के खिलाफ महिलाओं का विरोध हो या फिर नेतन्याहू के न्यायिक ‘सुधारों’ को वापस लेने के लिए इजरायल का जन-आंदोलन- ये ऐसे ही उदाहरण हैं। ये दोनों नागरिकों के एक ऐसे वर्ग का चित्रण करते हैं जो अपने अधिकारों के लिए खड़े होने को तैयार है। अतीक अहमद की हत्या का दो मिनट का वीडियो भारत के लिए भी ऐसा ही क्षण था, लेकिन इजरायल या ईरान के एकदम उलट। वहां की घटनाएं प्रेरक हैं, उम्मीद जगाती हैं। लेकिन भारत की घटना समझदार लोगों में हताशा-निराशा पैदा करने वाली है।
बात इस घटना के फ्रेम में दिख रहे अतीक या उसके भाई अशरफ की नहीं। ये दोनों तो कुख्यात और सजायाफ्ता अपराधी, जिन्हें मौत तो मिलनी ही थी, लेकिन कानून के हाथों, न कि उन लोगों की हिरासत में जिन पर इन दोनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी। व्यापक संदर्भ में यहां मुद्दा हत्या, उसके बाद की प्रतिक्रिया का है जो 2023 के भारत की दशा बताता है कि इसकी आपराधिक न्याय प्रणाली, मीडिया, पुलिस, राजनीति कैसी है और सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि यहां का समाज कितना क्रूर होता जा रहा है।
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बेशक अतीक अहमद की 15 अप्रैल को मौत हुई, लेकिन उसके ‘डेथ वारंट’ पर तो 28 फरवरी को ही मुहर लग गई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने यूपी पुलिस की क्षमता पर भरोसा करते हुए कोर्ट की सुरक्षा की अतीक की याचिका खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस यूपी पुलिस पर भरोसा किया जिसने 2017 के बाद से ‘मुठभेड़ों’ में 183 लोगों को मार डाला है।
न्याय व्यवस्था के मामले में संकोच के कारण सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों पर कार्यपालिका कब्जा करती जा रही है। अब तो सुप्रीम कोर्ट देश के संविधान की रक्षा के अपने प्राथमिक दायित्व को भी खो बैठने के खतरे का सामना कर रहा है। सरकार और इसकी एजेंसियां आए दिन नई व्याख्या करके संविधान को हाशिये पर डाल रही हैं। यह उन मामलों पर निर्णय लेने में विफल रहा है जो लोकतंत्र के अस्तित्व और कानून के राज के लिए महत्वपूर्ण हैं- अनुच्छेद 370, कश्मीर का पुनर्गठन, नागरिक संशोधन अधिनियम, ईवीएम को चुनौती और वीवीपीएटी की गिनती को अनिवार्य करना, चुनावी बांड वगैरह।
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इसके फैसले को नहीं मानने पर किसी अधिकारी को, नफरती भाषण के लिए किसी नेता को या सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं और विधायकों के खिलाफ जांच में देरी के लिए किसी पुलिसकर्मी को दंडित नहीं किया गया। वह यह भी सुनिश्चित नहीं करता है कि सरकार उसके द्वारा जजों के सुझाए गए नामों का सम्मान करे या यह कि रिटायर्ड जजों को धमकी देने वाले मंत्रियों को सजा दी जाए। इन सबके बीच, हिन्दू राष्ट्र थोपने पर आमादा सरकार हर गुजरते दिन के साथ लोकतंत्र के ताबूत में एक और कील ठोंक देती है।
महत्वपूर्ण मामलों में देरी से होता यह है कि गुजरते समय के साथ कोई अवैधता पुख्ता होती जाती है और फिर एक समय के बाद उसे पलटना मुश्किल हो जाता है। अगर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट संविधान से मिले अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो उनका भी हाल एनएचआरसी, आरटीआई आयोग या लोकायुक्तों की तरह हो सकता है।
अतीक अहमद और उसके भाई के तीनों हत्यारे मीडियाकर्मी बनकर आए थे। मुझे यह बिल्कुल उपयुक्त प्रतीकवाद लगता है क्योंकि आज के भारत में मीडिया लोकतंत्र की भावना और कानून के शासन की हर दिन हत्या कर रहा है। यह न सिर्फ सरकार के प्रोपैगंडा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है बल्कि नफरत और फेक न्यूज भी फैलाता है जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी गौर किया है।
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अब मीडिया जनता से जुड़े मुद्दों को नहीं उठाता, न ही कार्यपालिका से सवाल पूछता है या सरकार को जवाबदेह ठहराता है। उदाहरण के लिए, इसने करण थापर के साथ सत्यपाल मलिक के साक्षात्कार में पुलवामा के बारे में कही गई विस्फोटक बातों को बिल्ल्कुल अनदेखा कर दिया। अतीक अहमद की बात करता है तो फोकस उसके अपराध पर होता है, न कि इस बात पर कि उसकी सुरक्षा में कहां-कैसे चूक हुई और इसके पीछे कोई साजिश तो नहीं? इसने पहले इसी तरह राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और अडानी संबंधी खुलासे से मुंह फेर लिया था। सरकार की हरकतों पर चुप्पी की चादर ओढ़कर और खबरों को सेंसर करके मीडिया नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्य के साथ विश्वासघात कर रहा है और अगर देश में निरंकुशता बढ़ रही है, तो इसके लिए वह भी काफी हद तक जिम्मेदार है।
अतीक हत्याकांड पर जिस तरह की आम लोगों में प्रतिक्रिया है, उससे पता चलता है कि हमारा समाज कितना क्रूर, धर्मांध और खून का प्यासा हो गया है। यह इच्छामृत्यु को गले लगाने जैसा है। किसी भी समझदार लोकतंत्र में इन हत्याओं पर वैसी प्रतिक्रिया नहीं होती जैसी भारतीय समाज में हुई। मंत्रियों ने ‘ईश्वरीय न्याय’ कहकर इसकी तारीफ की तो व्हाट्सएप समूहों और ट्विटर पर जैसे जश्न का माहौल था।
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जब विकास दुबे की हत्या हुई थी, तब तो इस तरह जश्न नहीं मनाया गया था और इसी से समाज की क्रूरता का असली चेहरा सामने आ जाता है। दुबे बहुसंख्यक समुदाय से था जबकि अतीक मुस्लिम समुदाय से। आज भारतीय समाज की त्रासदी यह है कि हम हर चीज को धर्म के चश्मे से देखते हैं- इतिहास, शिक्षा, कानून और न्याय, ऐतिहासिक हस्तियां, भाषा, कला और यहां तक कि संविधान भी। ‘दूसरे’ धर्म या समुदाय से जुड़ी कोई भी चीज बुरी है और उसे बाहर निकालना, मिटाना, उसमें रद्दोबदल करना जायज है। बहुसंख्यक समुदाय के इस ‘ईश्वर प्रदत्त’ अधिकार पर कोई कानूनी पाबंदी नहीं लगाई जा सकती। इस ‘घृणा के अधिकार’ का प्रयोग करने के लिए हम ऐसी सरकार का समर्थन करने को तैयार हैं जो चुने हुए लोगों के खिलाफ हिंसा और कट्टरता को उदारता के साथ देखती है, भले इसका मतलब यह हो कि हमें नौकरी, भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, सार्थक शिक्षा या स्वतंत्रता के बिना रहना पड़े।
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सैमुअल जॉनसन ने सही ही कहा है कि: ‘जो खुद को जानवर बना लेता है, वह एक इंसान होने के दर्द से निजात पा जाता है।’ मुझे लगता है कि जॉनसन यहां जो कह रहे हैं, वह यह है कि एक आदमी होना आसान नहीं है। इसके लिए हमें सहिष्णु, सहानुभूतिपूर्ण, कमजोरों का समर्थन करने वाला, दयालु, बुनियादी नैतिकता के प्रति संवेदनशील, घृणा और पूर्वाग्रहों से मुक्त, हिंसा से दूर रहने वाला, दूसरों का सम्मान करने वाला बनना होगा। एक आदमी के लिए कुछ कुर्बानी देनी पड़ती है, कुछ दर्द सहना होता है। इन बेड़ियों को फेंक देना बड़ा आसान है लेकिन इसके साथ ही हमें लाखों साल पीछे जाकर जानवर बन जाएंगे।
फ्रांसीसियों के पास इस अपवित्र लालसा के लिए एक बहुत ही उपयुक्त मुहावरा है- ‘नॉस्टैल्गी डे ला बूए’, यानी कीचड़ के लिए तड़प। इसलिए, हम डब्ल्यूबी यीट्स के शब्दों में सवाल कर सकते हैं:
एक अराजक जीव
अपने अंत समय में
क्या बढ़ रहा है
बेथलेहम की ओर
फिर जन्म लेने?
मुझे लगता है कि इसके जवाब के लिए हमें ज्यादा इंतजार करना नहीं पड़ेगा।
(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं।)
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