हम किसके लिए वोट देते हैं? अब जबकि हम पंजाब, मणिपुर, गोवा, उत्तराखंड और निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश चुनावी नतीजों के करीब पहुंच रहे हैं तो हमें इसी सवाल को ध्यान में रखना चाहिए। कोई भी किसी भी राजनीतिक दल का समर्थक हो लेकिन ये चुनावी नतीजे एक राष्ट्र के रूप में हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। अगर बीजेपी यूपी में फिर से जीत हासिल करती है (जैसा कि मुझे उम्मीद है, हालांकि उम्मीद काफी कम है) तो हम उसी रास्ते पर चलते रहेंगे जिस पर हम पिछले आठ वर्षों में चलते रहे हैं। और अगर यूपी में बीजेपी की हार हुई तो पूरा मिजाज बदल जाएगा। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार 2024 तक वह सबकुछ नहीं कर पाएगी जैसा कि अब तक करती रही है। वैसे यह लेख पार्टियों और चुनावों के बारे में नहीं है, बल्कि मतदाता के बारे में है कि वे किस तरह और किसके लिए क्यों वोट करते हैं।
आमतौर पर वोटिंग को समझने का एक तरीका तो सत्ता विरोधी लहर माना जाता है, हालांकि इस जुमले को किसी और और लोकतांत्रिक देश में इस्तेमाल नहीं किया जाता। अमेरिका में सत्तासीश राजनीतिज्ञों को हमेशा अपने प्रतिद्वंदियों के मुकाबले 8 फीसदी का लाभ रहता है। यानी उनके पास सत्ता का ठीकठाक फायदा होता है। 2001 में मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (एमआईटी) के एक अध्य्यन में वर्ष 1942 से 2000 तक के सभी चुनावों का विश्लेषण किया गया।। इसमें सामने आया था कि सत्ता में रहने वाले राजनीतिज्ञों को फायदा इस बात का मिलता है कि वे सत्ता में रहने के दौरान वोटर लाभकारी योजनाओं और तोहफों की सौगात दे सकते हैं। जिसके बदले में वोटर उन्हें अगली बार फिर वोट दे हैं।
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भारत में सरकार का आकार थोड़ा छोटा होता है और फिर सरकार के पास संसाधन भी इतने नहीं होते कि नेता ऐसा कर सकें। ऐसे में जो भी पार्टी सत्ता में आती है वह अपने वोटरों की उम्मीदें पूरी करने में आम तौर पर नाकाम रहती है। यही कारण है कि पांच साल सरकार में रहने के बाद भी पार्टियों को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ता है।
इस सबके बावजूद देश के कई राज्य ऐसे हैं जहां कई दशकों से एक ही पार्टी की सरकार है, और इससे भान होता है कि कुछ और ही चल रहा है।
वोटरों का रुख समझने का एक अन्य तरीका है पहचान की राजनीति। यह भारत के लिए कोई नई और अनोखी बात नहीं है, लऔर एक से अधिक लोकतांत्रिक देशों में ऐसा होता रहा है। धर्म और जाति बड़े और काफी हद तक मुख्य कारक हैं, और इसका अर्थ है कि हमारा वोटिंग का तरीका बताता है कि हमने धर्म और जाति की राजनीतिक समर्थन दिया है। तो फिर सरकार का इससे क्या लेना-देना है? वैसे कोई खास नहीं, लेकिन अगर सबको नहीं तो कुछ लोगों को तो लगता ही है कि कोई भी पार्टी सत्ता में आए उनके जीवन में तो कोई बदलाव आने वाला है नहीं। और यही हकीकत है।
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देश के अधिकांश लोग गरीब हैं और भूखमरी का शिकार हैं। उनके बच्चे सरकारी स्कूल या किसी भी अन्य बेहतर स्कूल में शिक्षा नहीं हासिल कर पाएंगे क्योंकि अगला मुख्यमंत्री भी तो पहले जैसा ही होगा। उच्च शिक्षा के दरवाजे उनके लिए पहले से बंद हैं। उन्हें स्थानीय स्वास्थ्य केंद्रों पर जो इलाज मिलता है (और अगर मिलता भी है तो), वह भी सरकार बदलने से नहीं बदलने वाला है। अगर वे किसान हैं, जैसा कि अधिकतर भारतीय हैं, उनका जीवन भी पहले जैसा ही रहने वाला है। वे प्रोफेसर, वैज्ञानिक या बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बडे अफसर तो बन नहीं जाएंगे। दरअसल इन सभी को कोई उम्मीद ही नहीं है कि उन्हें कुछ हासिल होगा।
कुल मिलाकर सरकार उन्हें प्रगति का मौका ही नहीं देती और अपने दम पर कुछ हासिल करने में वे सक्षम है नहीं। तो फिर इनके लिए बचता क्या है? सिर्फ धर्म और जाति की पहचान। इस मामले में सरकार कुछ अंतर पैदा कर सकत है। मंदिर और प्रतिमाएं, हेट स्पीच और हिंसा, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना आदि इस राजनीति का हिस्सा हैं। और ये सबकुछ हमें इन दोनों क्यों अधिक दिखाई देता है, क्योंकि बीजेपी ने अपने उस विचार को त्याग दिया है कि वह अपने वोटर की जिंदगी में कोई बड़ा परिवर्तन लाएगी।
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अर्थव्यवस्था और रोजगार से लेकर शासन के हर पैमाने पर यह स्पष्ट है। फिर भी उसे राजनीति के दूसरे पहलू का फायदा मिलता है। अगर विकास और नौकरियां और उस जैसी अन्य जरूरतें बहुत से लोगों के लिए पहचान की राजनीति के मुकाबले कम अहम हैं, तो बीजेपी इसी का फायदा उठाकर धार्मिक राष्ट्रवाद को सामने रखती है। इसने अभी तक तो ऐसा ही किया है और इसे ऐसा करने में लंबा समय इसलिए लगा क्योंकि किसी और दल ने धर्म का राजनीति में इस तरह इस्तेमाल कभी नहीं किया।
यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीति का काफी निराशाजनक आकलन प्रतीत होता है लेकिन इसे दूसरे तरीके से पढ़ना आसान नहीं है। और फिर भी यह केवल एक थीसिस है। मैं यह मानने में बहुत गलत हो सकता हूं कि बड़ी संख्या में लोग गैर-भौतिक राजनीति के लिए वोट देते हैं या भले ही अतीत में ऐसा हो, यह भविष्य में किसी भी कारण से जारी नहीं रह सकता है। एक हालिया रिपोर्ट से पता चला है कि समाजवादी पार्टी के तहत पांच वर्षों में यूपी की जीडीपी 2012-17 की तुलना में 6.92% बढ़ी है। लेकिन बीजेपी के तहत 2017 के बाद से विकास दर प्रति वर्ष केवल 1.95% रही है। निश्चित रूप से यह ऐसा प्रदर्शन नहीं है जिसपर वाहवाही की जाए। फिर भी, केवल कुछ ही दिनों के लिए, मुझे यह जानकर आश्चर्य नहीं होगा कि जीत तो इसी की हुई है।
(लेखक एम्नेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के अध्यक्ष हैं)
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