हमारी आजादी की लड़ाई का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय काकोरी केस है। इसके साथ ही 17 दिसंबर से 20 दिसंबर तक के चार दिनों का स्वाधीनता संग्राम में विशेष महत्त्व है। आज से 90 वर्ष पहले वर्ष 1927 में इन दिनों में भारत माता के चार सपूत उसे आजाद कराने के अपने प्रयासों के बाद हंसते-हंसते फांसी के तख्तों पर झूल गए।
इन चारों स्वतन्त्रता सेनानियों के जीवन के बारे में संक्षिप्त तौर पर ये कहा जा सकता हैै:
क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहासकार और जीवनी लेखक सुधीर विद्यार्थी ने लिखा है, “आर्यसमाजी विचारों के राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान की मित्रता और मातृभूमि की आजादी के लिए उनका साथ शहीद हो जाना साम्प्रदायिक सद्भाव और हमारे इतिहास की बड़ी विरासत है, जिसे जानना आज बहुत जरूरी हो गया है।”
राम प्रसाद और अशफाकुल्लाह दोनों ही उच्च श्रेणी के शायर व कवि थे। उनकी रचनाओं ने उनके बाद के दौर से भी आजादी के आंदोलन में महत्त्वपूर्ण स्थान पाया व अनेक स्वतंत्राता सेनानियां को प्रेरित किया। दोनों ही अपने महान साहस व दृढ़ निश्चय के लिए विख्यात थे।
यह समय ऐसा था जब विरोधी शासकों द्वारा आजादी के आंदोलन को बाधित करने के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता तोड़ने के कुप्रयास हो रहे थे। ऐसे समय में हिंदू-मुस्लिम एकता के किसी बड़े और लोकप्रिय प्रतीक की बहुत जरूरत थी। इस कठिन समय में रामप्रसाद और अशफाकुल्लाह की दोस्ती इस हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में बहुत लोकप्रिय हुई और लोगों ने इस प्रतीक को सिर-माथे पर लिया।
बिस्मिल ने अपने अंतिम संदेश में कहा-
“अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो, हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें - यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है। सभी धर्मों और सभी पार्टियों को कांग्रेस को ही प्रतिनिधि मानना चाहिए। फिर वह दिन दूर नहीं, जब अंग्रेजों को भारतीयों के आगे शीश झुकाना होगा।”
अशफाकउल्ला खा का आखिर संदेश इस तरह था:
“भारत माता के रंगमंच पर हम अपनी भूमिका अदा कर चुके हैं। गलत किया या सही, जो भी हमने किया, स्वतंत्रता-प्राप्ति की भावना से प्रेरित होकर किया। हमारे अपने हमारी निन्दा करें या प्रशंसा, लेकिन हमारे दुश्मनों तक को हमारी हिम्मत और वीरता की प्रशंसा करनी पड़ी है। लोग कहते हैं हमने देश में आतंकवाद फैलाना चाहा है, यह गलत है। इतनी देर तक मुकदमा चलता रहा। हमारे में से बहुत से लोग बहुत दिनों तक आजाद रहे और अब भी कुछ लोग आजाद हैं, फिर भी हमने या हमारे किसी साथी ने हमें नुकसान पंहुचाने वालों तक पर गोली नहीं चलायी। हमारा उद्देश्य यह नहीं था। हम तो आजादी हासिल करने के लिए देश-भर में क्रान्ति लाना चाहते थे।
“हिन्दुस्तानी भाइयो! आप चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो। व्यर्थ आपस में न लड़ो। रास्ते चाहे अलग हों, लेकिन उद्देश्य सबका एक है। सभी कार्य एक ही उद्देश्य की पूर्ति के साधन हैं, फिर यह व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े क्यों?”
यह दोनों बहुत अच्छे कवि व शायर भी थे। फांसी से कुछ समय पहले अशफाकउल्ला ने यह रचना लिखी थी।
बुजदिलों ही को सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।
मौत को एक बार जब आना है तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझा किए, मरना क्या है।
वतन हमेशा रहे, शादकाम और आजाद,
हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे।
रामप्रसाद बिस्मिल को जब फांसी के लिए ले जाया जा रहा था तो खुशी-खुशी फांसी के फंदे की तरफ जाते हुए उन्होंने कहा -
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा हो जिक्र या, तेरी ही जुस्तजू रहे।।
रामप्रसाद बिस्मिल की लिखी ये पंक्तियां तो बहुत मशहू हैं -
अब न अगले वलवले हैं, और न अरमानों की भीड़!
एक मिट जाने की हसरत, अब दिले बिस्मिल में है!
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