भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष निर्वाचित होने वाले दिग्गज नेता सुभाष चंद्र बोस का 18 अगस्त, 1945 को ताईपे में एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया था। तब से 75 साल बीत चुके हैं और उनकी अस्थियां अब भी टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में रखी हुई हैं, उन्हें अंतिम संस्कार के लिए भारत नहीं लाया गया।
दुर्घटना से जुड़ी 11 पड़तालों और उनके शव के अग्नि संस्कार के बाद उनकी अस्थियों को जापान की राजधानी में रखे जाने से निर्विवाद रूप से इन तथ्यों की पुष्टि होती है। नरेंद्र मोदी सरकार ने बोस से संबंधित सभी गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक कर दिया और इनसे सामने आए तथ्यों से भी यही बात साबित होती है। 31 जुलाई, 2017 को गृह मंत्रालय ने सूचना के अधिकार कानून के तहत पूछे गए सवाल के जवाब में यही बात दोहराई, “शाह नवाज समिति, न्यायमूर्ति जीडी खोसला आयोग और न्यायमूर्ति मुखर्जी जांच आयोग की रिपोर्टों पर विचार करने के बाद सरकार इस नतीजे पर पहुंची है कि नेताजी का 1945 में विमान दुर्घटन में निधन हो गया।”
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
इस संदर्भ में सर्वोपरि कानूनी और नैतिक अधिकार बोस की बेटी और उनकी इकलौती वारिस प्रोफेसर अनीता बोस के पास हैं। मेरी पुस्तक ‘लेड टु द रेस्ट’ में इस मामले में अनीता बोस की राय को शामिल किया गया है और उनका मानना है कि नेताजी के बारे में एकमात्र सुसंगत तर्क यही है कि 18 अगस्त,1945 को विमान हादसे में उनका निधन हो गया।
उनकी दिली इच्छा है कि नेताजी की अस्थियों को भारत लाया जाए। इस मामले में उनकी भावना यह है कि उनके पिता स्वतंत्र भारत में लौटना चाहते थे जो नहीं हो सका और ऐसे में उनकी अस्थियों को तो कम-से-कम भारत की मिट्टी नसीब होनी ही चाहिए। साथ ही वह चाहती हैं कि बंगाली हिंदू परंपरा के अनुसार उनकी अस्थियों को गंगा में प्रवाहित किया जाए।
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
संभवतः मोदी ने बोस के प्रति सम्मान के कारण ‘नेताजी पपेर्स’ को सार्वजनिक नहीं किया बल्कि इसलिए किया कि बोस के दूर के रिश्तेदारों ने उन्हें गुमराह किया कि फाइलों को सार्वजनिक करने से यह तथ्य उभरकर सामने आएगा कि वह जवाहरलाल नेहरू के इशारे पर सोवियत संघ में मारे गए थे। लेकिन जब गोपनीय दस्तावेजों से भी इस तरह की कोई बात नहीं निकली तो मोदी की रुचि जाती रही। इसी कारण भारत सरकार ने उनकी अस्थियों को भेजने का अनुरोध नहीं किया जबकि जापान सरकार ने नेताजी की अस्थियों को भेजने के लिए भारत सरकार के अनुरोध की शर्त लगा रखी है।
ऐसी परिस्थितियों में 77 साल की हो चुकीं अनीता बोस के लिए उम्मीद केवल कांग्रेस से है। बोस कांग्रेस के स्वतंत्रता संग्राम के हीरो थे और इसी भारत की आजादी के लिए काम करते हुए उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रेंकोजी मंदिर का दौरा किया था और पीवी नरसिंह राव ने अस्थियों को लाने में दिलचस्पी तो दिखाई लेकिन कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण यह सिरे नहीं चढ़ पाई। नेताजी से जुड़े तमाम सबूतों पर गौर करने के बाद किसी भी समझदार व्यक्ति का मत यही होगा कि उनकी अस्थियों को वापस लाया जाना चाहिए। इस काम के लिए कांग्रेस को आगे आना चाहिए।
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से स्नातक करने के बाद बोस ने काफी अच्छे नंबर से इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा पास की थी, लेकिन उन्होंने नौकरी नहीं की और बंबई के लिए निकल पड़े। बोस के जहाज ने जिस दिन बंबई में लंगर डाला, वह उसी दिन स्वतंत्रता आंदोलन के मसीहा मोहनदास गांधी से मिलने पहुंच गए। बोस उत्सुकता से भरे हुए थे और उनके अंदर तमाम सवाल उमड़ रहे थे। नतीजा यह हुआ कि गांधीजी से मुलाकात में उन्होंने सवालों की बौछार कर दी, लेकिन वे जवाब से संतुष्ट नहीं हुए।
बाद में बोस ने यह स्वीकार भी कियाः ‘महात्मा ने जो योजना बनाई थी, उसमें इस बात को लेकर अस्पष्टता थी कि स्वतंत्रता आंदोलन के आगे के चरण क्या होंगे जिससे आजादी के लक्ष्य को पाया जा सके।’ बहरहाल, गांधीजी ने बोस को बंगाल कांग्रेस के नेता चितरंजन दास से संर्क करने को कहा और दास अनायास ही बोस के राजनीतिक गुरु बन गए।
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
1928 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन के समय बोस बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उसमें गांधीजी ने डोमिनियन स्टेट संबंधी प्रस्ताव रखा जिसके जवाब में बोस ने संशोधन रखा कि इसकी जगह पूर्ण स्वराज की बात होनी चाहिए। बोस का संशोधन पारित न हो सका। लेकिन गांधी ने बोस से कहा, ‘अगर आप मेरी मदद करेंगे और ईमानदारी और बुद्धिमानी से कार्यक्रम का पालन करेंगे तो मैं वादा करता हूं कि स्वराज का प्रस्ताव एक साल के भीतर आ जाएगा।’ एक साल बाद लाहौर अधिवेशन में इसे विधिवत अपनाया भी गया।
आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर नेहरू और बोस के विचार एक-से थे। जून 1935 में जब नेहरू जेल में थे, उनकी पत्नी कमला को तपेदिक के इलाज के लिए तत्काल यूरोप ले जाना था। बोस उस समय वियना में निर्वासन में थे और कमला नेहरू के साथ वही प्राग गए। जब कमला नेहरू की हालत बिगड़ गई तो अंग्रेजों ने नेहरू को उनके पास जाने दिया। अंततः कमला को लौसेन ले जाया गया, जहां 1936 में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और सुभाष चंद्र बोस की मौजूदगी में उनका निधन हो गया।
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
यूरोप में तीन साल के निर्वासन के बाद 1936 में बोस भारत लौटने के लिए बेचैन हो रहे थे और वियना में ब्रिटिश कौंसल-जनरल के आगाह करने के बाद भी वे बंबई आ गए, लेकिन उन्हें आते ही गिरफ्तार कर लिया गया। तब कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू ने इसके खिलाफ ‘अखिल भारतीय सुभाष दिवस’ मनाने का आह्वान किया।
छात्र जीवन के बाद जनवरी,1938 में बोस कुछ समय के लिए लंदन गए, जहां उन्हें गांधीजी का संदेश मिला कि उन्हें सर्वसम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया है। तब वह 41 साल के थे और कांग्रेस का नेतृत्व संभालने वाले सबसे कम उम्र के अध्यक्ष। अमेरेिका की टाइम पत्रिका ने उन्हें कवर पर छापा। बोस ने सोवियत संघ की तर्ज पर नेहरू की अध्यक्षता में योजना समिति का गठन किया।
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
जैसे-जैसे बोस का कार्यकाल बढ़ा, गांधीवादियों और कांग्रेस के रूढ़िवादियों ने उनके दोबारा चनुाव का विरोध किया। जब इस पर तूफान-सा खड़ा हो गया तो नोबल पुरस्कार विजेता रवींद्र नाथ टैगोर ने गांधी को सुझाव दिया कि बोस को फिर से नामित करना चाहिए। गांधी ने जवाब दिया- उनके लिए अच्छा होगा कि चुनाव नहीं लड़ें। खुद बोस ने भी कहा था कि अगर कोई अन्य वामपंथी उम्मीदवार होगा तो वह नहीं लड़ेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और बोस ने चुनाव लड़ा, जिसमें उन्होंने गांधीजी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हरा दिया।
इस पर गांधीजी बड़े आहत हुए और बोलेः ‘चकिूं मैंने ही डॉ. पट्टाभि को नामांकन वापस नहीं लेने को कहा था, इसलिए यह हार उनकी नहीं, मेरी है।’ बोस ने इसका जवाब दियाः ‘मेरे लिए यह बड़ा दुखद होगा कि दूसरे लोगों का तो भरोसा जीतूं, लेकिन भारत के महानतम व्यक्ति का नहीं।’ बोस ने गांधीजी के साथ तालमेल बैठाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे और अंततः उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की पेशकश की। लेकिन कोलकाता में कांग्रेस की विशष बैठक में नेहरू ने बोस से अपना इस्तीफा वापस लेने का प्रस्ताव पेश किया।
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
1943 में बोस ने दक्षिण-पूर्व एशिया को अपना बेस बनाया और जापान द्वारा कब्जा किए गए ब्रिटिश भारतीय सेना के कैदियों-युद्धबंदियों से इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) का गठन किया। उन्होंने आईएनए के ब्रिगेड के नाम गांधी, नेहरू और आजाद के नाम पर रखे। भारत में प्रवेश के अपने अभियान की पूर्व संध्या पर बोस, जो अब नेताजी के नाम से जाने जाते थे, ने आजाद हिंद रेडियो पर दिए अपने संदेश में यह कहते हुए गांधीजी का आशीर्वाद मांगाः ‘’राष्ट्रपिता, भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हमें आपके आशीर्वाद और शुभकामनाओं की जरूरत है।’’ यह पहली बार था जब किसी ने महात्मा को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन दिया था।
आईएनए का ब्रिटिश भारतीय सेना के साथ उत्तर-पूर्वी मोर्चे पर मुकाबला हुआ और थोड़े समय के लिए मणिपुर और नगालैंड के सीमाई हिस्से उसके कब्जे में भी रहे, लेकिन बाद में उन्हें पीछे हटना पड़ा। साल 1945-46 की सर्दियों में आईएनए के अधिकारियों- जिन्होंने प्रत्यक्षतः ब्रिटिश भारतीय सेना से बगावत की थी- का दिल्ली के लाल किले में कोर्ट मार्शल किया गया। इन्हें देशद्रोह का दोषी पाया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
इस फैसले के बाद जनता में अभूतपूर्व उबाल आया। नेहरू ने अपने भाषण में कहा, ‘इस मुकदमे ने हमें स्वतंत्रता के मार्ग पर कई कदम आगे बढ़ा दिया है। भारतीय इतिहास में विभिन्न समुदायों की ऐसी एकजुट भावना का कभी प्रदर्शन नहीं हुआ।’ गांधीजी की प्रतिक्रिया थीः ‘आईएनए के सम्मोहन ने हम पर जादू कर दिया है। यह नेताजी के कारण है और उनकी देशभक्ति किसी से कम नहीं। उनके हर काम से बहादुरी झलकती है।’
Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST
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Published: 15 Aug 2020, 7:17 PM IST