तो आप भी आख़िर सरकार के ही काम आए। हम बेवजह समझ रहे थे कि आप हैं तो कुछ तो बचा के रखेंगे। लेकिन आपने तो उनका पूरा एजेंडा ही स्क्रिप्ट में तब्दील कर दिया। असगर वजाहत साहब, आपसे ऐसी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। या शायद यह ‘उम्मीद’ ही गलत थी। आप बीच-बीच में जैसा दर्शन देते रहे हैं, पहले ही समझ लेना चाहिए था। असगर साहब, अब आप महज़ संदेह के घेरे में नहीं हैं। ‘महाबली’ से उठा संदेह अब यक़ीन में तब्दील हो चुका है।
अब ये न कहिएगा कि नाटक हमारा है, स्क्रिप्ट राजकुमार संतोषी की। स्क्रिप्ट में आपकी पूरी-पूरी भागीदारी है। संवाद में आप बराबर के हिस्सेदार। यह बात संतोषी अपने इंटरव्यू में बार-बार जोर देकर कहते हैं कि हम दोनों ने इस बात का बराबर ध्यान रखा कि “किसी के साथ अन्याय न होने पाए”।
उसी इंटरव्यू में जो शायद इस बात के लिए ही प्रायोजित किया गया कि फिल्म रिलीज होने से पहले अगर कहीं धुआं उठने की गुंजाइश हो तो शांत कर दिया जाए। यानी अगर किसी को भ्रम हो कि यह फ़िल्म गांधी की बात करती है तो साफ कर दिया जाए कि नहीं यह तो गोडसे की बात करती है। और बड़ी चतुराई से करती है।
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इस साक्षात्कार का वह हिस्सा (संतोषी का वह बयान) तो वाक़ई अंदर तक "प्रभावित" कर जाता है जब संतोषी आश्वस्त करते हैं कि "गोडसे भक्तों को इस फिल्म से कोई आपत्ति नहीं होने वाली"... ज़ाहिर है इस बयान में भी आपका भी राज़ीनामा शामिल है। कहना न होगा कि 'महाबली' से गोडसे तक की इस यात्रा में, आपका (आप दोनों का) आत्मविश्वास रूपी यह "बल" वाकई काबिले तारीफ है।
संतोषी बार-बार आनायास तो नहीं ही कहते हैं कि "इस फ़िल्म के बाद आप गोडसे का भी सम्मान करेंगे" और यह भी वकालत करते हैं कि “गांधी को तो सब जानते हैं, गोडसे के विचार जानना भी कितना जरूरी है”। वे यह भी कहते हैं कि अब तक "लोग मिसइन्फ़ॉर्म्ड थे, यूथ मिसइन्फ़ॉर्म्ड हैं"।
दिक्कत यह नहीं है कि यहां गोडसे को गांधी के बरअक्स खड़ा कर दिया गया। दिक्कत यह है यह काम आपने किया और फ़िल्म जैसे पापुलर माध्यम में किया। गोडसे को महिमामंडित किए जाने, उसे पूजे जाने के दौर में किया। असग़र वजाहत ने किया। तो सवाल तो लाज़मी है न!
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सवाल आपसे ही होना इसलिए भी लाज़मी है असगर साहब क्योंकि आप तो वामपंथ के ‘पहरुए’ हैं या रहे हैं। यह इसलिए भी पूछा जायेगा कि इस ‘इश्तहार’ पर जो आपके भी हस्ताक्षर हैं, वह वही सारा नैरेटिव स्थापित करते हैं, जिसकी आप ‘गाहे-बगाहे टुकड़ों में आलोचना करते दिखाई दे जाते हैं’। यह एक तरह की गलतफ़हमी बनाए रखने का मामला है जो आप बड़ी ख़ूबसूरती से करके निकल जाते हैं (आपके प्रति सम्मान के कारण न चाहते हुए भी फ़िल्म देखने के बाद यह कहना मेरी मजबूरी है)।
यहां यह कहना भी ज़रूरी है कि गोडसे के हक़ में मिले संवादों के बरअक्स ‘गांधी को चंद (अनुकूल दिखते) संवाद देकर आप अपने किए को जस्टीफाई नहीं कर सकते’। सच पूछिए तो गांधी यहां सवाल पूछते नहीं सिर्फ जवाब देते दिखाई देते हैं, कई बार तो हाड़-मांस के एक निरीह पुतले के रूप में भी। यहां गांधी, नेहरू और कांग्रेस देश के खलनायक के तौर पर प्रस्तुत हुए हैं और गांधी को स्त्री विरोधी ठहराने में कोई कंजूसी नही बरती गई है।
फ़िल्म के उस अंतिम दृश्य की चर्चा बहुत ज़रूरी है जब गांधी और गोडसे दोनों एक साथ निकलते हैं, दोनों के समर्थन में आमने-सामने से ज़िंदाबाद के नारे लगते हैं, नारे और तेज होते जाते हैं लेकिन अंत आते-आते गांधी ज़िंदाबाद मद्धिम पड़ता है और गोडसे ज़िंदाबाद उस पर हावी हो जाता है। यानी गांधी ज़िंदाबाद के स्वर ‘गोडसे ज़िंदाबाद’ में डीजाल्व हो जाते हैं। पीछे लगा बैनर भी ‘गोडसे ज़िंदाबाद’ ही दिखाता है।
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यहां यह भी समझना ज़रूरी है कि सिनेमेटोग्राफी की नाटकीयता अलग बात है, संवादों का झूठ अलग बात। इस मामले में राजकुमार संतोषी अपनी छवि के अनुकूल तकनीक के स्तर पर फ़िल्म को बखूबी निकाल ले जाते हैं। हालांकि उनका यह तकनीक कौशल ऐसे कथ्य को परोसने के लिए एक बड़े ख़तरे के तौर पर ही ज़्यादा देखा जाना चाहिए, क्योंकि दृश्य माध्यम का जैसा सीधा असर होता है उसमें यह तकनीक कौशल बहुत मारक तत्व का काम करता है।
दरअसल यह सब बहुत सायास, सुचिंतित, सुविचारित है।
फ़िलहाल फ़िल्म देखने के बाद आपसे यह सवाल तो बनता ही है कि …
आप स्क्रिप्ट बढ़िया लिखते हो
सपने बढ़िया देख/दिखवा लेते हो
कल्पना लोक में तुलसी, अकबर से लेकर गांधी-गोडसे तक को साथ दौड़ा लेते हो, सब कुछ इतना करीने से कर लेते हो कि अब, पूछना जरूरी लगने लगा है:
“पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है!”
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अंत में राजकुमार संतोषी की इस फ़िल्म की फ़िल्म ही की तरह से बात करें तो यह फ़िल्म उनके खाते में एक और चमकदार हीरे के तौर पर ही आयी है। इसके ज़रिए वह अपनी बेटी तनीषा संतोषी को पूरी सफलता के साथ लांच कर पाए हैं और तनीषा अपने अभिनय कौशल से छाप भी छोड़ती हैं। दूसरे किसी अभिनेता पर अगर मेरा ध्यान टिका तो वह दो या तीन एंट्री के साथ इश्तियाक़ खान हैं, जिन्हें हम कई फ़िल्मों में (छोटी भूमिकाओं में ही सही) पहले भी देख चुके हैं।
गांधी की भूमिका में दीपक एंटनी और गोडसे की भूमिका में चिन्मय मांडलेकर बड़ा नाम भले न हों, अभिनय के साथ न्याय करते हैं। वैसे भी संतोषी को इस फ़िल्म के लिए किसी चमकदार नाम की जरूरत नहीं थी। जब किरदार इतने चमकदार हों, कहानी इस हद तक ‘इरादतन’ और संवाद इतना लोडेड, तो किरदार निभाने वाले पर नज़र टिकती भी कहां है।
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