सुना है, तुम्हारी प्राण प्रतिष्ठा हो गई है। पूरे दिन आतिशबाजी चलती रही, नारे लगते रहे, जगह-जगह झंडे लहराए गए। हर झंडे पर तुम्हारा नाम लिखा था, तुम्हारी छवि उकेरी गई थी। हनुमान की भी। वैसे, मैंने पहली बार तुम्हारे बारे में अपनी नानी से सुना था। सारा बचपन तुम्हारी कहानियों के साथ ही बीता। अमर चित्र कथा में भी बारंबार तुम्हें पढ़ा। "ठुमक चलत रामचंद्र" सुनते समय तुम्हारे बालरूप की सुंदर कल्पना संजोई है। कभी तो सुनते समय नेत्र छलछला गए हैं।
इसी बालरूप को ही तो रामलला कहते हैं न! बालगोपाल से इतर तुम्हारे बालपन की कथाएं बहुत नहीं हैं। बालगोपाल नटखट थे। तुम राजा दशरथ के दुलारे थे। मर्यादा के प्रतीक। करुणानिधान, कृपासिंधु, शरणागतवत्सल- कितने ही तुम्हारे रूप हैं। तुम्हारे गुणों का ऐसा ही वर्णन सुना है। ऐसी ही तुम्हारी छवि बनाई है।
मगर पिछला एक हफ्ता बहुत उलझन और ऊहापोह में बीता। इतने सारे झंडों में तुम कहीं नजर ही नहीं आए। इन झंडों मे उकेरी गई क्रोधित मुखमुद्रा में मैं अपने कृपासिंधु को ढूंढती रह गई। तुम तो तुम, तुम्हें अपने हृदय में प्रतिष्ठित करने वाले हनुमान भी ढूंढे से नहीं मिले। झंडे में बनाए गए उग्र चेहरे में हनुमान की भक्ति की सरसता, उनके बचपन की निश्छल धमाल-चौकड़़ी और राममय हो जाने की तपस्या कहीं दिखाई नहीं पड़ी।
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पटाखों से उठते धुएं और शोर ने जैसे सामूहिक स्मृति और विवेक को ही धुंधला बना दिया। कुछ तोड़े जाने का बोध, कुछ खंडित हो जाने का एहसास और उस वक्त फैले फसाद में मासूम जीवन के समय से पहले अस्त हो जाने का भाव- सब पर जैसे मिट्टी पड़ गई हो। उस छोटी, धीमी अंतरात्मा की आवाज को "जय श्री राम" के गगनभेदी उच्चारण ने दबा दिया।
ऐसा लगा जैसे इस शोर और समारोह ने मुझसे मेरा राम छीन लिया। वह राम जिससे मैं बहस कर सकती थी, अपने मतभेद को बेबाकी से रख सकती थी जिसके साथ ने मुझे कभी स्त्रीवादी होने से नहीं रोका। वह राम जिसने हमेशा मुझे मेरे विचारों के साथ स्वीकारा। कभी कोई द्वंद्व महसूस नहीं होने दिया। दोगलेपन का भाव या अपराधबोध भी नहीं हुआ। जबकि मेरी तुम से कम-से-कम दो प्रसंगों पर गहरी असहमति रही है। सीता परित्याग और शंबूक के साथ तुम्हारा बर्ताव। पर तुम मुझे झगड़ा करने देते रहे हो। फिर जब से तुम्हें सत्य के रूप में पहचानना शुरू किया, तो सारे द्वंद्व यूं ही मिट गए।
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अब क्या तुम केवल अयोध्या में ही बसोगे? वह भी सिर्फ उसी प्रांगण में? कबीर तो कहते थे कि तुम तो हरेक घट में बसा करते हो? हरेक के मन में बसते हो। तुम जो मन-प्राण में बसे हो, उसे कौन ही प्रतिष्ठित कर सकता है?
वैसे, तुम्हारी कहानी के अनेक लोकरंजक रूप हैं। हर कथा में तुम्हारी अलग ही छवि सामने आती है। बौद्ध परंपरा के दशरथ जातक में तुम संसार की अनित्यता, परस्पर अंतर्निर्भरता का भरत को बोध कराते हो। नश्वरता की सत्यता और दुःख के मूल में आसक्ति या मोह का भान कराते हो। जैन रामायण में तुम क्षमा का साकार रूप हो जाते हो। तुम्हारी कहानी को सबसे पहले रचने वाले रचयिता की कथा भी मार्मिक है।
रत्नाकर समाज की विषमता से तंग आकर बागी हो जाते हैं। धनाढ्य वर्ग के सार्थवाह को लूटते हैं। इत्तेफाक से एक बार नारद मिल जाते हैं। नारद कहते हैं कि पहले अपनी पत्नी से पूछ तो लो कि वह तुम्हारा धर्म-अधर्म बांटने को तैयार है या नहीं। रत्नाकर को पूरा विश्वास है कि पत्नी का साथ मिलेगा। मगर पत्नी कह देती है कि उसका पत्नी धर्म मात्र सुख-दुःख बांटने तक सीमित है। धर्म का मार्ग हरेक का एकांकी होता है। रत्नाकर सकते में आ जाता है और तब नारद उन्हें संवारते हैं। राम नाम के अनमोल रत्न सौंप जाते हैं। उसका उल्टा जाप करने पर भी रत्नाकर संत हो जाते हैं। चींटियों की बांबी (वाल्मीकि) उनके आसपास बन जाती है। वे तपस्या से उठते हैं और क्रौंच पक्षी के जोड़े को विरह मे तड़पता देख पहला कवित्तमय श्लोक रचते हैं। इसलिए वाल्मीकि रामायण तुम्हारे विरह की कथा है। वहां पर प्रेम-करुणा जैसे भाव हैं।
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मानस के रचयिता तुलसीदास अपनी पत्नी की डपट सुन हतप्रभ रह जाते हैं। यदि इस नश्वर शरीर पर मोहित होने के स्थान पर राम पर मन रमाया होता, तो क्या ही अच्छा होता। कदाचित तभी तुलसी कहते हैंः काम, क्रोध, मद, मान, मोह, द्रोह से मुक्त हृदय में राम बसते हैं। पर झंडे में बनाई गई छवि तो दंभ, क्रोध, मद से सराबोर है। मगर वह तुम कहां हो? तुम वह नहीं हो सकते राम! वह तो मदांधता की प्रतिष्ठा थी, हर भावना, भक्ति, आस्था का अनासक्ति से परे वस्तुकरण और बाजारीकरण की प्रतिष्ठा थी। तुम गए ही कहां थे कि लौटते? यदि तुम्हारी कोई प्रतिष्ठा होगी, तो कैसी होगी?
तुम्हें पता है, जब भी बड़े शहर के सिग्नल या फ्लाई ओवर से गुजरती थी, तुमसे हफ्तों नजर नहीं मिला पाती थी। ठिठुरती ठंड, बरसते मूसलाधार पानी, आग उगलती गरमी में नंगे बदन जब छोटे बच्चे बंदर का खेल दिखाते, तो तुम्हारा सामना कैसे करती? उनके ठुमककर चलने पर किसी दशरथ ने हाथ नहीं थामा, लड्डू नहीं लुढ़काए! "बाजत पैजनियां" की धुन मस्तिष्क में बजती और वे बच्चे ढोल पर उलट-पलटकर करतब दिखाते। बालश्रम करने पर विवश मासूमों को भी तो लल्ला होने का हक है? बाल तस्करी का शिकार होती छोटी बालाओं, बालकों को महल न सही, प्यार भरे झोपड़े की तो जरूरत है। वे लाखों मासूम जिनके माता-पिता महामारी में चल बसे, उन सजीव राम ललाओं-ललनाओं को प्रेम, शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य और अपनेपन की प्रतिष्ठा कौन देगा?
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कई मासूम महामारी में पैदल चलते-चलते अलविदा हो गए। वे क्या किसी के लाल नहीं थे? तो इन सजीव राम ललाओं-ललनाओं के हक, आजादी और न्याय के लिए प्रयत्न करना मेरा रामकाज है। वह किए बिना मोहे कहां विश्राम कि मैं किसी भौतिक समारोह पर ध्यान दूं।
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