मानहानि मामले में सूरत की एक कोर्ट द्वारा दो साल की (अधिवक्ता कपिल सिब्बल के शब्द लें, तो) 'विचित्र' सजा के बाद लोकसभा से राहुल गांधी को जिस तेजी से अयोग्य घोषित किया गया, उसे हाल के वर्षों में भारत के लोकतांत्रिक स्तरों में तेजी से हो रही गिरावट का एक महत्वपूर्ण बिंदु कहा जा सकता है।
राहुल गांधी को सजा दिए जाने के आधार, सजा की अवधि और हालात, शिकायतकर्ता के ही कहने पर कुछ वक्त के लिए मुकदमे की सुनवाई पर रोक आदि की आने वाले दिनों में चर्चा तो होगी ही और इसकी जांच भी की जाएगी। कांग्रेस पार्टी सजा पर रोक के लिए कोर्ट भी जाएगी। लेकिन ये सारी बातें उस घोषणा के मुकाबले कुछ नहीं हैं जिनमें भारत ने एक तरह से दुनिया के सामने ऐलान कर दिया है कि अगर देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के सबसे अहम सदस्य ने संसद में क्रोनी कैपिटलिज्म और मित्रवादी पूंजीवाद पर उंगली उठाते हुए अडानी समूह और सत्तापक्ष के सबसे महत्वपूर्ण लोगों के रिश्तों पर सवाव पूछा तो उन्हें किस तेजी के साथ संसद से बाहर कर दिया जाएगा।
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जैसे-जैसे इस सबकी चर्चा होगी तो केंद्र में यह जरूर रहेगा कि किस तरह राहुल गांधी को खामोश करने की कोशिश की गई, अडानी मामले पर सवालों को कैसे टाला गया, हिंडनबर्ग के आरोपों के मद्देनजर जेपीसी जांच की मांग क्यों नहीं मानी जा रही, और इन सबसे अधिक राहुल गांधी के वे सवाल कि आखिर अडानी की कंपनियों में किसका पैसा लगाया गया है? संसद से बाहर होने के बाद अब राहुल गांधी के पास मौका है कि वे इन मुद्दों से जुड़े सवालों को जनता के बीच लेकर जाएं और एक राजनीतिक नैरेटिव तैयार करें।
राजनीतिक विश्लेषकों और यहां तक कि बीजेपी से हमदर्दी रखने वाले कुछ लोगों का भी मानना है कि राहुल पर राजनीतिक हमले और उन्हें संसद से बाहर कर चुप कराने की कोशिशों ने उन्हें हीरो बना दिया है। इससे वह आशंका भी पुष्ट होती है कि अडानी का संबंध बीजेपी और सत्ताधारी गठबंधन में ऊपर तक है और बहुत गहरा है, और बीजेपी के लिए यही सबसे ज्यादा दुश्वारी का सबब बन गया है।
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लेकिन यह भी कहानी का एक ही पक्ष है। समय बीतने के साथ यह बीजेपी को महंगा पड़ सकता है और हो सकता है, ऐसा न हो। अभी के लिए तो यह साफ है ही कि राहुल गांधी की संसद से अयोग्यता के लिए बीजेपी ही जिम्मेदार है और राजनीतिक तौर पर लाभ भी उसे ही मिल सकता है, लेकिन दुनिया यह भी देख रही है कि मौजूदा सत्ताधारी पार्टी किस दुस्साहस से काम करती है और उसे नतीजों की परवाह भी नहीं है। विपक्षी नेताओं के खिलाफ मुकदमे, महाराष्ट्र में दलबदल कर सरकार गिराने-बनाने, दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार पर दबाव बनाने और राज्य व्यवस्था में इसी किस्म की दूसरी घटनाओं को एकसाथ देखें, तो यह संदेश देने का प्रयास किया गया है कि उसके विरोध में खड़ा होने वाले किसी भी दल या व्यक्ति को नष्ट कर दिया जाएगा।
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यह सब इस बारे में क्या कहता हैः अ) भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं की दास्तान, और ब) खुद लोकतंत्र की बहुत ही महिमामंडित प्रकृति। दूसरे मुद्दे पर पहले विचार करें, तो यह तत्काल मौत या धीमी मौत हो सकती है। अचानक होने वाला तख्तापलट, सत्ता पर नियंत्रण करने वाला सैन्य साहस, विदेशी मुद्रा भंडार बिल्कुल खत्म हो जाने पर देश का कंगाल हो जाना या सड़कों पर या जंगलों में सशस्त्र विद्रोह होना- ये वे तरीके हैं जिनमें प्रगतिशील लोकतंत्र समाप्त होते हैं और अतिमहत्वाकांक्षी तानाशाह उभरते हैं।
हमने इस बारे में इस तरह यही सोचा था कि ऐसा दूसरे देशों में हुआ है, भारत में नहीं। निश्चित तौर पर यह सच है क्योंकि मानक मापों से भारतीय लोकतंत्र आज भी मजबूत है- हमारे यहां हर पांच साल में चुनाव होते हैं, केन्द्र और राज्यों में शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता हस्तांतरण होते हैं, सेना प्रोफेशनल है, संसद की बैठकें होती हैं, विधेयक पारित होते हैं और कुछ बहसें होती हैं। आने वाले 2024 के चुनावों को लेकर वस्तुतः गांधी-संबंधी कुछ बातें होती हैं। इसलिए सबकुछ यथास्थान है- लोकतंत्र के संस्थान काम करते हैं और फिर भी, अलग भावना है कि सबकुछ छीज गया है, खाली हो गया है, विशाल देश की जगह सिर्फ सत्ताधारी व्यवस्था के लिए काम हो रहा है।
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स्टीवेन लेवित्सकी और डैनियल जिबलैट की 2018 की किताब- 'हाउ डिमॉक्रेसीज डाय' ऐसे वक्त के बारे में बताती है 'जब राजनीतिज्ञ अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ शत्रुओं की तरह व्यवहार करते हैं, स्वतंत्र प्रेस को डराते-धमकाते हैं... खुफिया सेवाओं और आचार कार्यालयों समेत अपने लोकतंत्र के संस्थागत प्रतिरोधों को कमजोर करने का प्रयास करते हैं... महान न्यायविद लुइस ब्रैंडिस ने जिन राज्यों को एक वक्त 'लोकतंत्र की प्रयोगशालाएं' कहा था, उनके अधिकारवाद की प्रयोगशालाएं बनने का खतरा हो।’
लेखकद्वय दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र के बारे में बात कर रहे हैं लेकिन यह सबसे बड़े लोकतंत्र के बारे में भी उतना ही सच है। 'द गार्जियन' में लिखते हुए इन लेखकों ने कहाः 'लोकतंत्र को नष्ट करने के कई सरकारों के प्रयास इस मामले में 'वैध' हैं कि उन्हें विधायिका द्वारा अनुमति प्राप्त है या वे न्यायालयों द्वारा स्वीकार्य हैं। वे लोकतंत्र की बेहतरी के प्रयास के तौर पर प्रस्तुत किए जा सकते हैं- न्यायपालिका को अधिक प्रभावी बनाने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने या चुनावी प्रक्रिया को स्वच्छ करने वाले बताए जा सकते हैं। अखबार अब भी छपते हैं लेकिन वे स्वसेंसरशिप के लिए खरीदे गए या धौंस में आए हुए होंगे। नागरिक सरकार की आलोचना करते रहते हैं लेकिन वे समय-समय पर टैक्स या अन्य कानूनी कठिनाइयों में पड़ गए होते हैं। लोग तुरंत नहीं समझ पाते कि हो क्या रहा है। कई लोगों को लगता है कि वे लोकतंत्र में रह रहे हैं।'
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क्या हमें विश्वास है कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं? ऐसे में पहली बात की ओर देखें- तथाकथित भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं की दास्तान। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या हम वास्तव में लोकतांत्रिक देश हैं? या कि लोकतंत्र वह कहानी है जो हम अपने आपको और दुनिया को सुनाते हैं जब देश और इसकी जनता जानती है कि हम लोकतांत्रिक नहीं हैं जैसा कि हम सोचते हैं या जैसा होने का दावा करते हैं।
भारत की लोकतांत्रिक परंपराएं इतिहास में गहरे हैं लेकिन जैसा कि किंग्स कॉलेज, लंदन में 3 मार्च, 2023 को किंग्स इंडिया इन्स्टीट्यूट द्वारा आयोजित 2023 नेहरू मेमोरियल लेक्चर में 'सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू' के संपादक प्रो. माधवन पलट ने कहाः 'लंबी मान्यता है कि साम्राज्यवादी शासकों ने भारतीयों को सिखाया कि लाकतांत्रिक कैसे हों।' उन्होंने रेखांकित किया कि एक सरकारी भवन के प्रवेश मार्ग पर एडविन लुटियंस का शिलालेख भी है जिसमें कहा गया है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ही लोग स्वतंत्र होना सीख गए हैं। प्रो. पलट अपने भाषण में कहते हैं कि लुटियंस निश्चित तौर पर गलत थे। लेकिन हमारे नेता हमें कहते लगते हैं कि वह ठीक थे!
(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर के फैकल्टी सदस्य हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)
(सिंडिकेटः द बिलियन प्रेस)
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