क्या हम समाज को हिन्दुत्व की पट्टी आंखों पर बांधे धीरे-धीरे तालिबानीकरण की राह पर बढ़ते देख रहे हैं? सशक्तीकरण के हल्ला-गुल्ला के बीच वास्तव में महिलाओं को अशक्त किया जा रहा है, उन्हें ‘बेजुबान’ बना दिया गया है। महिला सशक्तीकरण की पैरोकारी का दावा करने वाले वैधानिक निकायों के प्रमुख महिलाओं के लिए जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं और जिस तरह उन्हें कमतर आंक रहे हैं, उससे तो कुछ ऐसा ही नतीजा निकलता है।
सबसे हालिया उदाहरण उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष बबीता चौहान का है जिन्होंने कहा कि महिलाओं को अपना शारीरिक माप पुरुष दर्जी से नहीं बल्कि महिलाओं से करवाना चाहिए, जिम में महिला प्रशिक्षक होनी चाहिए और महिलाओं के कपड़े बेचने वाली दुकानों में महिला कर्मचारी होनी चाहिए। उनके इस बयान को यूपी के सभी जिला मजिस्ट्रेटों को भेजा गया है। इसमें दावा किया गया है कि ‘बुरे स्पर्श’ की शिकायतें मिली हैं। यह और बात है कि राज्य भर में फैले 1,500 थानों में से किसी में भी ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली है।
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महिलाओं के मुद्दों के लिए लड़ने के लिए अपनी प्रतिबद्धता के लिए जानी जाने वाली लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. रेखा वर्मा सवाल करती हैं कि एक अध्यक्ष इस तरह की ‘लिंगभेदी टिप्पणी’ कैसे कर सकती हैं। 81 वर्षीय इस साहसी महिला ने कहा, ‘मैं इस मूर्खतापूर्ण टिप्पणी पर हैरान हूं। साफ है कि हिन्दुत्व ब्रिगेड हमारे समाज को टुकड़ों में बांटना चाहता है और इसका खामियाजा कमजोर और वंचित वर्गों को भुगतना पड़ेगा।’ तमाम ऐक्टिविस्ट की तरह वर्मा का मानना है कि इसके पीछे मुसलमानों को उन चंद काम-धंधों से बेदखल करने की शातिर योजना है जिन तक उनकी पहुंच अब भी है।
दुनिया भर में दक्षिणपंथी सरकारों को महिला विरोधी माना जाता है और इस मामले में भारत की सरकार कोई अपवाद नहीं। हालांकि भारत में एजेंडा थोड़ा अलग दिखता है। यहां इसका उद्देश्य मनुस्मृति के कानूनों पर आधारित एक मनुवादी समाज की स्थापना करना है जो जाति व्यवस्था को सही ठहराते हैं। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में जाति इतनी अहम है। वहां नौकरशाही में सभी प्रमुख नियुक्तियां ठाकुर (राजपूत) समुदाय के सदस्यों को दी जा रही हैं। क्यों? इसलिए कि सीएम योगी आदित्यनाथ इसी जाति से आते हैं (बबीता चौहान भी इसी जाति से आती हैं)।
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सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व सांसद सुभाषिनी अली कहती हैं, ‘इस जाति व्यवस्था को लागू करने का मतलब है कि महिलाओं को अपनी जाति में ही शादी करनी होगी। इसका मतलब है कि एक महिला के पास अपना जीवन साथी चुनने का विकल्प नहीं होगा।’ युवा महिलाओं को अपने साथी चुनने के अधिकार का प्रयोग करते समय राज्य और समाज दोनों से लड़ना पड़ता है। और जब कोई हिन्दू महिला मुस्लिम पुरुष को चुनती है, तो ‘लव जिहाद’ का हौवा खड़ा कर दिया जाता है।
उत्तराखंड सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने का दावा करती है, लेकिन यह किसी भी तरह प्रगतिशीलता नहीं है। इसके प्रावधान महिला विरोधी हैं। उदाहरण के लिए, इसने अनिवार्य कर दिया है कि सभी लिव-इन रिलेशनशिप को पंजीकृत किया जाना चाहिए, अन्यथा जोड़े पर आपराधिक कार्रवाई की जाएगी। युवा लोगों, खासकर महिलाओं ने सही ही कहा है कि अनिवार्य पंजीकरण बेहद प्रतिगामी है और इससे उत्पीड़न और ब्लैकमेल को बढ़ावा मिलेगा।
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इस विवादास्पद संहिता ने अल्पसंख्यकों को उनके व्यक्तिगत कानूनों से वंचित कर दिया है और उनकी जगह विवाह, तलाक और उत्तराधिकार को नियंत्रित करने वाले कानूनों का एक सामान्य सेट ला दिया गया है जो उनके व्यक्तिगत कानूनों की तुलना में महिलाओं के लिए प्रतिकूल पाए गए हैं। पिछले दशक में नारीवाद और लैंगिक समानता के प्रति आग्रह में तेजी से वृद्धि देखी गई है। यह दुनिया भर में धुर दक्षिणपंथी ताकतों के उदय से गहराई से जुड़ा हुआ है और इसका नतीजा यह हुआ है कि स्त्री-द्वेष बढ़ा है और रूढ़िवादी लिंग मॉडल को प्रोत्साहन मिला है। भारत में, इसका मतलब भारतीय नारीत्व के आदर्श के रूप में ‘सीता-सावित्री’ का आह्वान है।
यह दक्षिणपंथी एजेंडा प्रगतिशील नागरिक समाज समूहों, मानवाधिकार समूहों और जनांदलनों को व्यवस्थित रूप से नष्ट करके लागू किया जाता है जिसमें ऐसे संगठनों को विदेशी फंडिंग पर अंकुश लगाने के लिए विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम में बदलाव करना भी शामिल है। नारीवादी सुजाता मधोक कहती हैं, ‘बीजेपी ने यह सुनिश्चित किया है कि उसके अपने थिंक टैंक की फंडिंग होती रहे जबकि दूसरों को विभिन्न एजेंसियों की सख्त जांच प्रक्रिया का सामना करना पड़े।’
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मधोक ने कहा, ’बीजेपी का कभी भी मजबूत महिला मोर्चा नहीं रहा जिसकी वजह से वह महिला सशक्तीकरण का कोई भी कारगर कार्यक्रम नहीं बना पाई। इसने केवल कुछ लोकलुभावन कार्यक्रम पेश किए हैं और चुनाव के ऐन पहले गरीब महिलाओं को पैसे बांटे हैं। इसने महिला आंदोलन से निकली संस्थाओं जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग और राज्य महिला आयोगों का इस्तेमाल विशुद्ध रूप से राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया है- उदाहरण के लिए, विपक्ष शासित राज्यों में बलात्कार की जांच करना। (इन्हीं कारणों से) बीजेपी में मजबूत महिला नेताओं की कमी है। पिछले कुछ सालों में जो भी गिनी-चुनी महिलाएं उभरीं, उन्हें प्रभावी रूप से दरकिनार कर दिया गया है। दूसरी ओर, मोदी सरकार की नीतियों का विरोध करने वाली महिला कार्यकर्ताओं और नेताओं को गिरफ्तारी, जांच, पुलिस पूछताछ और अन्य प्रकार के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है।’
व्यावहारिक रूप से महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध ग्राफ को नियंत्रित करने और देश भर में सामूहिक बलात्कार के लगातार हो रहे मामलों को रोकने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया जा रहा है। दिल्ली में सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की प्रमुख डॉ. रंजना कुमारी उस खतरनाक प्रवृत्ति के बारे में बात करती हैं जिससे महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों को अब उनके निष्कर्ष तक नहीं पहुंचाया जा रहा है। सबसे हालिया मामला आरजी कर बलात्कार और हत्या का मामला है जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई को सौंपा गया। कुमारी कहती हैं, ‘हम जानना चाहेंगे कि वे (सीबीआई) किस नतीजे पर पहुंचे। इन्हें सार्वजनिक डोमेन में नहीं रखा गया है और मामला पूरी तरह ठंडा हो गया है।’
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देश की अफसोसनाक हकीकत यही है कि महिलाओं को वोट बैंक के रूप में देखा जाता है जिन्हें पांच किलो अनाज से खरीदा जा सकता है। सार्वजनिक जीवन में वे महिलाएं कहां हैं जो रोल मॉडल हो सकती हैं? हाल ही में छात्रों के साथ बातचीत में केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ‘पितृसत्तात्मक अवधारणा’ को ‘शब्दजाल’ बताकर खारिज कर दिया और महिलाओं से अपनी कमियों को सही ठहराने के लिए पितृसत्ता जैसे शब्दों के पीछे नहीं छिपने का आग्रह किया। मोदी सरकार का दावा है कि उसने दो बड़ी पहल की हैं जिनसे महिलाओं को फायदा होगा। पहला है महिला आरक्षण विधेयक, 2023 और दूसरा है मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019।
पहला, जो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसद सीटें आरक्षित करने के बारे में है और वर्ष 2030 तक लागू नहीं होने जा रहा। दूसरा तीन तलाक को अपराध बनाकर महिलाओं की सुध लेने के बारे में है (जो पहले से ही कई अदालती फैसलों के माध्यम से वस्तुतः अमल में लाया जा चुका है)। इस महिला समर्थक अधिनियम के प्रावधान इसे दोधारी तलवार बनाते हैं। हालांकि यह तीन तलाक को अवैध बनाता है लेकिन वास्तव में यह महिलाओं और बच्चों को दंडित करता है। अपराधी पति के जेल में होने से परिवार को उनका भरण-पोषण नहीं मिल पाता है।
आज आम महिला महंगाई के कारण अपने घरेलू बजट को संतुलित करने के निरंतर तनाव में है। महिलाओं के लिए काम के अवसर बहुत कम और दूर-दूर तक नहीं हैं सरकार की ढेरों योजनाएं और खोखले वादे उस असहाय महिला की बदसूरत सच्चाई को नहीं छिपा सकते जो राजनीतिक वर्ग के हाथों की कठपुतली बनती जा रही है।
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