विचार

राम पुनियानी का लेख: क्या सभी कट्टरपंथी एक थाली के चट्टे-बट्टे होते हैं? क्या तालिबान की तुलना संघ से हो सकती है!

जावेद अख्तर का यह कहना सही है कि तालिबान और संघ के लक्ष्य एक से हैं। तालिबान इस्लामिक अमीरात की स्थापना चाहता है और संघ हिन्दू राष्ट्र की। संघ भारत में रहने वाले सभी को हिंदू कहता है। दोनों ही केवल पुरुषों के संगठन हैं और धर्म की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं।

सोशल मीडिया
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अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी ने उनके पिछले शासनकाल की यादें ताजा कर दी हैं। उस दौरान तालिबान ने शरीया का अपना संस्करण लागू किया था और महिलाओं का भयावह दमन किया था। उन्होंने पुरूषों को भी नहीं छोड़ा था। पुरुषों के लिए एक विशेष तरह की पोशाक और दाढ़ी अनिवार्य बना दी गई थी। तालिबान ने बामियान में गौतम बुद्ध की पुरातात्विक महत्व की मूर्तियों को भी ध्वस्त किया था।

तालिबान के हाल में अफगानिस्तान में फिर से सत्ता में आने का भारतीय मुसलमानों के छोटे से वर्ग ने इसका स्वागत किया है। उनकी दृष्टि में यह विदेशी आक्रांता ताकतों पर इस्लाम की विजय है। अधिकांश मुसलमान और विशेषकर मुस्लिम महिला संगठन इस घटनाक्रम से चिंतित और परेशान हैं और उन्होंने तालिबान की विचारधारा की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है।

इस पृष्ठभूमि में देश के दो विख्यात मुस्लिम व्यक्तित्वों के वक्तव्यों ने हलचल मचा दी है। नसीरूद्दीन शाह ने तालिबान की सत्ता में वापसी का जश्न मनाने वाले मुसलमानों की भर्त्सना करते हुए कहा कि भारतीय इस्लाम दुनिया के अन्य देशों में प्रचलित इस्लाम से भिन्न है। इस्लाम में सुधार की आवश्यकता है, उसे आधुनिक बनाए जाने की जरूरत है, न कि अतीत की बर्बरता की ओर लौटने की। उनके इस वक्तव्य का हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों ने स्वागत किया। मुसलमानों के एक बड़े तबके ने भी तालिबान की सराहना करने वालों की आलोचना को उचित बताया और कहा कि इस्लाम में सुधार लाने और उसे आधुनिक बनाए जाने की आवश्यकता है. परंतु वे नसीरूउद्दीन शाह के वक्तव्य के इस हिस्से से असहमत हैं कि पूर्व की सदियों के मुसलमान बर्बर थे।

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यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मुसलमानों की पिछली एक सदी की पीढ़ियों की तुलना राजाओं-नवाबों के शासनकाल के मुसलमानों से नहीं की जा सकती। जहां एक ओर मुस्लिम शासकों का दानवीकरण किया जा रहा है, वहीं यह भी सही है कि उनके शासनकाल में ही देश की सांझा संस्कृति को रेखांकित करने वाले आंदोलन अपने चरम पर थे। इसी अवधि में भक्ति और सूफी संतों ने धर्मों के नैतिक पक्ष को समुचित महत्व प्रदान किया और बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बने।

जावेद अख्तर मुस्लिम कट्टरपंथ के प्रति अपने तिरस्कार के लिए जाने जाते हैं। इसका एक उदाहरण राज्यसभा में उनके द्वारा बार-बार वन्दे मातरम् कहना है। वे हर किस्म के धार्मिक कट्टरपंथ और अंधकारवाद के विरोधी रहे हैं। वे धर्म आधारित राजनीति और धार्मिक रूढ़िवादिता की खुलकर निंदा करते आए हैं।

उन्होंने तालिबान की तुलना भारत में संघ परिवार से की। इससे बहुत हंगामा मचा। शिवसेना के मुखपत्र ने आरएसएस का बचाव किया और बीजेपी के एक विधायक ने धमकी दी है कि जब तक वे माफी नहीं मांगेगे तब तक उनकी फिल्मों का प्रदर्शन नहीं होने दिया जाएगा।

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जब जावेद अख्तर ने तालिबान की तुलना आरएसएस से की तब उनके दिमाग में क्या रहा होगा? पिछले कुछ दशकों से भारत में हिन्दू दक्षिणपंथी राजनीति उभार पर है। बीजेपी के केन्द्र में स्वयं के बल पर सत्ता में आने के बाद से हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रभाव में जबरदस्त वृद्धि हुई है। गौमांस और गाय के बहाने मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं। विश्वविद्यालयों के छात्र नेताओं (कन्हैया कुमार, रोहित वेम्यूला) को कटघरे में खड़ा किया गया है, सीएए-एनआरसी के जरिए मुसलमानों को आतंकित करने के प्रयास हुए हैं और लव जिहाद के बहाने मुस्लिम युवकों को निशाना बनाया गया है (शंभूलाल रेगर द्वारा अफराजुल की वीभत्स हत्या)। इन सबसे मुसलमानों को ऐसा लगने लगा है कि वे दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं। पॉस्टर स्टेन्स की हत्या और कंधमाल हिंसा आदि ने ईसाईयों को भयातुर कर दिया है।

यद्यपि इन सभी घटनाओं में आरएसएस की प्रत्यक्ष भागीदारी का कोई सबूत नहीं है, तथापि यह स्पष्ट है कि ये हिन्दू राष्ट्रवाद और धार्मिक अल्पसंख्यकों का दमन करने की उसकी विचारधारा का नतीजा हैं। संघ ने बीजेपी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम आदि जैसी दर्जनों संस्थाएं खड़ी कर दी हैं जो औपचारिक और कानूनी दृष्टि से उससे अलग हैं, परंतु वास्तव में उसकी विचारधारा का प्रसार करने वाली विशाल मशीनरी का हिस्सा हैं।

आरएसएस शाखा में प्रशिक्षित नाथूराम गोडसे से लेकर अब तक संघ विभिन्न अपराधों में लिप्त लोगों से यह कहकर अपना पल्ला झाड़ता आया है कि उन लोगों का संघ से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है ‘पाञ्चजन्य’ में प्रकाशित एक लेख में इंफोसिस की इस आधार पर आलोचना कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने के षडयंत्र का हिस्सा है। इस लेख की आलोचना होते ही संघ ने कह दिया कि पाञ्चजन्य एक स्वतंत्र प्रकाशन समूह है जिससे उसका कोई लेनादेना नहीं है।

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जावेद अख्तर का यह कहना सही है कि तालिबान और आरएसएस के लक्ष्य एक से हैं। तालिबान इस्लामिक अमीरात की स्थापना करना चाहता है और आरएसएस हिन्दू राष्ट्र की। आरएसएस का कहना है कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं और वह सभी धार्मिक पहचानों को हिन्दू धर्म का हिस्सा बनाना चाहता है। एक अन्य समानता यह है कि दोनों केवल पुरुषों के संगठन हैं और क्रमशः इस्लाम और हिन्दू धर्म की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं।

जहां तक कार्यपद्धति का सवाल है, दोनों में कोई समानता नहीं है। तालिबान की क्रूरता की कोई सीमा नहीं है और वह खुलकर अपनी क्रूरता का प्रदर्शन करता है। वह नीति निर्माण से लेकर सड़कों पर अपनी नीतियों को लागू करने तक का काम स्वयं ही करता है। आरएसएस का ढांचा इस प्रकार का है कि जो व्यक्ति लाठी या बंदूक उठाता है वह लगभग हमेशा संघ का सदस्य नहीं होता। संघ की विचारधारा कई कन्वेयर बेल्टों से होती हुई उस व्यक्ति तक पहुंचती है, जिसे सड़क पर कार्यवाही करनी होती है। संघ के पास एक लंबी चेन है, जो पूरी तरह से अनौपचारिक है और जिसकी एक कड़ी को दूसरी से जोड़ना संभव नहीं होता।

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पिछली सदी में दुनिया के कई देशों में कट्टरपंथ और साम्प्रदायिकता बढ़ी है। यह जहां पूर्व उपनिवेशों में हुआ है, वहीं साम्राज्यवादी देश भी इससे अछूते नहीं हैं। आधुनिक इतिहास में सबसे पहले अमरीका में ईसाई कट्टरपंथ का उदय हुआ। यह तबकी बात है जब 1920 के दशक में महिलाएं और अफ्रीकी-अमरीकी सामाजिक जीवन में आगे आने लगे। पश्चिम एशिया में औपनिवेशिक ताकतों के शासन ने यह सुनिश्चित किया कि औद्योगिकरण और आधुनिक शिक्षा की प्रक्रिया से वर्ग, जाति (भारत में) और लैंगिक पदक्रम में विश्वास रखने वाले लोग अछूते बने रहें।

कट्टरपंथियों और साम्प्रदायिकतावादियों की रणनीतियां अलग-अलग देशों में अलग-अलग होती हैं। परंतु वे सभी स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के मूल्यों का विरोध करती हैं और उन्हें ‘विदेशी’ बताती हैं। वे सभी जन्म आधारित ऊँच-नीच को बनाए रखना चाहती हैं और अपने-अपने धर्मों या 'गौरवशाली अतीत' का महिमामंडन करती हैं। स्वतंत्रता, समानता आदि मूल्यों को औपनिवेशिक ताकतों की देन बताया जाता है और औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के नाम पर इन मूल्यों का विरोध किया जाता है।

नसीरूउद्दीन शाह स्थिति का बहुत सामान्यीकरण कर रहे हैं। वे मुस्लिम समाज में सुधार और उसे आधुनिक बनाने के पैरोकार हैं, परंतु सामंती समाज से औद्योगिक समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया से उपजने वाली जटिलताओं का ख्याल नहीं रख रहे हैं। जावेद अख्तर यह सही कह रहे हैं कि धर्म का लबादा ओढ़े इस तरह के संगठनों का एजेंडा पुनरूत्थानवादी होता है, परंतु वे यह भूल जाते हैं कि इस तरह का हर संगठन दूसरे संगठनों से अलग होता है और उनकी तुलना नहीं की जा सकती।

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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