वर्ष 2017 में 9 वर्षीय रिद्धिमा पाण्डेय ने जलवायु परिवर्तन को रोकने में नाकामयाब रहने के कारण भारत सरकार पर मुकदमा किया था। रिद्धिमा के माता और पिता पर्यावरण के आन्दोलनों से जुड़े थे और 2013 में जब उत्तराखंड में भयानक बाढ़ आई थी तब उन्हें अपना घरबार छोड़ना पड़ा था। केन्या के कलुकी पॉल मुतुकू अपने स्कूल के दिनों से ही पर्यावरण संरक्षण के काम में लगे हैं और कई हजार लोगों के प्रेरणा का स्त्रोत रहे हैं। बचपन में ही उन्होंने अनुभव किया था कि पानी इकट्ठा करने के लिए महिलाओं को दूर-दूर जाना पड़ता है। जल के स्रोतों के संरक्षण से उन्होंने कई इलाकों में महिलाओं की पानी लाने की दूरी कम की है। केवल 18 वर्ष की उम्र में नई दिल्ली में आदित्य त्यागी ने प्लास्टिक के स्ट्रॉ के विरुद्ध जंग छेड़ दी थी और अब तक रेस्टोरेंट्स से वे लगभग 5 लाख स्ट्रॉ हटा चुके हैं।
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नाइजीरिया की लेखिका चिका उनिग्वे ने अपने एक लेख में ये सभी उदाहरण दिए हैं और कहा है कि स्वीडन की ग्रेटा थुन्बेर्ग पर्यावरण के मामले में आंदोलन करने वाली ना तो अकेली युवा हैं और ना ही वे ऐसा करने वाली पहली किशोर हैं, जैसा कि दुनियाभर का मीडिया प्रचारित कर रहा है। मीडिया ने ग्रेटा थुन्बेर्ग को एक वर्ष के भीतर ही सुपरस्टार बना डाला है और मीडिया को जलवायु परिवर्तन के एक्टिविस्ट के तौर पर एक ही नाम पता है जिसके पीछे दिनभर उनका कैमरा दौड़ता है।
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लेख में कहा गया है कि अब तक जितने भी किशोर या युवा इस क्षेत्र में पहल करते रहे सभी की चमड़ी का रंग भूरा या काला था, इसीलिए पश्चिमी मीडिया ने कभी उन्हें नहीं सराहा। ग्रेटा थुन्बेर्ग का सफेद रंग पश्चिमी मीडिया को पसंद है, इसीलिए उनकी हरेक गतिविधि एक विश्वव्यापी समाचार बन जाती है। ग्रेटा थुन्बेर्ग आपने भाषणों में दुनिया के कई और किशोरों का नाम लेतीं हैं जो जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सरकार की नाकामियों पर संघर्ष कर रहे है, पर मीडिया और दूसरे नाम गायब कर देता है। यदि मीडिया किसी और किशोर का नाम लेते भी है तो उसे अपने देश का ग्रेटा थुन्बेर्ग बताता है या फिर उनके नक़्शे-कदम पर चलने वाला बताता है जब कि अन्य युवा ग्रेटा थुन्बेर्ग के बहुत पहले से ऐसे आंदोलन की अगुवाई करते रहे हैं।
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नाइजीरिया की लेखिका चिका उनिग्वे ने अपने लेख में कहा है कि ग्रेटा थुन्बेर्ग को वे कम नहीं आंकतीं हैं, उसने बहुत बड़े समुदाय को जागरूक किया है। पर, वो स्वीडन के एक मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखतीं हैं, जाहिर है उन्हें किसी चीज की कमी नहीं होगी। स्वीडन में बच्चियों और महिलाओं को अपनी बात कहने की आजादी भी है, इसलिए उसके घर-परिवार और समाज में उसे प्रोत्साहन और हौसला दिया। दूसरी तरफ अफ्रीका, एशिया या दक्षिणी अमेरिकी देशों के अधिकतर पर्यावरण कार्यकर्ता गरीब घरों से आते हैं और उनका समाज उन्हें बोलने की इजाजत भी नहीं देता। इसके बाद भी इन देशों के बहुत सारे किशोर और बच्चे ऐसे आन्दोलनों की अपने स्तर पर अगुवाई कर रहे हैं।
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इक्वेडोर के अमेज़न के क्षेत्र में काम करने वाली आठ वर्षीय नीना गुअलिंगे को पर्यावरण संरक्षण के लिए डब्लूडब्लूएफ का सर्वोच्च पुरस्कार मिल चुका है। कनाडा के अनिशिनाबे पीपल ऑफ कनाडा में सक्रिय 15 वर्षीय ऑटम पेल्तिएर को इस उम्र में भी पानी और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों का विद्वान माना जाता है। यूगांडा की 15 वर्षीय लीह नामुगेरवा राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के सक्रिय कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट हैं। यदि आप दुनियाभर में पर्यावरण आंदोलन को देखें तो पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले किशोरों की सूची बहुत लम्बी है, पर मीडिया के लिए केवल एक नाम है, ग्रेटा थुन्बेर्ग। हालत यहां तक पहुंच गई है कि केन्या जैसे देश के बच्चे भी किसी भी आयु वर्ग के पर्यावरण कार्यकर्ता के तौर पर केवल ग्रेट थुन्बेर्ग का ही नाम बता पाते हैं जबकि वहीं की वान्गेरी मथाई को पर्यावरण संरक्षण में काम करने के लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार मिल चुका है।
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लंदन से प्रकाशित द गार्डियन में कुछ दिनों पहले प्रकाशित एक लेख के अनुसार ब्रिटेन के अलग-अलग हिस्सों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सरकार की नाकामयाबी पर लगभग एक वर्ष से आंदोलन कर रहे, एक्सटीनक्शन रेबेलियन, में भी रंगभेद साफ नजर आता है। इसके तहत हजारों की संख्या में आंदोलनकारी है पर सभी गोरे हैं और अधिकतर पुरुष हैं। इस संस्था ने अभी तक रंगभेद या लिंगभेद दूर करने के कोई ठोस उपाय नहीं किए हैं। लंदन पुलिस के आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि आंदोलन करने के दौरान हिरासत में लिए गए लगभग 1100 कार्यकर्ताओं में से महज 10 कार्यकर्ता अश्वेत थे, जबकि लंदन की जनसंख्या में हरेक 10 लोगों में 4 अश्वेत हैं।
स्पष्ट है कि दुनियाभर में चर्चित पर्यावरण आंदोलन केवल गोरों के वर्चस्व से चल रहे हैं, पर आवश्यक है कि ऐसे आंदोलन रंगभेद और लिंगभेद से परे रहें तभी ये सार्थक हो सकते हैं।
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