पिछले कुछ वर्षों से दुनिया भर के विशेषज्ञ एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया के उभरते खतरों से आगाह कर रहे हैं और इस पर कई शोधपत्र भी प्रकाशित किये गए हैं। पर, पूरी दुनिया के लिए यह कितना बड़ा खतरा है इसका सटीक आकलन कठिन था क्योंकि प्रकाशित शोधपत्र केवल एक देश या एक क्षेत्र की जानकारी देते थे। इसके वैश्विक प्रभाव का आकलन करने के लिए दुनिया भर के चुनिन्दा शोध संस्थानों और संबंधित विशेषज्ञों ने कुछ वर्ष पहले समन्वित तौर पर पहल की, जिसके नतीजे हाल में ही स्वास्थ्य विज्ञान के प्रतिष्ठित जर्नल- लैंसेट में प्रकाशित किये गए हैं।
इसके अनुसार वर्ष 2019 में दुनिया में हरेक दिन लगभग 3500 मौतें, या पूरे वर्ष में 12.7 लाख मौतें एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया के कारण हो गईं। इसके अतिरिक्त लगभग 50 लाख मौतों का अप्रत्यक्ष कारण ऐसे बैक्टीरिया थे। प्रत्यक्ष कारणों में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया सीधे शरीर में कोई समस्या खड़ी करते हैं, जो लाइलाज हो जाता है। अप्रत्यक्ष कारणों में जब शरीर में बैक्टीरिया से पनपने वाली बीमारी होती है, तब सामान्य तौर पर जिस एंटीबायोटिक से इलाज किया जाता है, वह अप्रभावी रहता है और फिर मरीज मर जाता है। एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया के कारण मरने वालों की संख्या एचआईवी-एड्स या मलेरिया से प्रतिवर्ष मरने वालों की संख्या से बहुत अधिक है। वर्ष 2019 में एचआईवी-एड्स से मरने वालों की संख्या लगभग 9 लाख थी, जबकि मलेरिया से लगभग 6 लाख मौतें दर्ज की गई थीं।
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इस अध्ययन के एक लेखक और यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के प्रोफेसर क्रिस मुर्रे के अनुसार नए अध्ययन से एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया की वैश्विक समस्या का सटीक आकलन किया जा सकता है क्योंकि इसके लिए दुनिया के 200 से अधिक देशों के आंकड़े जुटाए गए हैं। यह समस्या इतनी गंभीर है कि दुनिया को इससे पार पाने के लिए अभी से नीतियां बनानी पड़ेंगी। एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया के पनपने के कारण अब सामान्य बीमारियों के कारण भी पहले से अधिक मौतें होने लगी हैं, क्योंकि परंपरागत एंटीबायोटिक अब बैक्टीरिया पर असर नहीं कर रहे हैं। इस अध्ययन के दौरान रोगों को पनपाने वाले 23 बैक्टीरिया और 88 बैक्टीरिया और एंटीबायोटिक के कॉम्बिनेशन का आकलन किया गया है।
हरेक आयु वर्ग के व्यक्ति ऐसे बैक्टीरिया से प्रभावित होते हैं, पर सबसे अधिक प्रभाव 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर पड़ता है। अनुमान है कि दुनिया में 5 वर्ष से कम उम्र के जितने बच्चों की मृत्यु होती है, उसमें से 20 प्रतिशत से अधिक का कारण एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया होते हैं। ऐसे बैक्टीरिया की चपेट में वहां की आबादी सबसे अधिक होती है, जहां एंटीबायोटिक दवाएं दवा की दूकानों पर बिना किसी प्रिस्क्रिप्शन के ही आसानी से खरीदी जा सकती हैं और लोग अपनी मर्जी से इसका उपयोग करते हैं।
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दूसरा बड़ा कारण है ऐसी दवाएं जब बेकार हो जाती हैं तब उन्हें सामान्य कचरे के साथ या ऐसे ही खुले में फेंक देना। अफ्रीकी देशों में प्रति एक लाख आबादी पर 24 मौतें ऐसे बैक्टीरिया के कारण होती हैं, दक्षिण एशिया के लिए यह संख्या 22 है जबकि अमीर देशों के लिए इतनी ही आबादी में 13 मौतें ऐसे बैक्टीरिया के कारण होती हैं।
हमारे देश में इस समस्या पर चर्चा नहीं की जाती पर अनेक विशेषज्ञों के अनुसार यहां समस्या बहुत गंभीर है। यहां तो गंगा नदी में भी एंटीबायोटिक मिल रहे हैं और एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया भी। यूनाइटेड किंगडम में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ यॉर्क के वैज्ञानिकों के एक दल ने दुनिया के 72 देशों में स्थित 91 नदियों से 711 जगहों से पानी के नमूने लेकर उसमें सबसे अधिक इस्तेमाल किये जाने वाले 14 एंटीबायोटिक्स की जांच की। नतीजे चौंकाने वाले थे, लगभग 65 प्रतिशत नमूनों में एक या अनेक एंटीबायोटिक्स मिले। इन नमूनों में से अधिकतर नमूने एशिया और अफ्रीका के देशों के थे। हालांकि, यूरोप, उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के देशों की नदियों में अपेक्षाकृत कम मात्रा में भी एंटीबायोटिक्स मिले। इससे स्पष्ट है कि नदियों के पानी में दुनिया भर में एंटीबायोटिक्स मिल रहे हैं।
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वर्ष 2019 के मार्च के महीने में बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के वैज्ञानिकों ने वाराणसी में गंगा के पानी के नमूनों की जांच कर बताया कि हरेक नमूने में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया मिले। यह अंदेशा पिछले अनेक वर्षों से जताया जा रहा था, पर कम ही परीक्षण किये गए। एक तरफ तो गंगा में हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया पाए गए, यमुना, कावेरी और अनेक दूसरी भारतीय नदियों की भी यही स्थिति है, तो दूसरी तरफ गंगा से जुड़ी सरकारी संस्थाएं लगातार इस तथ्य को नकार रही हैं और समस्या को केवल नजरअंदाज ही नहीं कर रही हैं बल्कि इसे बढ़ा भी रही हैं। गंगा के पानी के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें बड़ी संख्या में लोग नहाते हैं और आचमन भी करते हैं। आचमन में गंगा के पानी को सीधे मुंह में डाल लेते हैं, इस प्रक्रिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया सीधे शरीर में प्रवेश कर जाता है और अपना असर दिखाने लगता है।
दुनिया भर में एंटीबायोटिक्स का उपयोग बढ़ रहा है। मानव उपयोग के साथ-साथ पशु उद्योग और मुर्गी-पालन उद्योग में भी इसका भारी मात्रा में उपयोग किया जा रहा है। बेकार पड़े एंटीबायोटिक्स को सीधे कचरे में फेंक दिया जाता है। घरों के कचरे, एंटीबायोटिक्स उद्योग, घरेलू मल-जल, पशु और मुर्गी-पालन उद्योग के कचरे के साथ-साथ एंटीबायोटिक्स नदियों तक पहुंच रहे हैं। इस सदी के आरंभ से ही इस समस्या की तरफ तमाम वैज्ञानिक इशारा करते रहे हैं और अब तो यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि नदियों तक एंटीबायोटिक्स के पहुंचने के कारण बड़ी संख्या में बैक्टेरिया, वायरस और कवक इसकी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रहे हैं और हमारे शरीर में प्रवेश कर रहे हैं।
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दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र ने एंटीबायोटिक्स की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने को वर्तमान में स्वास्थ्य संबंधी सबसे बड़ी 10 समस्याओं में से एक मान रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वर्ष 2018 के आकलन के अनुसार बैक्टीरिया या वायरस पर एंटीबायोटिक्स के बेअसर होने के कारण दुनिया में प्रतिवर्ष 7 लाख से अधिक मौतें हो रही हैं और वर्ष 2030 तक यह संख्या 10 लाख से अधिक हो जाएगी और वर्ष 2050 तक लगभग 1 करोड़ मौतें प्रतिवर्ष इनके कारण होने लगेंगी। यदि लैंसेट में प्रकाशित नए अध्ययन को देखें तो 10 लाख मौतों का आंकड़ा हम 2019 में ही पार कर चुके थे।
जाहिर है, एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया एक वैश्विक खतरा हैं और यह समस्या लगातार विकराल होती जा रही है। दूसरी तरफ नए एंटीबायोटिक की खोज का काम बहुत धीमा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2019 में दुनिया में 34 एंटीबायोटिक्स का व्यापक उपयोग किया जा रहा था, जिसमें से महज 6 ही अपेक्षाकृत नए थे।
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