राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का पहला मसौदा जारी होते ही पूरे देश में बवाल उठ खड़ा हुआ है। इस सूची से असम में रह रहे लगभग 40 लाख लोगों के नाम गायब हैं। शासक दल बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह का कहना है कि जिन लोगों के नाम एनआरसी में नहीं हैं, वे घुसपैठिये हैं, देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं, इन लोगों के कारण राज्य के संसाधनों पर बहुत दबाव पड़ रहा है और राज्य के मूल नागरिक कष्ट भोग रहे हैं। अपीलों के निराकरण के बाद, एनआरसी का अंतिम मसौदा प्रकाशित होगा और जिन लोगों के नाम इसमें नहीं होंगे, उन पर अनिश्चितता की तलवार लटकने लगेगी। सामान्य समझ यह है कि जिन लोगों के नाम एनआरसी में नहीं हैं, वे बांग्लादेशी मुसलमान हैं। शाह के निशाने पर भी मूलतः यही लोग हैं। यह प्रचार भी किया जा रहा है कि ये लोग संसाधनों पर बोझ और सुरक्षा के लिए खतरा होने के अतिरिक्त, राज्य के भाषायी और नस्लीय स्वरुप को बदल रहे हैं।
तथ्य यह है कि जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उनमें कई समुदाय के व्यक्ति शामिल हैं। ऐसी खबरें हैं कि इनमें भारी संख्या में हिन्दू हैं और पश्चिम बंगाल और नेपाल आदि के निवासी भी हैं। यह दिलचस्प है कि एनआरसी ने कई परिवारों को बिखेर दिया है। ऐसे अनेक परिवार हैं, जिनके कुछ सदस्यों के नाम इसमें शामिल हैं और कुछ के नहीं। इससे छूट गए लोगों में असुरक्षा और भय की भावना जागना स्वाभाविक है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एनआरसी के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजा दिया है।
यह मांग भी उठ रही है कि देश के अन्य भागों के लिए भी एनआरसी बनाया जाना चाहिए। नस्लीय और भाषायी मसलों को अगर हम छोड़ भी दें, तो सांप्रदायिक ताकतें लंबे समय से बांग्लादेशी प्रवासियों का मुद्दा उठाती आ रहीं हैं। मुंबई में 1992-93 के दंगों के बाद भी यह मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया था। दिल्ली में भी कई मौकों पर यह मुद्दा उठाया जाता रहा है। हाल में दिल्ली में रोहिंग्या मुसलमानों की एक बस्ती को आग के हवाले कर दिया गया था।
मूल मुद्दा असम के नस्लीय और धार्मिक चरित्र में बदलाव का है। इसके कई राजनैतिक और ऐतिहासिक कारण हैं। औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश शासकों ने 'मानव रोपण' कार्यक्रम शुरू किया, जिसके तहत अधिक जनसंख्या वाले बंगाल से लोगों को असम में बसने के लिए प्रोत्साहित किया जाना था। इस कार्यक्रम के दो उद्देश्य थे: बंगाल पर तेजी से बढ़ती जनसंख्या का दबाव काम करना और असम की खाली पड़ी जमीन पर खेती शुरू कर अनाज का उत्पादन बढ़ाना। इस कार्यक्रम के अंतर्गत बंगाल के जो निवासी असम में बसे, उनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल थे।
आजादी के समय भी असम की मुस्लिम जनसंख्या इतनी अधिक थी कि जिन्ना ने यह मांग की थी कि असम को पाकिस्तान का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। बाद में, पाकिस्तानी सेना द्वारा पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में शुरू किये गए कत्लेआम की वजह से बड़ी संख्या में इस इलाके में रह रहे लोग असम में आ बसे। सेना के दमन से बचने के लिए उनके पास इसके अतिरिक्त कोई रास्ता भी नहीं था। बांग्लादेश के निर्माण के बाद, वहां की गंभीर आर्थिक स्थिति के चलते, कुछ लोग आर्थिक कारणों से भी असम में बस गए।
एनआरसी कुछ दस्तावेजों के आधार पर तैयार किया गया है। क्या यह संभव नहीं है कि कुछ वैध नागरिकों के पास ये दस्तावेज न हों और कुछ अवैध नागरिकों ने नकली दस्तावेज बना लिए हों? जहां तक इस आरोप का प्रश्न है कि वोट बैंक राजनीति की खातिर देश में अवैध प्रवेश को बढ़ावा दिया गया, इसमें अधिक से अधिक आंशिक सत्यता ही हो सकती है। लोग सिर्फ बाध्यकारी परिस्थितियों में दूसरे देश में अवैध प्रवासी के रूप में बसते हैं। आखिर यह उनके पूरे जीवन का प्रश्न होता है। ये लोग भी ईश्वर की संतान हैं और इस क्रूर दुनिया में किसी तरह अपनी जिन्दगी बसर कर रहे हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया में कई देश ऐसे हैं जहां कि कुबेर, धन के बदले नागरिकता खरीद सकते हैं। और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश के कई नागरिक, जनता की गाढ़ी कमाई का धन लूट कर विदेशों में चैन की बंसी बजा रहे हैं। क्या गरीबों के लिए इस दुनिया में कोई जगह ही नहीं है?
यह सही है कि असम में भारी गड़बड़ियां हुई हैं। लेकिन वहां जो कुछ हुआ, उसके लिए केवल बांग्लादेश से वहां बस गए मुसलमानों को दोषी ठहराना और उन्हें देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताना ठीक नहीं है। पूर्व सरकारों ने भी ऐसे कई लोगों को निर्वासित किया है। ऐसे लोगों के साथ क्या किया जाए जो सबसे निचले दर्जे के काम करके अपना पेट पाल रहे हैं? हमारे देश में सामाजिक सुरक्षा कवच तो है नहीं कि उससे लाभ उठाने के लालच में लोग यहां बस जाएं। हम सब देख रहे हैं कि किस प्रकार 'देश-विहीन' रोहिंग्या मुसलमानों को विभिन्न देशों में पटका जा रहा है। सांप्रदायिक तत्त्व रोहिंग्याओं को भी खतरा बता रहे हैं और सभी बांग्ला-भाषी मुसलमानों और हिन्दुओं को बांग्लादेशी।
अब तक भारत एक बड़े दिल वाला देश रहा है। हमने कभी शरणागत को नहीं ठुकराया। हमने तमिलभाषी श्रीलंका वासियों को गले लगाया और तिब्बत के बौद्धों को सम्मान से रखा। अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिन्दुओं को शरणार्थी और मुसलमानों को घुसपैठिया बताना अमानवीय है। अगर एनआरसी का अंतिम मसौदा तैयार भी हो गया तो इससे हमें क्या हासिल होगा? वतर्मान में बांग्लादेश के सामाजिक-आर्थिक सूचकांक भारत से बेहतर हैं। बांग्लादेश पहले से ही यह कह चुका है कि असम में रह रहे प्रवासी उसके नागरिक नहीं हैं और वह उनका देश-प्रत्यावर्तन स्वीकार नहीं करेगा। फिर हम, ऐसे लोगों, जिनके पास कुछ दस्तावेज नहीं हैं, को चिन्हित कर क्या करेंगे? क्या हम उन्हें शिविरों में कैद कर देंगे? वर्तमान में वे निचले दर्जे के काम कर अपनी रोजी- रोटी चला रहे हैं। आखिर इस पूरी कवायद से हमें मिलेगा क्या?
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यही कवायद देश के अन्य राज्यों में करने की मांग अर्थहीन है। आज जरूरी है कि हम इन लोगों के प्रति उसी तरह का करुणा भाव रखें जो हमने तमिल और बौद्ध शरणर्थियों के प्रति रखा था। विभाजन के बाद से भारत की जनसंख्या के स्वरुप में भारी परिवर्तन आया है और इसका कारण है आर्थिक और अन्य कारणों से हुआ प्रवास। हमारा यह दावा है कि हम वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन में विश्वास रखते हैं। हमें यह याद रखना होगा कि केवल वे ही नीतियां सफल होंगी जो करुणा और सहृदयता पर आधारित हों। हमें समाज के कमजोर वर्गों के प्रति सहानुभूति रखनी ही होगी। ऐसे वर्गों को सुरक्षा के लिए खतरा मानना अनुचित होगा। हमें मददगार और उदार ह्रदय बनना होगा। समावेशिता के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा किया गया है)
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