विचार

आकार पटेल का लेख: फीकी पड़ चुकी छवि में क्या मूल विचारधारा त्याग कर शासन पर ध्यान देंगे मोदी!

यह तो निश्चित है कि 240 सीटों के साथ मोदी के पास वह ताकत नहीं है जो उन्हें 2014 से लेकर अब तक हासिल थी जिसमें वह मनमर्जी कर सकते थे या जो कुछ भी करना था, उसे बहुमत के दम पर कर सकते थे।

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Getty Images Artur Widak

भारत में मौजूदा दौर की प्रमुख राजनीतिक ताकत भारतीय जनता पार्टी का इतिहास रहा है कि वह राजनीतिक लाभ के लिए अपनी विचारधारा को विराम देती रही है। इसने वक्त के साथ अप्रासंगिक हो चुके कई मुद्दों को भी त्याग दिया। यह पहलू आज काफी महत्वपूर्ण हो गया है, जिस पर हम इस लेख के अंत में चर्चा करेंगे।

मिसाल के तौर पर 1950 के दशक में जनसंघ के रूप में बीजेपी ने डॉ. अंबेडकर के हिंदू कोड बिल का विरोध किया था क्योंकि उसे तलाक का विचार मंजूर नहीं था क्योंकि उसके मुताबिक हिंदू विवाह शाश्वत थे या संयुक्त परिवारों का अंत करने वाले थे (दरअसल जनसंघ मूल रूप से यह नहीं चाहता था कि महिलाओं को विरासत में हिस्सा मिले))। लेकिन इस मुद्दे को वक्त के साथ उसने छोड़ दिया क्योंकि शहरों में हिंदू समाज में तलाक और एकल परिवार आम बात हो गए।

सबसे रोचक तो पार्टी का हिंदुत्व के साथ औपचारिक संबंध है। अपने 1996 के घोषणापत्र में, पहली बार पार्टी ने हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल किया। ऐसा संभवतः इसलिए किया गया क्योंकि कुछ महीने पहले ही, 11 दिसंबर 1995 को, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शिवसेना द्वारा अपनाया गया हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है और राजनीति में इसका इस्तेमाल धर्म की अपील के बराबर नहीं है। इससे हिंदुत्व शब्द के इस्तेमाल को वैध बन गया, जिसे उस समय तक राष्ट्रीय मीडिया में ज़्यादातर नकारात्मक रूप में ही उल्लेखित किया जाता था।

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पार्टी के 1998 के घोषणापत्र में ‘हिंदुत्व’ के आठ संदर्भ हैं, साथ ही अनुच्छेद 370, गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध और समान नागरिक संहिता का भी उल्लेख है। लेकिन अगले ही साल, इन सभी मुद्दों को पार्टी घोषणापत्र से हटा दिया गया। न हिंदुत्व, न 370, न गोहत्या और न ही समान नागरिक संहिता को इसमें जगह मिली। इसके बजाए 1999 के घोषणापत्र में अल्पसंख्यकों के पांच संदर्भ मिलते हैं, जिसमें उन्हें पूर्ण सुरक्षा और धर्मनिरपेक्षता के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता का आश्वासन दिया गया है।

तो उस एक साल में आखिर क्या बदल गया?

इतना तो साफ था कि बीजेपी सत्ता में आ चुकी थी। अटल बिहारी वाजपेयी को ममता बनर्जी, जे जयललिता और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे सहयोगियों का समर्थन हासिल था। वाजपेयी ने सत्ता के लिए पार्टी की विचारधारा का त्याग किया था। इसके बाद वाजपेयी को एक और कार्यकाल के लिए मौका मिला।

2004 के चुनाव में पार्टी ने अपना घोषणापत्र एनडीए के वचनपत्र या दस्तावेज के रूप में जारी किया। एक बार फि इसमें हिंदुत्व या समान नागरिक संहिता या फिर अनुच्छेद 370 का कोई संदर्भ नहीं था। इतना ही नहीं एनडीए गठबंधन ने अयोध्या विवाद के लिए भी 'सौहार्दपूर्ण समाधान' का आह्वान किया था।

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बीजेपी (जनसंघ) इससे पहले भी अपने रुख में इस तरह के बदलाव पहले भी कर चुकी थी। 1957 में पार्टी ने घोषणा की थी कि वह आर्थिक व्यवस्था में ऐसे ‘क्रांतिकारी बदलाव’ लाएगी, जो ‘भारतीय जीवन मूल्यों के अनुरूप होंगे।’ हालांकि, इस पर पर विस्तार से प्रकाश नहीं डाला गया था कि इसे कैसे किया जाएगा और न ही भविष्य के किसी घोषणापत्र में ‘क्रांतिकारी बदलाव’ की थीम को फिर से उठाया गया।

1954 में और फिर 1971 में जनसंघ ने सभी भारतीय नागरिकों की अधिकतम आय को 2,000 रुपये प्रति माह और न्यूनतम आय को 100 रुपये तक सीमित करने का संकल्प लिया था, जिससे कि 20:1 का अनुपात बना रहे। कहा गया कि तब तक इस अंतर को कम करने पर काम करता रहेगा जब तक कि यह 10:1 के औसत तक न पहुंच जाए जोकि एक आदर्श औसत था और सभी भारतीयों की आय उनकी स्थिति के आधार पर इस सीमा के भीतर ही हो सकती थी।

इस सीमा से अधिक अर्जित अतिरिक्त आय को सरकार द्वारा विकास आवश्यकताओं के लिए ‘योगदान, कराधान, अनिवार्य ऋण और निवेश के माध्यम से’ हासिल किया जाएगा। पार्टी ने कहा कि शहरों में आवासीय घरों के आकार को भी सीमित करेगी और 1000 वर्ग गज से अधिक के भूखंडों की अनुमति नहीं दी जाएगी।

वाजपेयी के नेतृत्व तक में ये सब जारी रहा, लेकिन फिर इसे बिना कोई कारण बताए त्याग दिया गया।

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एक रोचक बात और है, वह यह कि जनसंघ ने कहा था कि वह प्रशासनिक हिरासत कानूनों को भी निरस्त करेगा, जो उसके अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन हैं। 1950 के दशक में यह वादा बार-बार किया गया था। लेकिन 1967 तक इसने अपना रुख बदलते हुए कहना शुरु कर दिया कि ‘यह सुनिश्चित करने के लिए ध्यान रखा जाएगा कि पांचवें स्तंभकार और विघटनकारी तत्वों को मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग करने की अनुमति न दी जाए।’ समय के साथ, संघ और बीजेपी एहतियाती हिरासत और यूएपीए जैसे कानूनों के सबसे बड़े समर्थक के रूप में सामने आए।

1954 में पार्टी ने घोषणा की कि वह ऐसा कानून बनाएगी जिसमें ‘ट्रैक्टरों का इस्तेमाल सिर्फ बंजर जमीन की मिट्टी को खोदने के लिए किया जाएगा। सामान्य जुताई के लिए उनके इस्तेमाल को हतोत्साहित किया जाएगा।’ जाहिर है ऐसा उसने इसलिए किया क्योंकि वह बैल और और गोवंश को वध से बचाने की कोशिश कर रहा था। बाद में बिना कारण बताए इस रुख से भी किनारा कर लिया गया। 1951 में, गोहत्या पर प्रतिबंध को ‘गाय को कृषि जीवन की आर्थिक इकाई बनाने’ के लिए आवश्यक बताया गया था। 1954 में, शास्त्रों को अधिक धार्मिक बताते हुए गोरक्षा को ‘पवित्र कर्तव्य’ कहा गया।

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तो फिर इस सबका वर्तमान से क्या लेना-देना है? यह तो निश्चित है कि 240 सीटों के साथ मोदी के पास वह ताकत नहीं है जो उन्हें 2014 से लेकर अब तक हासिल थी जिसमें वह मनमर्जी कर सकते थे या जो कुछ भी करना था, उसे जारी रखने के लिए जरूरी थी। लेखक प्रताप भानु मेहता ने इस बारे में विस्तार से लिखा है:

"प्रधानमंत्री पूरी तरह से हताश दिख रहे हैं - अपनी हार के कारणों का पता लगाने में नाकाम हैं, और कोई नया रास्ता तय करने में असमर्थ हैं। वे संसद में पिछड़ चुके हैं, और सिर्फ़ इसलिए नहीं कि विपक्ष मज़बूत है और संसद में उसकी संख्या पहले से अधिक है। हर चीज पर नियंत्रण करने की उनकी क्षमता जा चुकी है। सभी पहलुओं से, उनके राजनीतिक जीवन में पहली बार, लोकप्रिय भावनाओं को समझने की उनकी क्षमता लुप्त दिखती है और वे एक ऐसे घिसे हुए रिकॉर्ड की तरह लग रहे हैं, जो अपने ऐसे पिछले जुमलों की ताकत पर जिंदा है जिनकी ताज़गी और उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। दृढ़ विश्वास की छाप लुप्त हो चुकी है।"

तो ऐसे में अब मोदी को क्या करना चाहिए? इसका जवाब खुद बीजेपी ही देती है। वाजपेयी ने विचारधारा से हटकर शासन की ओर रुख करने में समय बर्बाद नहीं किया था। अपने पूर्व नेता का अनुकरण करते हुए मोदी धर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए नर्म रुख अपनाएंगे? लेकिन वे ऐसा करना नहीं चाहते, अलबत्ता अपनी पार्टी के लिए शासन करने के लिए और अधिक जगह खोलेंगे। यह निश्चित रूप से उनकी सबसे महत्वपूर्ण चिंता है, और शायद नहीं भी?

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