खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा।’ अमेरिकी राजनीति के परिप्रेक्ष्य में साहिर लुधियानवी की यह प्रसिद्ध कविता इस समय प्रासंगिक नजर आती है। एक अफ्रीकी-अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड का बेगुनाह खून इस समय राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ही नहीं, पूरे अमेरिकी समाज की रंगभेद की परंपरा पर ऐसा जमा कि आज अमेरिकी व्यवस्थाअफ्रीकी-अमेरिकी विद्रोह के आगे असमर्थनजर आ रही है। जरा कल्पना कीजिए कि दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति डोनाल्डट्रंप को व्हाइट हाउस से निकलकर सामने के चर्च में पैदल जाने के लिए पुलिसकर्मियों की सहायता लेनी पड़ी। आज वह व्हाइट हाउस जिसके एक इशारे पर अफगानिस्तान एवं इराक जैसे देशों पर मिनटों में बम और बारूद की वर्षा हो जाती है, इन दिनों अश्वेत क्रोध के आगे बेबस दिखाई पड़ता है।
यह कमाल है एक मामूली से इंसान अफ्रीकी- अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की निर्मम हत्या के पश्चात उठने वाले ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ आंदोलन का जिसने अमेरिकी राजनीति ही नहीं, अपितु अमेरिकी समाज को भी हिला डाला है। इस समय अमेरिका में जो हो रहा है, वह एक क्रांति से कम नहीं है क्योंकि इस अश्वेत क्रोध के निशाने पर अमेरिकी रंगभेद की वह परंपरा है जो अमेरिकी समाज ही नहीं, अपितु संपूर्ण पश्चिमी सभ्यता पर सदियों से छाई हुई है। इस परंपरा में मानव उसके रंग के आधार पर आंका जाता है। तब ही तो आज तक अमेरिका में अश्वेत अमेरिकी वैसे ही अछूत हैं जैसे हमारे यहां दलित अछूत हैं। स्थिति यह है कि पुलिस को इन अश्वेतों से निपटने के लिए ऐसे अधिकार मिले हुए हैं कि वे जब चाहें, जॉर्ज फ्लॉयड की तरह खुलेआम सड़क पर किसी अश्वेत का गला दबाकर उसकी हत्याकर सकते हैं। परंतु इतिहास साक्षी है कि हर सामाजिक अन्याय का एक समय निश्चित होता है। और जब वह अन्याय उस परिधि को तोड़ देता है तो फिर एक क्रांति उत्पन्न हो जाती है जो इस समय अमेरिका की सड़कों पर दिखाई पड़ रही है। इसको आज क्रांति नहीं तो क्या कहेंगे कि दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति डोनाल्ड ट्रंप अश्वेत क्रोध के आगे असहाय दिखाई पड़ते हैं।
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लेकिन क्या यह क्रांति अमेरिकी समाज से रंगभेद की परंपरा को समाप्त करने में सफल हो पाएगी? इस प्रश्न का दो टूक जवाब देना अभी कठिन है। परंतु इस क्रांति का पहला पड़ाव इस वर्ष नवंबर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के समय होगा। इस बार अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव केवल वहां की रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों के बीच चुनाव नहीं होंगे बल्कि यह अमेरिका में श्वेतों की ‘सुपरमेसी’ और अश्वेतों के प्रति भेदभाव के खिलाफ संघर्ष के बीच एक युद्ध होगा। इस सामाजिक युद्ध को तय करने के लिए दोनों ओर से तलवारें खिंच चुकी हैं। रिपल्बिकन पार्टी की ओर से डोनाल्ड ट्रंप पूरी पश्चिमी सभ्यता में श्वेतों के गौरव के प्रतीक बनकर उभरे हैं जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बिडेनअश्वेतों की आशा के प्रतीक बनते जा रहे हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि इस रस्साकशी में डोनाल्ड ट्रंप खुलकर वही रणनीति अपना रहे हैं जो नरेंद्र मोदी भारत में हिंदू वोट बैंक को बीजेपी के पक्ष में एकत्रित करने के लिए अपनाते हैं। मोदी की ‘हिंदुओ, मुस्लिम खतरे के विरूद्ध इकट्ठा हो जाओ’ रणनीति के समान ट्रंप की, ‘श्वेतो, अश्वेत खतरे से निपटने के लिए एकजुट हो’ रणनीति है।
समान स्थिति में ट्रंप की यह राजनीति वैसी ही सफल होनी चाहिए जैसे कि भारत में मोदी की राजनीति कामयाब होती है। मोदी तो एक काल्पनिक मुस्लिम शत्रु का हव्वा खड़ा करके हिंदू अंग रक्षक का रूप ले लेते हैं। अमेरिका में तो ‘अश्वेत शत्रु’ का भय श्वेतों को सड़कों पर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। यह वही स्थिति है जो भारत में 1980 और 90 के दशक में राम मंदिर और बाबरी मस्जिद संघर्ष के समय में थी। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की ओर से मस्जिद की सुरक्षा के लिए मुसलमानों की जितनी बड़ी रैली होती थी तो हिंदू उससे दोगुनी तादाद में विश्व हिंदू परिषद के झंडे तले इकट्ठा होते थे। वैसे ही अमेरिका में अश्वेत लोगों की जितनी बड़ी रैलियां होंगी, श्वेत लोग उतना ही डरकर ट्रंप की छत्र-छाया में इकट्ठा होंगे। इस परिस्थिति में ‘व्हाइट वोट बैंक’ के आधार पर ट्रंप को अपना चुनाव जीतना चाहिए क्योंकि अमेरिका में श्वेत लोगों की जनसंख्या कहीं अधिक है।
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लेकिन इस राजनीति में इस बार एक पेच दिखाई पड़ रहा है। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई तो ट्रंप के लिए चुनाव जितना भारी पड़ सकता है। वह परिस्थिति क्या हो सकती है? वह स्थिति वही होगी जो अभी पांच माह पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय दिल्ली में उत्पन्न हो गई थी। जैसे दिल्ली में केजरीवाल के मोह में नहीं, अपितु मोदी को हराने की मजबूरी में लगभग दिल्ली का सारा वोटर आम आदमी पार्टी के पक्ष में एकत्रित हो गया और केजरीवाल भारी बहुमत से चुनाव जीत गए। उसी प्रकार अमेरिका में बिडेन को जिताने के लिए नहीं बल्कि ट्रंप को हराने की रणनीति से तमाम ट्रंप विरोधी शक्तियां अपने आपसी मतभेद भुलाकर बिडेन को वोट डाल दें तो ट्रंप चुनाव हार सकते हैं। अमेरिका में रंगभेद की राजनीति के खिलाफ तीन बड़ी लॉबिया हैं। एक तो स्वयं अफ्रीकी- अमेरिकी अश्वेत, फिर दूसरी श्रेणी में पड़ोसी देशों से आए लातिनी और तीसरी इस्लामिक फोबिया से परेशान अमेरिकी मुस्लिम श्रेणी। यदि ये सब एकजुट हो जाएं और रंगभेद की राजनीतिके खिलाफ स्वयं श्वेतों की लॉबी में विभाजन हो जाए तो बाजी ट्रंप के हाथ से निकल सकती है। परंतु क्या यह संभव है!
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यह केवल संभव ही नहीं बल्कि अब तो यह कुछ- कुछ दिखाई भी पड़ रहा है। ‘व्हाइट वोट बैंक’ में दरार पड़नी शुरू हो चुकी है। इस समय ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के नाम पर जो रैलियां हो रही हैं, उनमें श्वेत नौजवान बड़ी तादाद में शरीक हो रहे हैं। अभी हाल ही में अमेरिका की दो यूनिवर्सिटियों में जो पोल हुए, उनमें अधिकांश श्वेत नौजवानों ने रंगभेद और अश्वेतों के प्रति पुलिस भेदभाव के खिलाफ वोट डाला। अर्थात ‘व्हाइट वोट बैंक’ में दरार पड़नी शुरू हो चुकी है। इसमें कोई शक नहीं है कि अभी भी श्वेतों का बड़ा हिस्सा ट्रंप के साथ है। परंतु यह भी स्पष्ट है कि ट्रंप को श्वेतों को इकट्ठा करने की रणनीति के लिए अभी से समस्याएं उत्पन्न होने लगी हैं। केवल इतना ही नहीं, स्वयं ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी में ट्रंप के विरुद्ध आवाज उठने लगी है। रिपब्लिकन खेमे में अश्वेतों के सबसे कद्दावर नेता कॉलिन पावेल ने खुलकर यह ऐलान कर दिया है कि वह राष्ट्रपति चुनाव में जो बिडेन के पक्षमें वोट डालेंगे। इसी प्रकार कई बार रिपब्लिकन सीनेटर रह चुके मिट रोमनी खुलकर अश्वेतों की रैलियों में शामिल हो रहे हैं। भूतपूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के भाई जेब बुश की ओर से भी यही इशारे मिल रहे हैं कि वह ट्रंप का विरोध कर सकते हैं। इनत माम लोगों की बिडेन की जीत में कोई रुचि नहीं है लेकिन ट्रंप को हराना उनकी प्राथमिकता है। इसी प्रकार ये सब ट्रंप के खिलाफ बिडेन के साथ जुड़ते जा रहे हैं। अर्थात 2020 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव कुछ-कुछ 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव का रूप ले सकता है। जैसे मोदी हराओ लहर से केजरीवाल को लाभ हो गया, वैसे ही ट्रंप हराओ लहर यदि जोर पकड़ गई तो नवंबर, 2020 में ट्रंप की हार भी हो सकती है।
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यदि 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में ऐसा हुआ तो यह केवल ट्रंप की हार नहीं होगी बल्कि इससे अमेरिका और सारी पश्चिमी दुनिया में रंगभेद को एक करारा झटका लगेगा। और इसी के साथ-साथ सारे संसार में बदलाव की एक नवीन क्रांति भी उत्पन्न हो सकती है जो भारत में सदियों पुरानी जातीय व्यवस्था और अरब देशों में बादशाही तथा शेखों की व्यवस्था को भी प्रभावित कर सकती है। स्पष्ट है कि ऐसी कोई क्रांति दो-चार दिनों अथवा वर्षों में संभव नहीं है। परंतु जॉर्ज फ्लॉयड के जमे खून ने फैज की ‘हम देखेंगे’ नज्म की उस पंक्ति को फिर से नया अर्थदे दिया है जिसमें वह कहते हैं: उठेगा अनल-हक का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो/ और राज करेगी खल्क-ए-खुदा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो।
और अमेरिकी सड़कों पर इस समय ट्रंप का नहीं खल्क-ए-खुदा (जनता) का राज है जो रंगभेद की राजनीति के लिए एक बड़ा झटका है।
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