इन दिनों जब मोदी सरकार के कतिपय ‘संविधान-विरोधी कदमों’ के कारण देश आंदोलित है और बीजेपी पर जानबूझकर संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ करने के चौतरफा आरोप लग रहे हैं, स्वाभाविक ही यह जानने की इच्छा होती है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनी अगली पीढ़ियों से क्या अपेक्षा की थी? क्या लंबे विचार-विमर्श और वाद-विवाद के बाद आम सहमति से एक संविधान बनाकर ही वे निश्चिंत हो गए थे कि भविष्य में सब ठीक-ठाक चलेगा? क्या उन्हें कुछ आशंकाएं थीं कि भविष्य में कभी कोई सरकार उनकी मंशा के विपरीत आचरण कर सकती है?
इस बारे में संविधान सभा की अंतिम बैठकों की कार्यवाही महत्वपूर्ण रोशनी डालती है। उससे पता चलता है कि हमारे संविधान निर्माताओं को ऐसी कोई गलतफहमी नहीं थी कि उनका बनाया श्रेष्ठ संविधान इस देश को अपने आप निश्चित राह पर चलाता रहेगा और भविष्य के नेताओं को कुछ नहीं करना पड़ेगा। बल्कि, उन्होंने भविष्य के नेताओं से संविधान की मूल भावना को लगातार समझने और उसके अनुरूप आचरण करते रहने की अपेक्षा की थी। साथ ही कुछ चेतावनियां भी दे डाली थीं।
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संविधान की प्रारूपण समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर और संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने जो कहा था, उसे आज के संदर्भ में अवश्य देखना चाहिए। वे निश्चय ही भविष्य द्रष्टा थे। इसीलिए दूर-दूर तक देख पा रहे थे। 25 -26 नवंबर, 1949 को हुई संविधान सभा की अंतिम बैठकों में डॉ. आंबेडकर की यह चेतावनी देखिए-
“मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकलें तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा.... कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा उनके राजनैतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? जातियों तथा संप्रदायों के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा, विभिन्न तथा परस्पर विरोधी विचारधारा रखने वाले राजनैतिक दल बन जाएंगे। क्या भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मैं नहीं जानता. लेकिन यह बात निश्चित है कि यदि राजनैतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर खतरे में पड़ जाएगी और संभवतया हमेशा के लिए खतरे में पड़ जाए।” (हमारा संविधान, सुभाष काश्यप, पृष्ठ-31)
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क्या आंबेडकर उन राजनैतिक ताकतों को पहचान रहे थे जो ऐसा कर सकते हैं? क्या वे 1949 में 2014 और उसके बाद पैदा होने वाले आज के खतरे देख पा रहे थे? क्या उन्होंने इसीलिए आगे यह नहीं कहा था कि “हम सभी को इस संभाव्य घटना का दृढ़ निश्चय के साथ प्रतिकार करना चाहिए। हमें अपनी आजादी की खून के आखिरी कतरे के साथ रक्षा करने का संकल्प करना चाहिए।’’
और देखिए, समापन भाषण में डॉ राजेंद्र प्रसाद क्या कह गए- “आखिरकार, एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों द्वारा होता है जो इस पर नियंत्रण करते हैं तथा इसे चलाते हैं। भारत को ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हों और देश के हित को सर्वोपरि रखें। हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है। हममें सांप्रदायिक अंतर हैं, जातिगत अंतर हैं, भाषागत अंतर हैं, प्रांतीय अंतर हैं। इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले लोगों की, दूरदर्शी लोगों की जरूरत है, जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें और उन पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ सकें जो इन अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं। हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि देश में ऐसे लोग प्रचुर संख्या में सामने आएंगे।” (हमारा संविधान, सुभाष काश्यप, पृष्ठ-32)
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आज ठीक वही खतरे और आशंकाएं हमारे सामने सिर उठाए खड़े हैं, जिनके बारे में संविधान निर्माता हमें आगाह कर गए थे। देश से ऊपर पंथ को रखने की कोशिश की जा रही है। धर्म के आधार पर भेद करने वाला कानून बना दिया गया है। संविधान के नाम पर शपथ लेने वाले ही उसकी मूल भावना के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
खतरे सामने आए हैं तो डॉ राजेंद्र प्रसाद की उम्मीदें भी फल-फूल रही हैं। आज यह देखना आश्वस्ति दायक है कि नए नागरिकता कानून और एनआरसी के विरुद्ध देश भर में जारी आंदोलनों में जनता, विशेष रूप से युवा पीढ़ी अपने संविधान की दुहाई दे रही है, उसकी प्रस्तावना का पाठ कर रही है। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के हाथों में संविधान बचाने की अपील करते पोस्टर हैं। याद नहीं पड़ता कि इससे पहले कभी अपने संविधान और उसकी मूल भावना को आंदोलनकारियों ने इस तरह अपनी ताकत बनाया हो। यह आह्लादकारी है।
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आंदोलन में संविधान के इस रचनात्मक उपयोग ने नागरिकता कानून के संविधान-विरोधी होने को ही रेखांकित नहीं किया है, बल्कि संविधान को भी आम चर्चा के केंद्र में ला दिया है। जो संसद और अदालतों में संविधान को उद्धृत किया, जिस पर कानूनविद बहस करते हैं, वह आज जनता के हाथों में भी दिख रहा है। अनेक विविधताओं के बावजूद इस देश को एक सूत्र में बांधे रखने वाले किसी संविधान के कहीं होने की जो प्रतीति होती थी, वह आज व्यवहार में है। साल 2020 की शुरुआत में संविधान संसद या अदालतों में रखा गया कोई पवित्र ग्रंथ भर नहीं रह गया है।
आज आंदोलनकारियों के हाथों में संविधान की प्रतियां हैं। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के लड़के-लड़कियां संविधान की प्रस्तावना हाथ में लिए लहरा रहे हैं। उसे पढ़ रहे हैं। समझ रहे हैं। समझ कर और जोर से नारे लगा रहे हैं। इस देश के आम जन को, युवा पीढ़ी को संविधान का अर्थ समझ में आ रहा है। उन्हें लग रहा है कि मोदी सरकार ऐसा कुछ कर रही है जो संविधान के विरुद्ध है। संविधान के विरुद्ध है तो देश के विरुद्ध है। इसलिए उसका प्रतिकार होना चाहिए। यह समझ उनके प्रतिरोध को त्वरा दे रही है।
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वे यह भी ठीक से समझ रहे हैं कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने का यह अधिकार उन्हें यही संविधान देता है। वे पहली बार अच्छी तरह यह जान रहे हैं कि संविधान आम भारतीय जनता को कुछ ऐसे मूल अधिकार देता है जिन्हें कोई नहीं छीन सकता। अब तक उन्होंने यह किताबों में पढ़ा था और परीक्षाओं में लिखा भर था। आज वे इसे अनुभव कर रहे हैं। इसलिए लड़ रहे हैं।
लखनऊ के जीपीओ पार्क में गांधी प्रतिमा के नीचे या पटना के आयकर गोलंबर पर या दिल्लीके जंतर-मंतर और शाहीन बाग में या कर्नाटक और मुम्बई की सड़कों पर जब इस देश का युवा अपने संविधान की प्रस्तावना का सजोर पाठ करता है तो उन शब्दों का मर्म उसके दिमाग में गूंजता है- “हम भारत के लोग भारत को एक प्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उन सब में बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं।”
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ये सामान्य शब्द नहीं हैं। यह भारत की समस्त जनता का भारत की समस्त जनता से किया गया दृढ़संकल्प है। यह दृढ़संकल्प ऐसे ही नहीं कर लिया गया था। इसके पीछे सालों-साल गहन विचार-विमर्श हुआ था, लम्बी-लम्बी बहसें हुई थीं, वैचारिक आलोड़न-विलोड़न हुआ था और समुद्र मंथन से निकले अमृत की तरह इसे हासिल किया गया था। इन शब्दों का सड़कों-चौराहों पर पाठ करते हुए इस देश का युवा आज बहुत अच्छी तरह समझ रहा है कि संविधान की उद्देशिका में वर्णित न्याय के मायने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय है, स्वतंत्रता की परिभाषा में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता शामिल है और समानता के अर्थ हैं- प्रतिष्ठा और अवसर की समानता।
तब? पूछ रहा है इस देश का आमजन, मोदी सरकार से कि आप कोई विभेदकारी कानून कैसे बना सकते हो? संविधान की उद्देशिका में लिए गए संकल्प का उल्लंघन कैसे कर सकते हो? इस देश की जनता से संविधानिक छल कैसे कर सकते हो? देश का युवा संविधान की रक्षा में खड़ा हुआ है। यह 2020 के गणतंत्र दिवस का शुभ होना है।
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