विचार

कोरोना से लड़ने के लिए तमाम देश दे रहे राहत पैकेज, अपने यहां बढ़ाया जा रहा टैक्स

कोरोना महामारी का संकट दोहरा है। सबसे पहले देश की आबादी को इस घातक महामारी के बम-सरीखे हमले से बचाना है। दूसरी तरफ, इस महामारी का सबसे ज्यादा असर उड्डयन, होटल, पर्यटन, मनोरंजन और ऑटो सेक्टर पर पड़ रहा है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

कोरोना महामारी का संकट दोहरा है। सबसे पहले देश की आबादी को इस घातक महामारी के बम-सरीखे हमले से बचाना है। दूसरी तरफ, इस महामारी का सबसे ज्यादा असर उड्डयन, होटल, पर्यटन, मनोरंजन और ऑटो सेक्टर पर पड़ रहा है। कोरोना वायरस की तबाही कहां और कब जा कर रुकेगी, इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं है। आर्थिक सुस्ती के भंवर से निकालने की चुनौती मोदी सरकार के लिए कोरोना वायरस के प्रकोप से और गहरा गई है क्योंकि रोजगार देने वाले क्षेत्र- कृषि, मैन्यूफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, ऑटो आदि पहले से ही आर्थिक सुस्ती के गहरे दबाव में हैं। कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण से अब आर्थिक गतिविधियां और सिकुड़ेगी क्योंकि देश के कई उद्योग कच्चे माल और कल-पुरजों की आपूर्ति के लिए काफी हद तक चीन पर आश्रित हैं। इनमें दवा, मोबइल, ऑटोमोबाइल्स, टेलिकॉम प्रमुख हैं। अनेक आवश्यक दवाओं के लिए 70 फीसदी मूल रसायन चीन से आते हैं। फिलवक्त इनकी आपूर्ति पूरी तरह से बाधित है और जून महीने के पहले चीन से आपूर्ति बहाली की कोई उम्मीद नहीं है। पाबंदियों के कारण कोरोना वायरस का सबसे ज्यादा खराब फौरी असर देश के होटल पर्यटन उद्योग पर पड़ा है। इस क्षेत्र का कारोबार अब तक 60-70 फीसदी कम हो चुका है। इन सबका असर चालू तिमाही (जनवरी- मार्च) के आर्थिक परिणामों पर दिखाई देगा।

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किसी भी देश की आर्थिक प्रकोप से लड़ने की क्षमता उसकी आर्थिक इम्यूनिटी यानी प्रतिरोधी शक्ति से निर्धारित होती है जो मुख्यतः उस देश के निवेश मांग, खपत और आय स्तर से तय होती है। इस लिहाज से इस समय देश की आर्थिक विपदा से लड़ने की प्रतिरोधी क्षमता काफी कम है। पिछली सात तिमाहियों से देश की विकास दर लगातार गिर रही है। पिछले छह में से चार महीनों में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर नकारात्मक रही है। निवेश और बचत दर में भी लगातार कमजोरी बनी हुई है। अप्रैल से दिसंबर, 2019 के बीच औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि महज 0.5 फीसदी रही है। पर मैन्यूफैक्चरिंग में यह वृद्धि दर इस अवधि में और भी कम 0.3 फीसदी रही है। देश की अर्थव्यवस्था घरेलू मांग और खपत पर आश्रित है। पर पिछले पौने दो साल से इनमें लगातार कमजोरी बनी हुई है। यदि मोदी सरकार विशेषकर इन छह क्षेत्रों-कृषि, कृषि- इंफ्रा, मनरेगा, नकद आर्थिक सहायता, मैन्यूफैक्चरिंग और निर्यात पर ज्यादा ध्यान देती, तो आज कोरोना वायरस के आर्थिक प्रकोप से लड़ने की प्रतिरोधी क्षमता कहीं अधिक होती।

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कृषि पर देश की अधिसंख्य आबादी जीवन-निर्वाह के लिए आश्रित है। पर पिछले कुछ सालों से कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों की स्थिति बदतर हुई है। वास्तविक आय और मजदूरी में न के बराबर वृद्धि हुई है। कृषि के अलाभप्रद होने के कारण देश में किसानों की संख्या में लगातार कमी आ रही है और वे दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए मजबूर हैं। मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। लेकिन पिछले कुछ सालों में कृषि विकास दर तीन फीसदी से कम रही है। अनेक कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए अब 15 फीसदी कृषि विकास दर की जरूरत होगी जो असंभव है। हकीकत यह है कि इस दरमियान कृषि लागत बढ़ी है, उस अनुपात में आय नहीं। डीजल और उर्वरकों के महंगे होने से कृषि लागत बढ़ी है। आय के अभाव में ग्रामीण मांग लगातार कमजोर बनी हुई है। इसका अर्थव्यवस्था पर चैतरफा असर पड़ा है, विशेषकर मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र पर जो मौजूदा आर्थिक सुस्ती का एक बड़ा कारण है।

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मौजूदा कृषि संकट का दूसरा बड़ा कारण भंडारण और प्रसंस्करण के अभाव में कृषि खाद्य उत्पादों की बरबादी है। सरकार ने खुद माना है कि पर्याप्त रख-रखाव के अभाव में 6 फीसदी कृषि खाद्य उत्पाद नष्ट हो जाते हैं। एक आकलन के अनुसार, उचित भंडारण और सुविधाओं के अभाव में हर साल कृषि उत्पादों की बरबादी के कारण 92 हजार करोड़ रुपये का नुकसान किसानों को होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोदी राज में बुनियादी ढ़ांचे पर खर्च काफी बढ़ा है। इसका 10-20 फीसदी हिस्सा भी भंडारण और अन्य सुविधाओं के बढ़ाने पर मोदी सरकार खर्च करती, तो किसानों की आय में काफी सुधार आता जो ग्रामीण मांग बढ़ाने में मददगार ही साबित होती।

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ग्रामीण क्षेत्र में आय और मांग बढ़ाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने मनरेगा योजना शुरू की थी। ग्रामीण आय बढ़ाने में इसकी उपयोगिता स्वयसिद्ध है। यह संसार की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना है। मनमोहन सिंह काल से मनरेगा के बजट आवंटन में लगातार इजाफा हुआ और उसका आर्थिक लाभ भी अर्थव्यवस्था को हुआ। पर प्रधानमंत्री मोदी ने खुद ही इसे कांग्रेस की विफलता का स्मारक घोषित कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले कई सालों से मनरेगाा का बजट स्थिर सा है और कुल बजट व्यय में मनरेगा बजट की हिस्सेदारी कम हुई है। मनरेगा की बकाया राशि में इजाफा हुआ है और मजदूरी घंटे भी औसत रूप से कम हुए हैं जिससे भी ग्रामीण मांग कमजोर बनी हुई है। अनेक अर्थ विशेषज्ञों का सुझाव है कि किसानों की आर्थिक स्थिति और मांग बढ़ाने के लिए आज नकद आर्थिक सहायता बढ़ाने की जरूरत है। लोकसभा चुनावों के ठीक पहले मोदी सरकार ने किसान सम्मान निधि योजना शुरू की थी जिसके तहत पात्र किसानों को हर साल तीन किस्तों में 6 हजार रुपये की नकद सहायता देने का प्रावधान है। लेकिन यह उपाय किसानों की क्रय शक्ति बढ़ाने में नाकाफी सिद्ध हुआ है और ग्रामीण मांग कमजोर बनी हुई है।

अनेक अर्थ विशेषज्ञों ने सिफारिश की है कि किसानों की नकद आर्थिक सहायता बढ़ा कर 5 हजार रुपये महीना कर देनी चाहिए। इसका तत्काल लाभ किसानों की आय और मांग बढ़ाने में मिलेगा और आर्थिक सुस्ती दूर होगी। पर अभी मोदी सरकार सहायता बढ़ाने के बजाय आर्थिक बोझ बढ़ाने में लगी हुई है।

कृषि की तरह मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की हालत भी खस्ता बनी हुई है। मोदी सरकार ने सत्ता पर काबिज होते ही मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ नामक महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी। इसका लक्ष्य 2022 तक (अब 2025 तक) सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मैन्यूफैक्चरिंग की हिस्सेदारी तकरीबन 16 फीसदी से बढ़ा कर 25 फीसदी करना था। इस अभियान से 10 करोड़ रोजगार सृजन का लक्ष्य इस अवधि के लिए रखा गया था। लक्ष्य प्राप्ति के लिए 25 उद्योगों की पहचान की गई थी। पर यह योजना मोदी राज की विफलताओं का स्मारक बन गया है। आज भी मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र जीडीपी में अपनी 16 फीसदी हिस्सेदारी बनाए रखने के लिए जूझ रहा है।

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सब मानते हैं कि निर्यातों के बढ़ने से ही अर्थव्यवस्था में चमक आती है। पर पिछले छह सालों से निर्यातों में वृद्धि दर कमजोर बनी हुई है। मनमोहन सिंह काल में 2008 में वैश्विक मंदी आई थी, पर निर्यातों के मजबूत होने के कारण इस वैश्विक मंदी का असर भारत पर सबसे कम हुआ था। 2008 में भारत के कुल निर्यात 8.4 लाख करोड़ रुपये थे जो 2013-14 में बढ़कर तकरीबन 19 लाख करोड़ रुपये हो गए, यानी 126 फीसदी की वृद्धि। लेकिन मोदी राज में निर्यात बमुश्किल बढ़कर 21 लाख करोड़ रुपये हुए हैं, यानी लगभग 10 फीसदी की वृद्धि। पर श्रममूलक निर्यातों को इस दरमियान तेज झटका लगा है जैसे टेक्सटाइल। इससे रोजगार और आय की स्थिति विकराल हुई है।

इन छह मुख्य कारणों से आज वैश्विक आर्थिक आपदा से लड़ने की हमारी आर्थिक प्रतिरोध क्षमता भी कमजोर हुई है। यदि कोरोना का प्रकोप छह महीने जारी रहता है, तो वैश्विक आर्थिक मंदी का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थान को डर है कि इससे 19 लाख करोड़ डॉलर के ऑटो, उड्डयन और पर्यटन उद्योग के कॉरपोरेट कर्ज डगमगा सकते हैं, यानी वे कर्ज चुकाने में असमर्थ हो सकते है। अमेरिका समेत अनेक देशों ने आर्थिक मंदी के खतरों को देखते हुए अरबों डॉलर के राहत के पैकेज की घोषणा कर दी है। इसके ठीक उलट देश में सरकार अब भी टैक्स बोझ बढ़ाने में लगी हुई है। अब बेसब्री से तमाम उद्योग अब बेसब्री से तमाम उद्योग राहत पैकेज के लिए मोदी सरकार को देख रहे हैं।

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