हमारे देश में जैसे-जैसे सांप्रदायिकता का बोलबाला बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे राजनैतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सांप्रदायिक प्रतीकों और नायकों के इस्तेमाल का चलन भी बढ़ रहा है। अपने-अपने राजनैतिक एजेंडे की पूर्ति के लिए विभिन्न राजनैतिक शक्तियां अलग-अलग व्यक्तित्वों का इस्तेमाल कर रही हैं। लोगों को बांटने पर आधारित राजनीति का प्रचलन बढ़ने के साथ ही अपने संकीर्ण लक्ष्य हासिल करने के लिए राष्ट्रीय नायकों और अन्य व्यक्तित्वों का उपयोग अपने हितसाधन के लिए करने की प्रवृत्ति राजनैतिक दलों में बढ़ती जा रही है।
लालकृष्ण आडवाणी ने राममंदिर आन्दोलन और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के द्वारा, बीजेपी को जबरदस्त राजनैतिक लाभ पहुंचाया। इससे जो राजनैतिक ध्रुवीकरण हुआ, उससे भी बीजेपी को ही लाभ हुआ. उस समय आडवाणी की छवि एक कट्टरपंथी नेता की थी। और इसलिए, एक चतुर राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए अटल बिहारी वाजपेयी, जो अपेक्षाकृत उदार तबियत के नेता माने जाते थे, के नाम का प्रस्ताव किया। समय के साथ, आडवाणी को लगा कि उन्हें भी अपनी छवि एक नरमपंथी नेता की बनानी चाहिए। अतः जब वे कटासराज मंदिर का उद्घाटन करने पाकिस्तान गए तब उन्होंने जिन्ना के मकबरे की यात्रा भी की।
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जिन्ना के मकबरे की आगंतुक पुस्तिका में उन्होंने लिखा, "ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। परन्तु ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने इतिहास का निर्माण किया है। क़ायदे-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना ऐसे ही बिरले लोगों में से एक थे।" उन्होंने पाकिस्तान की संविधान सभा में जिन्ना के भाषण को उदृत कर यह साबित करने का प्रयास भी किया कि जिन्ना निहायत धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे।
जिन्ना का गुणगान करते समय आडवाणी भूल गए कि ऐसा करके वे अपने पितृ संगठन आरएसएस के अखंड भारत के लक्ष्य को मटियामेट कर रहे हैं। जो कुछ आडवाणी ने कहा था, उसमें कुछ सच्चाई भी थी परन्तु आरएसएस को जिन्ना की जरा सी भी तारीफ बर्दाश्त नहीं थी। उसकी निगाह में जिन्ना वह व्यक्ति था जिसने पाकिस्तान का निर्माण कर अखंड भारत को खंडित कर दिया। आज नतीजा यह है कि आडवाणी बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य हैं और राजनीति से उन्हें एकदम बाहर कर दिया गया है।
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अभी हाल में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि "सरदार पटेल, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु और (मोहम्मद अली) जिन्ना एक ही संस्थान में पढ़े थे। वे सभी बैरिस्टर बने और उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी।" बीजेपी के आईटी सेल ने अखिलेश के भाषण के वीडियो को कुछ इस तरह काट-छांट कर दिखाया जिससे ऐसा लगे कि उन्होंने कहा हो कि जिन्ना ने हमें स्वतंत्रता दिलवाई।
क्या भारतीय राष्ट्रवादी गांधी, नेहरु और पटेल को जिन्ना की श्रेणी में रखा जा सकता है? जिन्ना का राजनैतिक जीवन एक सीधी रेखा में नहीं था। स्वाधीनता संग्राम के कई ऐसा नेता जिन्होंने शुरुआत में तो पूरी निष्ठा और समर्पण से आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया परन्तु बाद में वे सांप्रदायिकता की भंवर में फंस गए। सावरकर भी शुरुआत में ब्रिटिश-विरोधी क्रन्तिकारी थे परन्तु बाद में वे सांप्रदायिक हिन्दू महासभा के नेता बन गए। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम का विरोध किया और फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने में अंग्रेजों की मदद की।
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जिन्ना भी शुरुआत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे। वे उदारवादी, आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष थे। परन्तु बाद में असहयोग आन्दोलन की अवधारणा को लेकर उनके गांधीजी से मतभेद हो गए। जिन्ना इस आन्दोलन से आम लोगों को जोड़े जाने के खिलाफ थे। वे कांग्रेस से दूर होते चले गए और आगे चल कर उन्होंने मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभाला।
अखिलेश यादव हमें सलाह दे रहे हैं कि हम इतिहास की पुस्तकों को पढ़ें ताकि हमें समझ में आए कि जो वे कह रहे हैं वह सही है। हमारी भी उन्हें सलाह है कि वे इतिहास को उसकी सम्पूर्णता में समझें। उसके चुनिन्दा हिस्सों को पढ़ कर वे किसी निष्कर्ष पर न पहुंचें। अगर वे ऐसा करेंगे तो उन्हें पता चलेगा कि जिन्ना के जीवन में सन 1920 के दशक में एक बड़ा मोड़ आया। गांधीजी ने सत्याग्रह और अहिंसा पर आधारित असहयोग आन्दोलन शुरू किया। जिन्ना चाहते थे कि कांग्रेस संविधानवादी बनी रही और ब्रिटिश तंत्र के अंदर रहते हुए लोगों के लिए और अधिकारों की मांग करे। उनका मानना था कि ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष से आम लोगों को जोड़ने से अफरातफरी मच जाएगी। गांधीजी और अन्य नेताओं की मान्यता थी कि कांग्रेस को जनांदोलन चलाने चाहिए और इससे ही भारत को राष्ट्र के रूप में विकसित करने की प्रक्रिया शुरू होगी।
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जिन्ना ने पाकिस्तान की संविधान में बोलते हुए 11 अगस्त 1947 को भले ही यह कहा हो कि "राज्य लोगों के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करेगा" परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि वे सांप्रदायिक राजनीति के जाल में फंस चुके थे। उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत हिन्दू-मुस्लिम एकता के पैरोकार के रूप में की थी और कांग्रेस नेता लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के साथ 1916 में लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। बाद में उन्हें लगने लगा कि स्वतंत्र भारत में हिन्दुओं का बहुमत होगा और इससे मुसलमानों के हित प्रभावित होंगे। उन्हें यह भ्रम हो गया था कि मुस्लिम लीग सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। उन्हें यह बेबुनियाद आशंका भी थी कि हिन्दू बहुसंख्यक कांग्रेस के राज में मुसलमानों के हित सुरक्षित नहीं रहेंगे।
उनकी राजनीति ने यहीं से गलत राह पकड़ ली। वे राजनीति को सांप्रदायिक चश्मे से देखने लगे। उनका लक्ष्य केवल यह सुनिश्चित करना रह गया कि अंग्रेजों की भारत से विदाई के बाद मुसलमानों के हित सुरक्षित रहें। उन्होंने मोतीलाल नेहरु समिति के समक्ष कई मांगें रखीं, जो घोषित रूप से तो मुसलमानों के हित संरक्षण के लिए थीं, परन्तु जिनका असली लक्ष्य कुलीन मुसलमानों के वर्चस्व बनाये रखना था।
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उस समय, हिन्दू सांप्रदायिकता का जोर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर था। आगे चलकर सावरकर, गोलवलकर आदि ने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि स्वाधीन भारत में मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक होंगे। सन 1930 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में मोहम्मद इकबाल ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश- पाकिस्तान की मांग प्रस्तुत की थी। जिन्ना ने उस समय इस मांग को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। साल 1937 के विधानमंडल चुनावों में मुस्लिम लीग का प्रदर्शन खराब रहा और कांग्रेस ने अपने मंत्रिमंडलों में लीग के सदस्यों को स्थान देने से इंकार कर दिया। इससे जिन्ना के मन में भारत को विभाजित करने की इच्छा और बलवती हो गई। सन 1940 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पाकिस्तान के निर्माण की मांग की गई। जिन्ना को यह मांग उठाने के लिए अंग्रेजों ने भी प्रोत्साहित किया।
स्वाधीनता आन्दोलन में जिन्ना की भूमिका के संबंध में इतिहास के केवल चुनिंदा हिस्सों के आधार पर कुछ कहना जायज नहीं है। जिन्ना को गांधी, नेहरु और पटेल की श्रेणी में नहीं रखा का सकता। अखिलेश यादव मुस्लिम लीग के सर्वोच्च नेता के रूप में जिन्ना की भूमिका को नजरअंदाज कर रहे हैं। इस मामले में वे अकेले नहीं हैं। कई राजनैतिक नेता ऐसा कर रहे हैं। वे इतिहास के केवल उस हिस्से की बात करते हैं जो उनके एजेंडे के अनुरूप हो और अतीत के घटनाक्रम को उसकी सम्पूर्णता में देखना नहीं चाहते।
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इसी तरह, हिन्दू राष्ट्रवादी भी कालापानी की सजा काटने के लिए अंडमान भेजे जाने से पहले सावरकर की ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियों के आधार पर उनका महिमामंडन करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि सावरकर द्विराष्ट्र सिद्धांत के पैरोकार थे। हिन्दू महासभा के मुखिया के रूप में वे स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल नहीं हुए, उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन सेनाओं की मदद की और वे महात्मा गांधी की हत्या के आरोपियों में से एक थे।
किसी भी नेता का सही आंकलन करने के लिए जरूरी है कि उसकी विचारधारा और उसके कार्यों को उनकी सम्पूर्णता में देखा जाए। परन्तु राजनाथ सिंह और अखिलेश यादव को तथ्यों से कोई मतलब नहीं हैं। उन्हें तो केवल अपनी राजनीति चलानी है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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