अक्तूबर, 2019: पटना से दिल्ली तक कोई मानने को तैयार नहीं था कि बिहार में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को बड़ी चुनौती मिल भी सकती है। अचानक फिजा बदली और तेजस्वी यादव कुछ इस तरह उभरे कि हर दिन आगे बढ़ते गए। बिहार चुनावों का नैरेटिव बदलता दिखा। अंतिम नतीजे जो भी रहे, परसेप्शन में तेजस्वी बहुत आगे जा चुके थे। तेजस्वी आज भी मजबूत प्रतिपक्ष बनकर खड़े हैं।
अक्तूबर, 2021: कोई नहीं मान रहा था कि यूपी में बीजेपी के सामने कोई बड़ी चुनौती भी है। लखनऊवा बोलचाल में यह बीजेपी के लिए हलुआ था। साल खत्म होते-होते छोटे दलों के साथ गठबंधन, फिर अपनी यात्राओं से अखिलेश यादव नैरेटिव बदलते दिखे। किसान आंदोलन से मिली जमीन पर आरएलडी के जयंत चौधरी संग बने गठजोड़ ने बहुत कुछ बदल दिया। यह बीते साढ़े तीन दशक में यूपी की राजनीति के नए दौर की शुरुआत का संकेत था।
अब माना जाने लगा है कि 2014, 2017 और 2019 में तेज दौड़े बीजेपी के विजय रथ की रफ्तार यूपी थाम चुका है। अंतिम नतीजे जो भी हों, नरेंद्र मोदी की बीजेपी पहली बार बैकफुट पर नजर आई है। शुरुआती तीन-चार चरण के बाद यह प्रधानमंत्री मोदी की बदलती देहभाषा में दिखा और फिर आम कार्यकर्ता के मंद पड़ते उत्साह के रूप में। इसके उलट, मुकाबिल खड़े अखिलेश अक्सर मोदी की हर बात पर मुस्कुराकर टिप्पणी करते या जवाब में कोई ऐसा मुद्दा उछालते दिखे जो कार्यकर्ता के साथ-साथ जनता को भी सीधे संबोधित कर रहा था। किसान के बाद रोजगार, पेंशन और बिजली बिल इसी तरह जनता तक पहुंचे और लंबे समय से शिथिल कार्यकर्ता उत्साह से भरता गया। प्रतीक रूप में देखें तो मतदान के दिन लखनऊ-अयोध्या इसकी बड़ी नजीर बने।
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यह सब कैसे? करहल कस्बे के मुख्य चौराहे पर खड़े शिव कुमार यादव की बात कि ‘अखिलेश में युवा अपनी उम्मीद देख रहा और कर्मचारी भविष्य’ को दरकिनार कर दें कि करहल तो उनका गढ़ ही है लेकिन मतदान के दिन लखनऊ की मतदाता हुसैन कैसर और पास खड़ी रीता शुक्ला कीबात दरकिनार करने का कोई कारण नहीं। कैसर ने कहा, ‘बीजेपी हर दिन हमें डरा रही है। ऐसे में हम किस पर भरोसा करें?’ 27 साल की रीता बोलीं, ‘बीजेपी ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया और हमने तलाशा तो जमीन कहीं और मिली। वर्तमान अतीत पर हमेशा भारी पड़ता है और यही इस दौर का सच है।’ रीता की बात के समर्थन में कैसर और वहीं खड़े युवा राकेश ने भी हामी भरी। उन्होंने कहा, ‘इस डराने ने ही हमारा डर निकाल दिया। इसके लिए हम खासतौर से मोदी जी और योगी जी के शुक्रगुजार हैं।’
अखिलेश-जयंत की जोड़ी ने बीजेपी के लिए मुश्किलें इस तरह बिछाई कि रणभूमि में जिस छोर से चुनावी संग्राम की शुरुआत होनी थी, वह छोर ही बीजेपी के लिए दुर्गम बन गया। असर आगे भी पड़ा और विपक्ष की शेष राह स्वतः आसान होती दिखी। नेताओं की देहभाषा बताने लगी कि बीजेपी -जैसी ‘महाप्रतापी पार्टी’ की नींद हराम हो चुकी है। सारे नुस्खे आजमा लेने के बाद जब बहराइच की जनसभा में यूक्रेन की चर्चा वोट के लिए आ जाए तो निहितार्थ भी समझे जा सकते हैं, बदहवासी का स्तर भी। तौर-तरीके देखें तो यह राजनीति की प्रचलित परिभाषा बदलने का भी चुनाव होने जा रहा है। पीडब्ल्यूडी में कार्यरत राजीव सिंह कहते हैं, ‘बीजेपी या मोदी-शाह की सेना 2014 के बाद जिस तरह अपना नैरेटिव गढ़कर सबको नचाने की अभ्यस्त हो गई थी, उस पर इस चुनाव ने पूर्ण न सही, अल्पविराम तो लगा ही दिया है।’
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एक उदाहरण, अक्तूबर, 2020 में हाथरस बलात्कार कांड के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान आरएलडी नेता जयंत चौधरी पर हुए लाठीचार्ज को किसान आंदोलन और चुनाव प्रचार के दौरान याद दिलाया जाता रहा। योगी आदित्यनाथ पश्चिम यूपी में प्रचार के दौरान ‘गर्मी निकालने’ की बात कह तो अखिलेश के लिए रहे थे लेकिन जयंत ने इसे जिस तरह जाटों के गर्म खून और उनकी ‘गरम मिजाजी’ से जोड़ लिया, वह इस इलाके में बड़ा काम कर गया।
शायद सपा का नया नारा भी इस बदलती इबारत के साथ ही पढ़े जाने की जरूरत है। कहना न होगा कि एक साल पहले अखिलेश ने ‘नई हवा है/नई सपा है” या “बुजुर्गों का हाथ/सपा के साथ’ जैसे नारे दिए, तब उन्हें हल्के में लिया गया था। यह वह समय था जब साढ़े तीन दशक पुरानी पार्टी उस द्वंद्व से बाहर निकल रही थी जो उसके ऊपर तोहमत की तरह जड़ दिया गया था। अखिलेश ने उसे दूर किया और दिखाया कि नेतृत्व तो युवा हाथों में है ही, पिता भी साथ हैं और चाचा भी। इतना ही नहीं हुआ। गठबंधन की जिस राजनीति को बीजेपी ने 2014 में नया आयाम दिया था, उसी को इस बार अपने लिए मॉडल बनाकर उससे भी बड़ी लकीर खींचने में सफल रहे अखिलेश।
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राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस मानते हैं कि ‘बीजेपी ने अपनी रणनीति से पिछले चुनावों में जिस तरह वोट बंटवाने में सफलता हासिल की थी, अखिलेश ने गैर यादव ओबीसी को ऐसा साधा कि न सिर्फ ओबीसी साथ आए बल्कि यह संदेश भी गया कि किसी भी इलाके में कोई भी नेतृत्व करे, उसे सबका साथ मिले। यादवों को ‘उनका’ तो ‘उनको’ यादवों का साथ मिला।’
मीडिया से जुड़े लेकिन खमोशी से अपना काम करने वाले प्रदीप यादव कहते हैं, ‘संगठन स्तर पर जब भी बात होती, यही सुनने में आता- अखिलेश तो कहीं निकलते ही नहीं। लेकिन यह आधा सच है और गढ़ा हुआ भी या वैसा ही नैरेटिव जो बीजेपी का तंत्र किसी के लिए भी बनाने में माहिर है। वरना जब कोविड काल था उस वक्त जमीन पर भले कुछ न दिख रहा हो, जिलों-जिलों में समाजवादी प्रशिक्षण शिविर चल रहे थे और अखिलेश ऑडियो-विजुअल माध्यम से इससे जुड़ रहे थे। यह पंचायत चुनाव से पहले की बात है जिसका असर उन चुनावों पर दिखा और पार्टी भी जमीन पर खड़ी हुई।’
बीजेपी को ‘क्लीयरकट एज’ दे चुका मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक पहली बार उस वक्त चौंके जब अखिलेश की यात्राओं में भारी भीड़ की तस्वीरें और वीडियो अचानक वायरल होने लगे। यह माहौल बनाने की उस रणनीति का नतीजा था जो प्रशिक्षण शिविरों से शुरू हुआ, पंचायत चुनाव ने जिसमें जान फूंकी और यात्राओं के दौरान यह कार्यकर्ताओं के जुनून में दिखा।
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भूलना नहीं चाहिए कि चुनाव से पहले 2021 में और कोविड-2 के बाद समर्थक दलों/जातीय क्षत्रपों की जो यात्राएं निकली थीं, उनका नेतृत्व केशव देव मौर्य (महान दल), संजय चौहान (जनवादी पार्टी-सोशलिस्ट), इंद्रजीत सरोज और नरेश उत्तम पटेल-जैसे गैर यादव ओबीसी नेता कर रहे थे और इनकी इन यात्राओं का जगह-जगह यादव नेता और समाज ढोल-नगाड़े से स्वागत कर रहा था। यह चुनावों की जमीन सजने के 6-8 माह पहले से चल रहा था जिसे तब नहीं महसूस किया गया। अब तो बीजेपी के लोग भी मानते हैं कि उस सक्रियता को समझने में चूक हुई।
यूपी में अब भी अगर बसपा जीत के पैमाने पर मजबूती से नहीं दिख रही तो उसका कारण भी कहीं-न-कहीं उसी रणनीति, जातीय गुणा-गणित में छुपा है। अब यह भी अनायास तो नहीं हुआ होगा कि जो बसपा पिछले चुनाव में गठबंधन साथी के तौर पर थी, यह कैसे हुआ कि उसके कद्दावर नेता भी सपा में शामिल हो गए और बहनजी को पता ही नहीं चला। इससे बसपा कैडर में भी गलत संदेश गया।
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विपक्ष आज बेहतर स्थिति में है, तो उसकी वजह यह है कि उसने जनता से जुड़े मुद्दे किसी नारे की तरह नहीं उठाए। उसने जनता को याद दिलाया कि उसके मुद्दे क्या हैं जिन्हें बीजेपी किनारे कर रही है। आवारा पशु, बेरोजगारी, पुलिस का दोरंगा व्यवहार, कोरोना के दौरान प्रशासन की अकर्मण्यता, जातियों और धर्मों के नाम पर लड़ाई-वैमनस्ता- ये ऐसे मुद्दे हैं जो जनता के मन में थे, पर उन्हें आवाज नहीं मिल रही थी। एक मित्र की यह बात अतिरंजित भले लगे लेकिन महत्वपूर्ण है कि अपने को विश्व की सबसे बड़ी पार्टी और इन दिनों सबसे ‘दबंग’ के रूप में उभरी पार्टी को अगर आज सीधी चुनौती मिल रही है, तो इसे अंडरलाइन तो किया ही जाना चाहिए। यह बेरोजगार युवा, ठगे हुए किसान ही नहीं, आम आदमी की नाउम्मीदी से उपजी उम्मीदों की उठान भी है।’
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