सवाल है कि 'भारत जोड़ो यात्रा’ से कांग्रेस को कुछ मजबूती जरूर मिली है। लेकिन इस सकारात्मक घटनाक्रम की बुनियाद पर वह एक बुलंद इमारत कैसे बना सकती है?
तो, कहा जा सकता है कि अभी इस बात पर बहस का सिलसिला चल ही रहा है कि राजनीतिक और चुनावी लाभ के नजरिये से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कितनी सफल रही, फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह यात्रा कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को उजागर करने में सफल रही। क्षेत्रीय मुद्दों, केंद्र-राज्य संबंधों की दयनीय स्थिति और इनके संभावित समाधान पर विमर्श खड़ा करने के लिए अब राज्यों में भी इसी तरह की यात्राओं की जरूरत है। वे गैर-राजनीतिक हो सकती हैं और राजनीतिक भी। यह पहल सर्वदलीय हो सकती है और एकदलीय भी। लाभ के इस माहौल का फायदा उठाने के लिए हर राज्य में एक व्यवहार्य चुनावी गठबंधन भी जरूरी होगा।
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पार्टी का भला चाहने वाले तमाम आलोचक कहते हैं कि पार्टी में संगठन के स्तर पर नई जान फूंकने की जरूरत है। यह कैसे हो?
तो इस बारे में हम कह सकते हैं कि कांग्रेस पर अकसर नौकरशाही की तरह काम करने के आरोप लगते हैं। सत्ता में हों या बाहर, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि शीर्ष नेतृत्व तक पहुंच पार्टी कार्यकर्ताओं और शुभचिंतकों के लिए एक समस्या ही है। कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, सामाजिक रूप से प्रभावी लोगों और समूहों के साथ सीधा और नियमित संपर्क स्थापित करना महत्वपूर्ण है। हो सकता है कि पार्टी का भला चाहने वाले ज्यादातर लोग चुनावी राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते हों लेकिन संभव है कि वे अपनी बातों को सामने रखना चाहें या सामाजिक लामबंदी में भाग लेना चाहें या फिर अन्य सार्थक तरीकों से योगदान करने में इच्छुक हों। संगठन को ऐसे विचारों के लिए जगह बनानी चाहिए।
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2024 के आम चुनावों के लिए विपक्ष एकजुट हो रहा है? तो क्या कांग्रेस ऐसी विपक्षी एकजुटता के केन्द्र में हो सकती है?
बिल्कुल, फौरी जरूरत कांग्रेस को मजबूत करने और उसे ऐसी स्थिति में लाने की है जहां वह लोगों को विश्वास दिला सके कि वह अपने दम पर 150-175 लोकसभा सीटें जीत सकती है। विपक्ष को इस बारे में भरोसा दिलाए बिना उनसे कांग्रेस को विपक्षी एकता के आधार के रूप में स्वीकार करने की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
मसला यह भी है कि बीजेपी के विभाजनकारी एजेंडे का कांग्रेस कैसे मुकाबले करे?
दरअसल बीजेपी एक चुनावी मशीन है जिसे आरएसएस की वैचारिक और सांस्कृतिक एकजुटता से ताकत मिलती है। आरएसएस से जुड़े संगठनों का आबादी के बड़े हिस्से पर गहरा प्रभाव है। यही वजह है कि इसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई को अकेले लड़ना आसान नहीं। यह ऐसी लड़ाई है जिसे कई मोर्चों पर लड़ा जाना चाहिए- सांस्कृतिक रूप से भी और नीतिगत स्तर पर भी। थिंक टैंक और संस्थानों को भी इस लड़ाई में शामिल किया जाना चाहिए। आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा का विरोध करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं से जुड़ते समय नेताओं को अपने अहं को किनारे रख देना चाहिए।
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यह तर्क भी हैं कि क्या कल्याणवादी होने के साथ-साथ महत्वाकांक्षी होना संभव है? देश के लिए कांग्रेस का वैकल्पिक एजेंडा क्या होना चाहिए?
इस बारे में कहा जा सकता है कि देश के लिए कांग्रेस के वैकल्पिक एजेंडे की धुरी आर्थिक कल्याणवाद, छोटे और मध्यम व्यवसायों के पुनरुद्धार, कृषि के आधुनिकीकरण के अलावा मजबूत और नवीन सांस्कृतिक हस्तक्षेप पर टिकी होनी चाहिए।
(अशोक कुमार पांडे इतिहासकार हैं। सावरकर और कश्मीर पर उनकी किताबें चर्चित रही हैं।)
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