विचार

मुहावरा भर नहीं है ‘काम और जीवन का संतुलन’ साधना, जहरीली हो चुकी कार्य संस्कृति पर विचार करना ही होगा

अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में आपसे एक दिन में 10 घंटे या उससे ज्यादा देर तक कंप्यूटर पर काम करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह गलत धारणा है कि हमारे लोग बढ़िया काम कर रहे हैं; हम वैसे काम कर रहे हैं जो इन देशों के लोग नहीं करेंगे।

मुहावरा भर नहीं है ‘काम और जीवन का संतुलन’ साधना
मुहावरा भर नहीं है ‘काम और जीवन का संतुलन’ साधना फोटोः सोशल मीडिया

मेरी पत्नी का भाई कनाडा में बस गया था। उस दौर में कनाडा फटे-पुराने कपड़े पहने लोगों का स्वागत नहीं करता था। हम उससे मिलने गए तो वह बड़े उत्साह के साथ अपनी नई मर्सिडीज एसयूवी से हमें टोरंटो ले गया। इस तरह हमने टोरंटो देखा। ऐसे ही उसने हमें राजधानी ओटावा और क्यूबेक भी घुमाया जहां लोग फ्रेंच बोलते हैं।

एक दिन वह हमें ऐसी जगह ले गया जिसके बारे में हमें पहले से नहीं पता था। हम अर्न्स्ट एंड यंग (ईवाई) बिल्डिंग के सामने थे और वह चाहता था कि मैं बिल्डिंग के साथ उसकी तस्वीर खींचूं। उसने बड़े गर्व के साथ बताया कि उसने कुछ समय के लिए वहां काम किया था। मुझे पता था कि यह दुनिया की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से एक है जो कई देशों में काम करती है। मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन्होंने अपना कॅरियर यहीं से शुरू किया था लेकिन जल्द ही उसे छोड़कर दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली थी।

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ऐसे ही लोगों में से एक अब फेडरल बैंक में वरिष्ठ पद पर है। दूसरा नौकरी छोड़ने के बाद तय नहीं कर पा रहा है कि क्या करे। तीसरे ने सिविल सेवा परीक्षा दी और अब वह राजनयिक है। मुझे अपने एक दोस्त के बेटे का भी जिक्र करना चाहिए जो चार्टर्ड अकाउंटेंट है और अब दुबई स्थित कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट है। 

मैंने इन लोगों में से किसी से कभी नहीं पूछा कि उन्होंने नौकरी क्यों छोड़ी। लेकिन एक रिश्तेदार ने मुझे वहां काम करने की कठिन परिस्थितियों के बारे में बताया। इन सबसे शायद यह समझना आसान हो कि आखिर ईवाई में मेरी दिलचस्पी क्यों है। क्या आप सोच रहे हैं कि मैं ईवाई के बारे में यह सब क्यों लिख रहा हूं? इसकी वजह है मुंबई के फ्री प्रेस जर्नल की एक हेडलाइन। मैं इस जर्नल को रोज पढ़ता हूं।

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हेडलाइन अपनी ओर खींचने वाली थी लेकिन कहानी दर्दनाक थी: ‘दि किलिंग शेड्यूल ऑफ ए सीए, यंग एंड अर्नेस्ट’। एक बेहतरीन हेडलाइन चंद शब्दों में ही पूरी कहानी कह देती है जैसे, ‘मैन ऑन मून’। मुझे लगता है कि यह हेडलाइन पुणे से फाइल की गई उस रिपोर्ट का सार बयां कर रही थी। यह रिपोर्ट इसी साल मार्च में ईवाई के पुणे कार्यालय में ज्वाइन करने वाली एक युवा चार्टर्ड अकाउंटेंट की मर्मांतक कहानी के बारे में थी। वह काम के कठिन शेड्यूल के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाती है और चार महीने के भीतर ही अत्यधिक तनाव के कारण उसकी मौत हो जाती है जबकि ईसीजी के मुताबिक उसका हृदय बिल्कुल दुरुस्त था।

मैंने इस घटना के संदर्भ में एक डॉक्टर से बात की। उन्होंने बताया कि मनुष्य का शरीर हमेशा अनुमान के अनुसार व्यवहार नहीं करता। अलग-अलग लोगों में दर्द की सीमा अलग-अलग होती है। कुछ लोग सुई की चुभन को बर्दाश्त नहीं कर पाते जबकि कुछ प्रसव पीड़ा को भी झेल लेते हैं। इसी तरह तनाव हार्मोन अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करते हैं।

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फ्री प्रेस जर्नल की रिपोर्ट ऐना सेबेस्टियन पेरायिल की मां अनीता ऑगस्टीन द्वारा ईवाई इंडिया के चेयरमैन राजीव मेमानी को लिखे पत्र पर आधारित थी। रिपोर्ट पढ़ने के बाद मुझे उनका पूरा पत्र वाट्सएप पर मिला। इसे पढ़कर आंखों में आंसू आ गए। केरल में सीरियाई ईसाई आपस में बड़े जुड़े होते हैं और जल्द ही मुझे खयाल आया कि अनीता ऑगस्टीन तो मेरे दोस्त की दोस्त हैं! मेरे दोस्त ऐना को बचपन से जानते थे। ऐना चुलबुली प्यारी सी बच्ची थी जिसे माता-पिता और रिश्तेदार बहुत प्यार करते थे। वह स्कूल में अव्वल आती और पहले प्रयास में ही सीए की परीक्षा पास की थी। 

अनीता के पत्र में काम करने की मुश्किल स्थितियों का जिक्र किया गया था। ऐना घर आती तो इतनी थकी हुई होती कि बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर गिर पड़ती। उसका सुपरवाइजर उसे काम पूरे करने के असंभव डेडलाइन दिया करता था। एक बार तो उसे पूरी रात काम करके अगली सुबह तक असाइनमेंट पूरा करने को कहा गया। यहां तक कि सीए ग्रैजुएशन डे पर भी उसे ऑफिस के कुछ काम पूरे करने थे।

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पहले से उलट, जब लोग सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक काम किया करते थे, अब कंपनियां कर्मचारियों से निर्धारित घंटों तक ही काम करने की अपेक्षा नहीं करतीं। इसके बजाय प्रत्येक व्यक्ति को रोज के असाइनमेंट दिए जाते हैं- चाहे उसमें दिन में 10-20, कितने भी घंटे क्यों न लगें!  

ज्यादातर काम अलग-अलग टीमें करती हैं जिनका नेतृत्व एक सुपरवाइजर करता है। समय-समय पर होने वाली मूल्यांकन बैठकें डराने वाली होती हैं और ऐसे दबाव को झेलना हर किसी के बूते नहीं होता, इसलिए लोग छोड़ जाते हैं। मेरे एक मित्र, जॉन सैमुअल ने फेसबुक पर पोस्ट किया कि कैसे इस तरह के शिड्यूल कर्मचारियों पर भारी पड़ते हैं। अक्सर लोग अपने परिवार के साथ समय नहीं बिता पाते। अगर पति-पत्नी दोनों ऐसे ही माहौल में काम करते हैं तो उनकी स्थिति बेहद दयनीय हो जाती है। बल्कि उनका जीवन ही दयनीय हो जाता है क्योंकि वे नौकरी छोड़ने की स्थिति में नहीं होते। वे ईएमआई के गुलाम बन चुके होते हैं। उन्हें कार, फ्लैट या विदेश में छुट्टी मनाने के लिए पैसे ईएमआई में चुकाने होते हैं।

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जब मैंने चंडीगढ़ में ‘द ट्रिब्यून’ ज्वाइन किया तो मुझे लगभग एक दर्जन कमरों वाला बंगला मिला जिसमें लॉन, फलदार पेड़ और सब्जियां उगाने के लिए जमीन का एक छोटा सा प्लॉट था। साथ ही काम करने वाले एल.एच. नकवी ने मुझे आगाह किया: ‘ट्रिब्यून’ के घर ‘ताबूत’ की तरह हैं जिनसे कोई बच नहीं सकता। वह यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वह ‘निर्जीव’ चंडीगढ़ में क्यों रह रहे हैं जहां कंपनी ने उन्हें एक शानदार फ्लैट दिया हुआ था।

इन एमएनसी में काम करने वालों के साथ भी ऐसा ही है और उनका ‘बर्नआउट’ हो जाना, यानी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से थककर चूर-चूर हो जाना आम बात है। अगर आप ऐसी स्थिति से गुजर रहे हों तो आपके लिए उन गतिविधियों में शामिल होना मुश्किल होगा जिन्हें सामान्य स्थितियों में आप सार्थक मानते हैं। हो सकता है कि आप उन चीजों की परवाह करने की स्थिति में ही न हों जो आपके लिए अहम हैं या आप निराशा की गहराइयों में बरबस उतरते चले जाएं। 

ऐना सेबेस्टियन पेरायिल के मामले में ईवाई को ज्वाइन करने के कुछ ही महीनों के भीतर ‘बर्नआउट’ की स्थिति आ गई। वह अब अपनी व्यक्तिगत जरूरतों पर ध्यान नहीं दे पा रही थी। आखिर इस तरह की स्थिति क्यों आती है? हम भारतीय इंफोसिस, टाटा संस और विप्रो जैसी कंपनियों पर गर्व करते हैं जिन्हें अरबों डॉलर के अनुबंध मिलते हैं। ये अनुबंध अमेरिका, यूरोप और कनाडा की दिग्गज बहुराष्ट्रीय कंपनियों से आते हैं।

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एक बार मैं एक अमेरिकी बैंक के कार्यालय में गया और उसकी एक मंजिल पर कार्यालय के सभी कर्मचारियों को एक साथ संबोधित किया। मुझे हैरानी हुई कि महानगरों की गिनती की शाखाओं को संभालने के लिए बैंक को कितने सारे कर्मचारियों की जरूरत पड़ती है! तब मुझे एहसास हुआ कि गुड़गांव स्थित कार्यालय वैश्विक स्तर पर बैंक की जरूरतों को क्यों पूरा करता है जिसमें अमेरिका भी शामिल है जहां बैंक का कॉरपोरेट कार्यालय है। साफ है, बैंक को अमेरिका की तुलना में भारत में लोगों को हायर करना सस्ता लगा होगा।

मैंने ऑनलाइन जांच की तो पाया कि ईवाई में एंट्री लेवल पर एक व्यक्ति को 6 ​​लाख रुपये सालाना, यानी 50,000 रुपये प्रति माह मिलता है। मान लीजिए कि ईवाई एक एंट्री-लेवल सीए को 1 लाख रुपये प्रति माह देती है। अगर कंपनी अमेरिका में इसी तरह के काबिल व्यक्ति को नियुक्त करती है तो उसे 5,000-10,000 डॉलर प्रति माह या उससे अधिक का ही भुगतान करना होगा। भारतीय रुपये में यह राशि 4.5-10 लाख रुपये होती है।

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इसके अलावा अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में आपसे एक दिन में 10 घंटे या उससे ज्यादा देर तक कंप्यूटर पर काम करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह गलत धारणा है कि हमारे लोग बढ़िया काम कर रहे हैं; हम वैसे काम कर रहे हैं जो इन देशों के लोग नहीं करेंगे। यही हाल भारत की ज्यादातर आईटी कंपनियों का है। 

ऐना की मां के मुताबिक, ईवाई की उदासीनता चौंकाने वाली है: कंपनी का एक भी व्यक्ति उनकी बेटी की मौत पर शोक जताने या परिवार से मिलने नहीं आया- न तो उसकी मृत्यु होने पर, न ही उसके बाद। कंपनी के लिए, शायद ऐना सेबेस्टियन पेरायिल दुनिया भर में कंपनी के पेरोल पर काम करने वाले 370,000 लोगों में से सिर्फ एक थी! जरा देखिए, हमारे उद्योग के दिग्गजों का इस बारे में क्या कहना है? कुछ ही समय पहले इंफोसिस के संस्थापक एन.आर. नारायण मूर्ति को सप्ताह में 70 घंटे काम करने की वकालत करते सुना गया था!

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