वैश्विक स्तर पर इंटरनेशनल वीमेन्स मीडिया फाउंडेशन (वाशिंगटन डीसी) और इंटरनेशलन न्यूज सेफ्टी इंस्टीट्यूट (लंदन) ने दुनिया भर की 822 महिला पत्रकारों के बीच किए गए एक सर्वे का नतीजा पेश किया है। इसमें 64 प्रतिशत महिलाओं ने अपने खिलाफ बुरे व्यवहार और धमकी की बात कही। इस सर्वे के कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैं:
सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं का सबसे ज्यादा शोषण बॉस (28.57 फीसदी), सुपरवाइजर (13.66 फीसदी), सहकर्मी (12.04 फीसदी), साक्षात्कारकर्ता (7.23 फीसदी) और अन्य (27.69 फीसदी) करते हैं।
सर्वे में शामिल 46 फीसदी से ज्यादा महिला पत्रकारों ने स्वीकार किया कि उनका यौन उत्पीड़न होता है। इनमें से आधे से ज्यादा महिलाओं का शोषण उनके कार्यस्थल पर ही हुआ।
इसके अलावा उत्पीड़ने करने वालों में सहकर्मी, इंटरव्यू लेने वाले और बॉस सब शामिल हैं। यही नहीं कई सारी महिला पत्रकारों ने फोन टैप करने (22.46 फीसदी), उन पर नजर रखने (22 फीसदी). डिजिटल या ऑनलाइन निगरानी रखने (21.72 फीसदी) और ई-मेल अन्य डिजिटल अकाउंट चेक करने (21.85 फीसदी) की शिकायत भी की।
भारत में #MeToo के जरिये अंग्रेजी की कई महिला पत्रकारों ने अपने खिलाफ यौन उत्पीड़न की दास्तां बयां की है। लेकिन, भारतीय भाषाओं के मीडिया संस्थान और सरकारी मीडिया संस्थान भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। भारतीय भाषाओं में काम करने वाली महिलाएं जिन सामाजिक और सांस्कृतिक आधार से आती है उसमें ”बर्दाश्त ” करने की शिक्षा को महिलाओं में जबरन ठूंसा जाता है। लिहाजा अपने खिलाफ उत्पीड़न के ब्यौरे देने के बजाय़ वह सार्वजनिक तौर पर उसका विरोध साहित्य के विविध रुपों के जरिये करती आ रही है।
हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं ने जब मीडिया पर केंद्रित अपने अंक निकालें तो उनमें कहानियों, कविताओं और संस्मरणों में मीडिया संस्थानों के भीतर महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न की सिसकियां सुनाई देती है।
2009 में साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के मीडिया विशेषांक में शैफाली गुप्ता की एफआईआर छपी है। एक दैनिक में काम करने वाली नई पीढ़ी की पत्रकार रीतिका की डायरी में रोज ब रोज विभिन्न स्तरों यानी भाषा, शब्दों, इशारों, दिव्अर्थी संवादों, चाल ढाल, नजरों यानी बेहद सुक्ष्म स्तर पर होने वाले यौन उत्पीड़न की डायरी है। अंजना बख्शी का संस्मरण महिलाओं के मीडिया में नौकरी के लिए संघर्ष और खासतौर से विवाहित और मां बन चुकी महिलाओं के संघर्ष का दस्तावेज है। इसी तरह हंस के मीडिया अंक में भी कई कहानियां रोंगटे खड़ी कर देती है।
सरकारी संस्थानों में भी यौन उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर पुरुषवादी एकता बेहद सक्रिय दिखती है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मॉनिटरिंग सेंटर (ईएमएमसी) में मॉनिटर के रूप में कार्यरत एक लड़की संघलता ने अपने पुरुष सहकर्मी पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए तो इन आयोगों ने तत्परता से कोई कार्रवाई नहीं की। आरोप लगाने वाली उस लड़की को उस सेंटर की निदेशक जो कि खुद महिला हैं, ने कई तरह से प्रताड़ित किया और चेतावनी दी। घटना के बाद वहां विशाखा गाइडलाइंस के तहत शिकायत प्रकोष्ठ बनाया गया, जिसने इस लड़की का पक्ष सुने बिना आरोपी को मात्र चेतावनी देते हुए शिकायत को रफा-दफा कर दिया। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री के साथ ही महिला आयोग, अनुसूचित जाति आयोग ने भी इस विभागीय कार्रवाई मात्र को स्वीकार कर उसकी फाइल एक तरह से बंद कर दी।
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विशाखा गाइडलाइन महिला कर्मचारियों को सुरक्षा प्रदान करने के मकसद से है लेकिन केवल उसे लागू करने मात्र से महिला कर्मचारियों को सुरक्षा नहीं मिल सकती।
चौदहवीं लोकसभा द्वारा गठित ‘महिलाओं को शक्तियां प्रदान करने संबंधी समिति’ ने ‘प्रसार भारती में महिलाओं के काम की परिस्थितियों’ पर अपनी रिपोर्ट में आश्चर्य व्यक्त किया था कि आकाशवाणी और दूरदर्शन में बड़ी संख्या में कैजुअल आधार पर महिलाएं काम कर रही हैं और दूरदर्शन में यौन उत्पीड़न की केवल एक और आकाशवाणी में छह शिकायतें दर्ज की गईं। इसके बाद ही तय किया गया था कि शिकायतों के निवारण के प्रावधानों को बार-बार परिपत्रों के माध्यम से सभी महिला कर्मचारियों के ध्यान में लाया जाए।
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