चार साल पहले तक केंद्र सरकार, “तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था” जुमले का खूब इस्तेमाल करती थी। प्रधानमंत्री अकसर इसके लिए “वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक चमकते सितारे” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते थे। लेकिन नवंबर 2016 में उन्होंने नोटबंदी वाला भाषण देने के बाद से इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है।
इसके बाद से हमने सरकार में किसी से नहीं सुना कि भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और चमका सितारा है। असल में अर्थव्यवस्था के बारे में ज्यादा बात ही नहीं होती और बीते चार साल में तो यह काफी कम हुआ है। जब भी लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में है तो सरकार एक लंबी खामोशी अख्तियार कर लेती है। और अब तो साफ हो चुका है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बरबाद हो चुकी है, और हमने इसके बारे में बात करना एकदम बंद कर दिया है। जाहिर है कि अगर सरकार किसी विषय में बात नहीं कर रही है तो इसका यह अर्थ तो नहीं हो सकता कि समस्या खत्म हो गई है या है ही नहीं। समस्या तो मौजूद है और हमें समझना चाहिए कि आखिर भारत में हुआ क्या है।
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सरकारी आंकड़ों को ही देखें तो हमारी अर्थव्यवस्था में जनवरी 2018 से लगातार गिरावट आना शुरु हो चुकी थी। इसके बाद कुछ ऐसे कारणों से गिरावट का सिलसिला शुरु हुआ कि हम इससे उबर ही नहीं सके। इन कारणों के बारे में आज हमें अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है। 2018 और 2019 की चारों तिमाहियों और फिर 2020 की पहली तिमाही में गिरावट लगातार होती रही। और ये सब तो कोरोना महामारी के अगमन से पहले की बात है। और जब देश भर में लॉकडाउन लगाया तो हमारी अर्थव्यवस्था में वृद्धि पूरी तरह रुक गई।
सरकार हमें नहीं बताती कि आखिर अर्थव्यवस्था इस बुरी हालत में क्यों पहुंची। प्रधानमंत्री ने इस विषय पर बोलना ही पूरी तरह से बंद कर दिया है। अक्टूबर 2019 में द हिंदू अखबार ने प्रकला प्रभाकर का एक लेख प्रकाशित किया था। प्रकला प्रभाकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति हैं। अर्थव्यवस्था का आंकलन करते हुए उन्होंने लिखा था, “देश में आर्थिक मंदी को लेकर चौतरफा बेचैनी है। सरकार तो इसे मानने को तैयार नहीं है, लेकिन सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि हर सेक्टर में बहुत की गंभीर और चुनौतीपूर्ण स्थिति है। निजी उपभोग 18 महीने के निचले स्तर को छूते हुए 3.1 फीसदी पर पहुंच चुका है, ग्रामीण उपभोग ने गहरा गोता खाया है और शहरी मंदी के मुकाबले दो गुनी गिरावट पर है, माइक्रो और छोटे उद्योगों के लिए कर्ज की स्थिति स्थिर हो चुकी है, एक्सपोर्ट यानी निर्यात में कोई वृद्धि हो नही रही है, जीडीपी ग्रोथ 6 साल के निचले स्तर पर है और वित्त वर्ष 20 की पहली तिमाही में तो सिर्फ 5 फीसदी की वृद्धि हुई है और बेरोजगारी 45 वर्ष के अधिकतम स्तर पर है। फिर भी सरकार की तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं दिखती कि उसे इसकी परवाह है कि आखिर अर्थव्यवस्था को कौनसा घुन खाए जा रहा है। इस बात के कोई संकेत नहीं है कि सरकार के पास इन चुनौती का सामना करने या निपटने के लिए कोई रणनीतिक दृष्टि है भी या नहीं”
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यह सबकुछ 20 महीने पहले और महामारी से पहले की बात है। ये 2020 की मंदी और कोरोना की दूसरी लहर से पहले की भी बात है। मुझे इस सप्ताह एक बिजनेस अखबार का न्यूजलेटर मिला जिसमें बताया गया है कि कुछ सप्ताह पहले अप्रैल में खत्म हुए पिछले वित्त वर्ष में क्या स्थिति रही।
उपभोक्ता खर्च में 9 फीसदी की कमी हुई है निवेश 10 फीसदी से ज्यादा गिरा है। मैन्यूफैक्चरिंग, सर्विसेस और निर्माण क्षेत्र में करीब-करीब 8 फीसदी की गिरावट हुई है। पिछले वित्त वर्ष में जो कुछ हुआ उससे हम अतीत में चले गए हैं। हमारी अर्थव्यवस्था में सुस्ती आई, और फिर इसके बाद वृद्धि एकदम रुक गई और और फिर हम पीछे जाने लगे। बाकी दुनिया में वृद्धि जारी रही और हम पीछे रह गए। आखिर बांग्लादेश के आम नागरिक के मुकाबले भारत का आम नागरिक आज गरीब क्यों है, इस कारण खोजने के लिए बीते 48 महीनों को देखना होगा। अप्रैल 2021 तक मैन्यूफैक्चरिंग, ट्रेड, ट्रासंपोर्ट और कम्यूनिकेशन गिरकर 2018 के स्तर पर पहुंच चुका था। यानी ग्रोथ के तीन साल का सीधा सीधा नुकसान। इसी तरह कंस्ट्रक्शन में भी दो साल की ग्रोथ का नुकसान हुआ।
सीमेंट, रिफाइनरी, स्टील जैसे कोर उद्योगों का आउटपुट भी मार्च 2017 जैसा रहा। यानी इन क्षेत्रों में 4 साल की ग्रोथ थमी, जबकि बाकी दुनिया उत्पादन कर रही थी।
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कार सहित पैसेंजर वाहनों की बिक्री 2016 के स्तर पर पहुंच गई। यानी करीब 5 साल की ग्रोथ खत्म। और यह कोई विसंगति नहीं है। ऑटो सेक्टर तो कई सालों से दिक्कत में है और इससे पता चलता है कि मध्यवर्ग में कोई ग्रथ हो ही नहीं रही है। दो पहिया वाहनों की बिक्री भी आज उस स्तर पर है जो 10 साल पहले थी। ट्रक जैसे वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री भी उस स्तर पर है जब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे।
क्या ये कोई नए आंकड़े हैं जो मैं बता रहा हूं? नहीं, ये तो सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध आंकड़े हैं जो सबको पता हैं। और अगर कुछ लोगों को इस बारे में नहीं पता है तो इसका कारण है कि इनपर कभी ‘मन की बात’ में चर्चा नहीं की गई।
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जैसा कि पिछले साल एक इंटरव्यू में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि समस्या को नहीं मानोगे तो उसका हल निकालने की शुरुआत भी नहीं हो सकती। और यही कारण है कि हम समस्या का समाधान निकाल नहीं पा रहे हैं। आज जो देश का नेता है उसे क्या गर्व होगा यह बताने में कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर वह नाकाम रहा। उसकी कैबिनेट के चमचों में तो ऐसा कहने का साहस ही नहीं है। उसके वित्तमंत्री के पति देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबारों में से एक में लेख लिखकर बताएंगे कि क्या हालात हैं, तभी दुनिया को पता चलेगा कि हम डूब चुके हैं।
देश में बढ़ती गरीबी और भरभराकर ढह चुकी अर्थव्यवस्था ऐसे समय में हो रही है जब देश की सारी दौलत चंद लोगों के पास जमा हो रही है। आज एशिया के दो सबसे अमीर लोग चीन से नहीं हैं, जिसकी अर्थव्यवस्था हमसे 6 गुना ज्यादा बड़ी है। ये दोनों गुजराती हैं और ग्रोथ इन इंडिया के मॉडल हैं।
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