डॉ बी आर आंबेडकर ने 1948 में जब हिंदू कोड हिल पेश किया तो इसके कुछ मुद्दे यह थे। विरासत या उत्तराधिकार: हिंदू विरासत कानून के पीछे दो परंपराएं थीं, मिताक्षरा और दयाभाग।
मिताक्षरा के मुताबिक, किसी हिंदू पुरुष की संपत्ति उसकी अपनी नहीं होती। इस पर संयुक्त रूप से पिता, पुत्र, पोते और पड़पोते का हक होता है। इन चारों का संपत्ति पर जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इनमें से किसी भी एक की मृत्यु होने पर वह अपना हिस्सा अपने उत्तराधिकारी के लिए नहीं छोड़ सकता, बल्कि बाकी बचे तीन हकदारों के लिए छोड़ता है। यह कानून संयुक्त परिवारों की परंपराओं से निकला है, और इस पर अमल आमतौर पर जमीन की हिस्सेदारी के मामलों में होता है। जब परिवार एकल होते हैं तो संपत्ति का बंटवारा मुश्किल होता है क्योंकि संपत्ति पर संयुक्त अधिकार होता है और इन चारों में से कोई भी इसमें अपना हिस्सा मांग सकता है।
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दयाभाग के मुताबिक किसी हिंदू पुरुष की संपत्ति निजी तौर पर उसकी होती है और इसे किसी को देने या न देने का संपूर्ण अधिकारी उसी के पास होता है। यानी अगर पिता, या दादा या बेटा जीवित हैं तो उसकी मृत्यु के बाद स्वत: ऐसी संपत्ति उनके नाम नहीं हो जाती।
आंबेडकर दयाभाग को पूरे देश में लागू करना चाहते थे। इसके अलावा कुछ और बदलाव भी बाबा साहेब के मन में थे, जो कि परिवार की महिलाओं को संपत्ति में अधिकार देने के बारे में थे।
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पाठकों को यहां बताना जरूरी है कि यह बिल पास नहीं हो पाया था और आंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया था। इसके पास न होने के पीछे वजह थी संविधान सभा का कंजर्वेटिव होना। सभा के कई सदस्यों को आंबेडकर के इस प्रस्ताव से दिक्कत थी कि वे मिताक्षरा को खत्म कर दयाभाग को पूरे देश में लागू करना चाहते थे। दरअसल वे संपत्ति में महिलाओं की विरासत के हक के खिलाफ थे।
इन सदस्यों का तर्क था कि महिलाओं को तो पहले से दहेज पर अधिकार मिला हुआ है और शादी के बाद तो वे दूसरे परिवार की सदस्य हो जाती हैं, और उन्हें उस घर की संपत्ति इस्तेमाल करने का हक मिलता है, और सबसे बड़ी बात अगर महिलाओं को यह हक दिया गया तो जमीन के टुकड़े हो जाएंगे।
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हम भारतीय अगर आज भी इन बुनियादी बातों पर चर्चा कर रहे हैं तो कारण यह है कि 90 साल बाद हमने धार्मिक परंपराओं को ही कई मामलों में आधार बना रहा है। जब 1857 में ईस्ट कंपनी के बाद ब्रिटिश राजघराने द्वारा भारत का नियंत्रण लेने के समय ब्रिटेन बिल्कुल भी सुधारवादी नहीं था।
सर सैयद की एक किताब के मुताबिक ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत का एक कारण यह भी था कि भारतीयों को अंग्रेजों द्वारा उनकी परंपराओं में दखल मंजूर नहीं था। सती प्रथा 1829 में खत्म हो गई थी और धर्म परिवर्तन करने वालों के संपत्ति अधिकारों की रक्षा के लिए 1850 में कानून भी आ गया था।
इस दौर में गुलाम प्रथा के खिलाफ ब्रिटेन और अमेरिका में आंदोलन भी चल रहे थे और सत्ता में बैठे लोगों का मानना था कि उन्हें परंपराओं और संस्कृति में आधुनिक बदलाव करना चाहिए। 1857 में लाखों लोगों की जान लेने वाले हिंसक आंदोलन के बाद अंग्रेजों ने तय किया कि वे हिंदू और मुसलमानों को अपनी परंपराओं में खुद ही बदलाव करने की छूट दे दें। वे किसी भी ऐसे मामले में नहीं पड़ना चाहते थे जिनसे विवाद पैदा हो और इससे उनके शासन करने और देश की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण में कोई व्यवधान पड़े।
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देश में छुआछूत को कांग्रेस ने संविधान में अनुच्छेद 17 के जरिए खत्म किया। इससे पहले 1920 के दशक तक पूरे भारत में दलितों के मंदिरों में प्रवेश का हिंसक विरोध होता था। यही कट्टरता थी जिसकी वजह से आंबेडकर का विरासत कानून पास नहीं हो पाया। और इसका विरोध संविधान सभा ने किया था। इस संविधान सभा में बीजेपी का वजूद नहीं था।
पंडित नेहरू की सरकार में भी सीमित हिंदू मत जनसंघ के संस्थापक, जो सरकार में शामिल होने के लिए कांग्रेसी हो गए थे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ही उठाते थे। हमें ध्यान रखना होगा कि सांसदों की कट्टरता और विरोध के बावजूद कांग्रेस ने पारंपरिक सुधारों के कई बिल पास किए। इसका कारण सिर्फ यह था कि कांग्रेस पूरी तरह उदार नजरिए और सोच की पार्टी थी जिसकी अगुवाई पंडित नेहरू जैसे महान नेताओं ने की।
पूरे दक्षिण एशिया में अकेला भारत ऐसा था जिसका संविधान धर्म निरपेक्ष और उदार था। अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे इस्लामी देशों में तो किसी हिंदू को ऊंचे पद पर नौकरी तक नहीं मिल सकती थी। मालदीव भी एक इस्लामी देश है। श्रीलंका का संविधान बौद्ध धर्म को महत्व देता है, बांग्लादेश का संविधान बिस्मिल्लाह रहमाने रहीम से शुरु होता है। भूटान की सरकार और धर्म दोनों पर ही बौद्ध राजा का नियंत्रण होता है। 2008 तक नेपाल भी एक हिंदू राष्ट्र था, जिसके सारे नियंत्रण मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रिय राजा के पास थे।
सिर्फ भारत ही संवैधानिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष रहा। क्यों? इसका कारण यह है कि भारत हिंदू बहुल देश है। नेपाल भी हिंदू बहुल देश है। जब अंग्रेज़ यहां से अपना बोरिया बिस्तर समेट रहे थे तो किसी ने भारत से नहीं पूछा था कि संविधान में धार्मिक आधार को शामिल किया जाए या नहीं। यह सिर्फ कांग्रेस की सोच थी कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बने।
अब ऐसे वक्त में जब एक नई राजनीतिक शक्ति का प्रभाव देश पर है, तो देखना रोचक होगा कि हम नेहरू और कांग्रेस की विरासत को बचाए रख पाते हैं या फिर किसी नई दिशा की तरफ बढ़ते हैं।
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