चे ग्वेरा को एक आतंकी माना जाता था। वह एक डॉक्टर था जिसको दुनिया भर में लाखों लोग आज एक क्रांतिकारी के तौर पर आदर्श मानते हैं। 1959 में चे भारत आया था, उस वक्त उसकी उम्र 31 बरस थी। उसने दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मुलाकात की थी और उनके घर पर डिनर भी किया था। उसकी दो कृतियों को क्लाकिस माना जाता है। एक है द बोलिवियन डायरी और एक है द मोटरसाइकिल डायरी। इस पर 2004 में फिल्म बनी थी जिसे पुरस्कार मिला था।
लेकिन चे की प्रसिद्धि का कारण लक्ष्य प्राप्ति के लिए हिंसक रास्ता अपनाने की उसकी इच्छा थी। चे अर्जेंटीना का था, लेकिन उसने क्यूबा जाकर फिदेल कास्त्रो के साथ मिलकर तत्कालीन बतिस्ता सरकार के खिलाफ सिविल वॉर में हिस्सा लिया। उसके अपने लिखे के मुताबिक क्यूबा में उसने और उसके साथियों ने दर्जनों सैनिकों को घात लगाकर मार डाला। चे आखिरकार पकड़ा गया और अक्टूबर 1967 में 39 बरस की उम्र में सेना ने उसे फांसी दे दी।
जॉर्ज ऑर्वेल भी एक आतंकी था। बिहार के मोतिहारी में जन्मा जॉर्ज एक पुलिस अफसर था। सरकारी नौकरी के बाद उसने कई किताबें लिखीं, जिनकी वजह से उसे इतिहास में सबसे प्रभावशाली लेखक माना गया। उसकी लिखी किताबों में 1984 और एनिमल फार्म भी शामिल हैं। एनिमल फार्म का कई बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने करगिल युद्ध के दौरान जिक्र किया। सरकार ने पाकिस्तान के बारे में बात करते हुए इसे ऑर्वीलियन लॉजिक करार दिया था। आधुनिक दौर के बहुत से लेखक समय के साथ संदर्भहीन हो जाते हैं, लेकिन दशकों बाद भी जॉर्ज ऑर्वेल को लोग चाव से पढ़ते हैं।
ऑर्वेल को भी हिंसा का इस्तेमाल करने में कोई दिक्कत नहीं थी। वह एक ब्रिटिश नागरिक था, लेकिन उसने 1937 में स्पेन जाकर जनरल फ्रेंको को खिलाफ सिविल वॉर में हिस्सा लिया। ऑर्वेल ने होमेज टू कैटालोनिया शीर्षक से प्रकाशित किताब में अपने अनुभवों का जिक्र किया है। इसमें उसने कहा है कि उसने बम मारकर हत्या की और यह भी कि उसे गले में गोली लगी थी।
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अब मैं बताता हूं कि आखिर इन दो लोगों का जिक्र मैंने क्यों किया। अभी शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक संक्षिप्त भाषण दिया। जिसमें उन्होंने कहा, “संयुक्त राष्ट्र के शांति प्रयासों में अगर किसी देश ने सबसे ज्यादा सैनिकों की कुर्बानी दी है, तो वह भारत है। हम एक ऐसे देश से आते हैं जो युद्ध नहीं देता, बुद्ध देता है, शांति का संदेश देता है। इसी कारण से आतंकवाद के खिलाफ हमारी आवाज विश्व को इसके लिए आगाह करते हुए गंभीर नजर आती है। हमारा मानना है कि आतंकवाद किसी एक देश की समस्या नहीं है, बल्कि पूरे विश्व और मानवता के लिए चुनौती है।
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आंतकवाद पर हमारी समान विचारधारा न होने के कारण उन सिद्धांतों को चोट पहुंचती है जिनके आधार पर संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई ती। इसीलिए, सिर्फ मानवता के नाम पर, मेरा पूर्ण विश्वास है कि ऐसा करना बेहद जरूरी है, विश्व को आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होना होगा, और मिलकर इसके खिलाफ कदम उठाना होगा।“
प्रधानमंत्री सही कह रहे हैं। आतंकवाद के मुद्दे पर दुनिया में एका नहीं है। सवाल है कि क्यों? इसका जवाब है कि आतंकवाद की या आतंकवादी की कोई एक ऐसी परिभाषा नहीं है, जिस पर सब सहमत हों।
भारत में आतंकवाद के खिलाफ पहला कानून टाडा, कांग्रेस सरकार ने लागू किया था। सरकार ने कहा था, “जो कोई भी सरकार के खिलाफ कुछ करने या लोगों या समाज के किसी भी हिस्से में आतंक या भय फैलाने या कुछ ऐसा करने जिससे समाज के विभिन्न तबकों में सदभाव खत्म हो, या कोई बम, डायनामाइट या कोई और विस्फोटक या ज्वलनशील पदार्थ या जहरीला हथियार या गैस या कोई केमिकल इस्तेमाल करने की कोशिश करे जिससे लोगों की मौत होने या उन्हें चोट पहुंचने का खतरा हो या उन्हें चोट पहुंचे, या किसी की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचे या आम जनजीवन के लिए जरूरी आपूर्ति या सेवाओं में बाधा पड़े, उसे आतंकवादी गतिविधि माना जाएगा।”
यानी भारत का मानना है कि कोई भी गर बम या केमिकल हथियार का इस्तेमाल कर इस किस्म का अपराध करता है या किसी की संपत्ति या आपूर्ति को नुकसान या बाधा पहुंचाता है उसे आतंकवाद माना जाएगा।
इसके बाद बीजेपी सरकार ने नया कानून पोटा बनाया। इसकी व्याख्या में कहा गया कि देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा, संप्रभुता को खतरा पहुंचाने या लोगों या लोगों के एक समुदाय में भय या आतंक फैलाने वाले को आतंकवादी माना जाएगा।
आतंकवाद की इस किस्म की परिभाषा से ऐसा असमंजस पैदा हुआ जिसके चलते ऐसे मामलों में सजा दिए जाने का औसत बहुत ही कम है। टाडा के तहत एक फीसदी के करीब लोगों को सजा मिली, जबकि पोटा का औसत तो एक फीसदी से भी कम रहा। होना तो यह चाहिए था कि इस कानून की परिभाषा और व्याख्या अच्छे से होती, लेकिन हमारे देश में हमारे सांसद विधायक यही काम सबसे कम करते हैं।
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भारत में निहत्थे नागरिकों पर सशस्त्र व्यक्तियों द्वारा हमले को आतंकवाद माना जाता है। किसी बख्तरबंद सैन्य शिविर पर हथियारबंद हमले को आतंकवाद माना जाता है। लेकिन, हमला करने वाला कौन है, इस पर सबकुछ निर्भर करता है। अल्पसंख्यक समुदाय को आतंकित करने के लिए किए गए हमले में शामिल लोगों को दंगाई या लिंचर कहा जाता है। इसी किस्म का कृत्य अलग-अलग जगह और समुदायों के लिए अलग-अलग परिभाषित होता है। भारत भी इससे अछूता नहीं है।
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एक ही किस्म की दो घटनाओं में अगर कोई अकेला बंदूकधारी दर्जनों लोगों की जान ले ले तो अमेरिकी राष्ट्रपति उसे आतंकवादी करार देंगे, लेकिन दूसरी घटना में मानसिक रूप से विक्षिप्त कोई बंदूकधारी ऐसा ही करता है तो उसके धर्म के आधार पर उसे संज्ञा दी जाएगी।
भारत में जो परिभाषा दी जाती है, उसके हिसाब से चे और ऑर्वेल दोनों ही आतंकवादी थे। लेकिन अंग्रेज अफसरों की हत्या करने वाले और दिल्ली असेंबली में बम फेंकने वाले भगत सिंह को शहीद का दर्जा दिया जाएगा। अगर आतंकवाद और आतंकवादी की परिभाषा तय करने में विश्व ही एक नहीं है, तो इसमें भारत भी उतना ही भागीदार है।
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