ह्यूब्रिस, हमार्तिया और नासिसिज्म। ग्रीक के ये तीन शब्द आज के भारत को बड़े अच्छे से चित्रित करते हैं। ह्यूबिस का मतलब है ‘अत्यधिक आत्माभिमान, शेखी या अक्खड़पन’। हमार्तिया ग्रीक नाटकों में नायक की उस दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति को दर्शाता है जिसके कारण वह सौभाग्य से मिली उपलब्धियों को धूल-धूसरित कर सर्वनाश कर लेता है। नासिसिज्म का मतलब है अपने अहं का तुष्टीकरण जिसके तहत इंसान खुद को शहंशाह मान बैठता है। यह जो शब्द है, वह ग्रीक मिथक से उपजा है जिसमें नार्सियस पानी में अपनी छवि देखकर खुद पर ही मुग्ध हो जाता है। नरेंद्र मोदी के इस ‘नाटक’ में हमें ह्यूब्रिस और नासिसिज्म की ही झलक मिलती रहती है। सवाल यह उठता है कि क्या अब वह ग्रीक नाटकों के ‘हमार्तिया’ की तर्ज पर दुखांत की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं।
ह्यूब्रिस रूपी पाप की यह पटकथा इतिहासकारों, दार्शनिकों, विचारकों और धर्माचार्यों के लिए हमेशा एक ज्वलंत विषय रही है। बाइबिल का यह उपदेश कि ‘दंभी का पतन निश्चत है’, रावण पर भी सटीक बैठता है जो राक्षसों का राजा था और जिसने बरसों तक ब्रह्मा की घोर तपस्या करके यह वरदान पाया था कि उसे न तो देवता और न ही राक्षस मार सकते हैं। हम जानते हैं कि उसका हश्र क्या हुआ। हम अज्ञानी हिंदू यह भी जानते हैं कि जरूरी नहीं कि हम तानाशाह हों, तभी हमें देवताओं का प्रकोप झेलना पड़े। महिमा मंडित दैत्य बलि इतना शक्तिशाली हो गया था कि इंद्र और अन्य देवताओं को विष्णु से मदद की गुहार लगानी पड़ी जिन्होंने देवताओं पर कृपा करते हुए बलि को पाताल पहुंचा दिया था।
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क्यूबा की क्रांति के बाद फिदेल कास्त्रो 19 अप्रैल, 1959 को अमेरिका गए। वहां अमेरिकी उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से उनकी मुलाकात हुई जो साढ़े तीन घंटे चली। मुलाकात के बाद निक्सन ने यह कहते हुए उनकी तारीफ कीः ‘जो भी हो, इतना तो तय है कि उनमें नेता होने के तमाम गुण हैं। हम उनके बारे में जो भी सोचें, क्यूबा, और शायद पूरे लैटिन अमेरिका, के विकास में वह एक बहुत बड़ा कारक बनने जा रहे हैं।’ उसी साल अक्तूबर में राष्ट्रपति आइजनहावर ने कास्त्रो विरोधी एक योजना को मंजूरी दीऔर फिर सीआईए ने कास्त्रों को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए एक टास्क फोर्स बनाया। अगर जरूरत पड़ी तो हत्या के विकल्प को भी अपनाने की इजाजत मिली। 7 अक्तूबर को राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रहे सीनेटर जॉन एफ कैनेडी ने रिपब्लिकन प्रशासन को यह कहते हुए आड़े हाथ लिया कि अमेरिका के समुद्री तट से महज 90 मील दूर उसने एक कम्युनिस्ट खतरे को पनपने का मौका दिया।
उधर, सीआईए क्यूबा पर धावा बोलने की तैयारी कर रही थी। इस योजना के तहत सीआईए क्यूबा के ही प्रवासियों को प्रशिक्षण देकर हथियारों से लैस करके क्यूबा भेजने वाली थी और ये लड़ाके आम लोगों में शामिल होकर विद्रोह को हवा देते और फिर कास्त्रो को सत्ता से बेदखल कर देते। ठीक वैसे ही, जैसा सीआईए ने फलजेनसियो बैतिस्ता के साथ किया था।
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कास्त्रोके लिए भाग्य की बात यह रही कि लड़ाकों को जिस जगह उतारा गया, वहां की दो दिक्कतें थींः एक, पिग्स की खाड़ी में वह जगह कास्त्रो के पसंदीदा हॉलीडे होम से कुछ ही दूर थी और इस कारण वहां अच्छी-खासी संख्या में फौजी तैनात थे; दूसरी, वहां पानी काफी उथला था जिसके कारण लड़ाकों को काफी दूर ही बड़े युद्धक जहाज से उतर जाना पड़ा। उन हथियारबंद लड़ाकों को कास्त्रो के सैनिकों ने दूर से ही देख लिया और अमेरिकी युद्धक जहाज असहाय उन्हें मरता देखता रहा। सीआईए ने तत्काल हवाई हमले का सुझाव दिया लेकिन ऐसा करने से अमेरिकी साजिश बेनकाब हो जाती और इस तरह उन लड़ाकों को उनकी किस्मत पर छोड़ दिया गया। जो जिंदा बचे, उन्हें जेल में डाल दिया गया। इस मामले में जब एक बार कैनेडी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मैक जॉर्ज बंडी से पूछा गया कि कहां क्या चूक रह गई तो उनका जवाब था- “ह्यूब्रिस!”।
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हॉर्वर्ड से एमबीए और फोर्ड मोटर कंपनी के पूर्व प्रेसिडेंट रॉबर्ट मैकन मारा फरवरी, 1961 में अमेरिका के रक्षा मंत्री बने। उन्होंने बेहतरीन सिस्टम एनालिस्ट्स की टीम बनाई। सेना, सैन्य अभियान और अस्त्र-शस्त्र से जुड़ी एक-एक चीज का बारीकी से अध्ययन कर ठोस रणनीति बनी। युद्ध का शिकार आम लोग कैसे न बनें, इस पर खासा ध्यान दिया गया। लेकिन वियतनाम में सब धरा का धरा रह गया और बड़ी संख्या में आम लोग भी मारे गए। मृतकों की कुल संख्या अनुमान से डेढ़ गुनी रही। बाद में अमेरिकी गोलाबारी से मलबे में तब्दील हो गए एक छोटे-से शहर का दौरा करने के समय एक अधिकारी ने जब पूछा कि यहां क्या हुआ? तो उसे जवाब मिला कि ‘इसे बचाने के लिए हमें इसे तबाह कर देना पड़ा’।
बाद में मैकनमारा के रिटायर हो जाने के बाद हॉवर्ड के जॉन एफ. कैनेडी स्कूल द्वारा क्यूबा के मिसाइल संकट पर आयोजित सेमिनार में मेरी उनसे मुलाकात हो गई। मैंने उनसे पूछा कि वियतनाम में सबकुछ इतना गलत कैसे हो गया तो उन्होंने एक शब्द में जवाब दिया- “ह्यूब्रिस”।
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1987 में भारतीय सेना संघर्षरत पक्षों के निमंत्रण पर श्रीलंका गई ताकि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ हुए समझौते को पूरा करे। लेकिन जब वही लिट्टे वादे से मुकर गई, तो तत्कालीन थलसेना अध्यक्ष जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी ने कहा कि वह कुछ ही हफ्तों में लिट्टे का सफाया कर देंगे, या उससे समर्पण करवा लेंगे। लेकिन उसके बाद क्या हुआ, सब जानते हैं। यह आज भी भारतीय सेना के इतिहास का एक दुखद अध्याय है। यहां तक कि इसकी कीमत राजीव गांधी को जान देकर चुकानी पड़ी। यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है कि आखिर कैसे भारतीय सेना उस संगठन से हार गई। क्या सेना को भरोसा था कि अगर चंद दिनों में नहीं भी तो कुछ हफ्तों में तो उसे खत्म कर ही देगी? ह्यूब्रिस?
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इसी साल 28 जनवरी को विश्व आर्थिक मंच की बैठक को वर्चुअली संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया कि भारत उन देशों में है जिन्होंने कोरोना वायरस पर सफलतापूर्वक काबू कर लिया है। वह यहीं नहीं रुके। इसके बाद उन्होंने कहा कि भारत सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता के रूप में अब दुनिया की जान बचाएगा। इतना ही नहीं, उन्होंने गर्व के साथ कहा कि भारत आर्थिक इतिहास के एक अहम मोड़ पर है, वह एक बार फिर अपने स्वर्णिम समय को पाएगा। क्या यह वक्त ‘हमार्तिया’ का है? क्या यह हमें नाटक के अंत की ओर ले जा रहा है जहां पटकथा की विभिन्न कड़ियां जुड़ रही हैं और अंततः उसी तर्ज पर सबकुछ खत्म हो जाने वाला है?
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