नरेंद्र मोदी सरकार सात साल पूरा कर चुकी है। इस दौरान उसके कामकाज को पूरी उदारता के साथ देखें, तो भी इतना तो कहेंगे ही कि उसने काम कम किया, ढिंढोरा ज्यादा पीटा। यह सच तो है लेकिन आधा। इससे पूरी कहानी बयां नहीं होती। अगर उदारता थोड़ा कम कर बेबाकी से बात करें तो यही पाएंगे कि इस सरकार ने देश को सांप्रदायिक और राजनीतिक आधार पर इतनी बुरी तरह बांट दिया है जितना आजादी के बाद कभी नहीं हुआ। इसके अलावा मोदी सरकार ने संस्थाओं पर सोची-समझी रणनीति के तहत लगातार हमला करके उनसे उनकी आजादी और संप्रभुता छीन ली और इस तरह उन संस्थाओं को कमजोर कर दिया जिन पर लोकतंत्र की रक्षा का बड़ा ही अहम जिम्मा था।
लोगों की आशाओं और अपेक्षाओं के रथ पर सवार होकर नरेंद्र मोदी मई, 2014 में सत्ता में आए थे। उनके उदय में अन्य कारकों की भी भूमिका रही। बीजेपी के दोनों दिग्गज अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी की उम्र उनका साथ नहीं दे रही थी। मोदी ने इन स्थितियों का लाभ उठाया। उन्होंने मीडिया के जरिये अपने आपको एक ऐसे ‘मजबूत नेता’ के तौर पर पेश किया जिसकी भारत को जरूरत थी और इसमें उन्होंने विकास के गुजरात मॉडल की ऐसी ब्रांडिंग की कि देश में आजादी के बाद से जो भी उपलब्धियां हुईं, उनके मुकाबले गुजरात कहीं आगे है। और फिर संघ परिवार की बदौलत मोदी ‘हिंदू ह्दय सम्राट’ के तौर पर सामने ला खड़ा किए गए। इनके अलावा, मोदी ने ‘अच्छे दिन’ का वादा करके गरीब और मध्यम वर्गों के वोटरों को अपनी ओर कर लिया और इस तरह पहली बार बीजेपी को आम चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिल सका।
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जब मोदी का पहला कार्यकाल पूरा हुआ तो भी लोगों की तमाम उम्मीदें अधूरी थीं। बावजूद इसके माना जा रहा था कि बीजेपी सत्ता में तो लौट आएगी लेकिन 2014 के मुकाबले सीटें काफी कम हो जाएंगी। तभी पुलवामा और उसके बाद बालाकोट हो गया। इसके बाद जो हुआ, वह बेशक इतिहास है लेकिन वह अब भी रहस्य में लिपटा है। मोदी ने पाकिस्तान-विरोध को चुनावी मुद्दा बना दिया और बीजेपी की सीटों की संख्या 300 को पार कर गई।
इसके साथ एक और बात पर ध्यान देना चाहिए। जितना बड़ा जनादेश, उतनी ही ज्यादा अपेक्षा। इसलिए, सात साल सत्ता में रहने के बाद जनता तो देखेगी ही कि सरकार ने क्या किया। देखने वाली बात है कि 2014 के बाद पहली बार है जब मोदी की लोकप्रियता स्पष्ट रूप से घटी है। किसी एक या कुछ राज्यों में नहीं बल्कि पूरे देश में। ऐसा कैसे हुआ?
किसी सरकार के कामकाज को तौलने का आम लोगों का साधारण-सा तरीका यह होता है कि उनके जीवन पर क्या असर पड़ा। इस संदर्भ में पहला ध्यान अर्थव्यवस्था पर जाता है। दाल-चावल की कीमत क्या है, युवाओं के लिए रोजगार की स्थिति क्या है, किसानों की आय का हाल क्या है, विशाल अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े लोगों की स्थिति क्या है, शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवा कितनी सस्ती या महंगी है... वगैरह-वगैरह।
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मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान भी अर्थव्यवस्था की हालत बुरी ही थी और दूसरे कार्यकाल के दौरान तो बहुत बुरी हो गई। अब तक सरकार की बड़ी-बड़ी नाकामियों को मीडिया के इस्तेमाल से छिपाया जा रहा था। इसी के तहत 2021 के बजट को ‘सदी का बजट’ जैसे विशेषणों से नवाजा गया। यह सब चल ही रहा था कि 2020 के शुरू में कोविड महामारी ने दस्तक दी। लोगों ने तो शुरू में मोदी पर पूरा भरोसा किया कि वह संकट से सफलतापूर्वक निपट लेंगे। इसीलिए, जब मोदी ने कहा तो थाली पीटी, दीया जलाया। मोदी ने चार घंटे के नोटिस पर राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन की घोषणा कर दी और लोगों ने लंबे समय तक चली इस बंदी के दौरान हुई तमाम तकलीफों को झेला। यहां तक कि पैदल ही अपने गांवों को निकलने को मजबूर लाखों-लाख मजदूरों के हिला देने वाले अनुभवों के बाद भी आम लोगों ने मोदी की उतनी कड़ी आलोचना नहीं की। इन बेबस लोगों के लिए खाने-पीने, उन्हें उनके घरों तक पहुंचाने का इंतजाम करने में सरकार की स्पष्ट विफलता को देश ने चुपचाप देखा।
पहले दौर के कोरोना संकट के कारण लाखों लोगों का काम-धंधा छूट गया। पीयू रिसर्च सेंटर के मुताबिक, इससे भारत का मध्यम वर्ग का आकार 3.2 करोड़ घट गया और 7.5 करोड़ लोग वापस गरीबी की गिरफ्त में आ गए। इस दौरान मोदी लोगों की कल्पना वाले मजबूत, उनकी रक्षा करने वाले नेता नहीं दिखे।
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लगभग इसी समय कुछ ऐसा हुआ जिसने मोदी के समर्थकों को भी हैरानी में डाल दिया कि क्या मोदी इतने नाकाबिल और निर्दयी हैं? पहले पंजाब और हरियाणा और फिर पूरे देश के किसान कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर आकर धरने पर बैठ गए। जल्दी ही किसानों का यह आंदोलन दुनिया का सबसे लंबा और शांतिपूर्ण किसान आंदोलन बन गया। दो सौ से ज्यादा किसानों की आंदोलन स्थल पर ही मौत हो गई लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने किसान नेताओं को सीधे बातचीत के लिए अपने पास बुलाने की जरूरत नहीं समझी। फरवरी, 2020 में दिल्ली में खौफनाक दंगा हुआ था। इसमें दिल्ली पुलिस मुसलमानों को निशाना बना रहे दंगाइयों के साथ मिल गई थी। ऐसे सांप्रदायिक दंगे पर कोई दुख व्यक्त नहीं करना समझ में आता है, और इसका अंदाजा भी था। लेकिन देश के किसानों के प्रति भी मोदी ने संवेदनशीलता नहीं दिखाई! पहली बार उनके तमाम समर्थकों ने भी मोदी को अक्खड़ और निर्दयी पाया।
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मोदी के प्रति जनधारणा को निर्णायक रूप से बदलने में कोविड की दूसरी लहर की भूमिका रही। आजाद भारत की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित हो चुकी महामारी की इस दूसरी लहर ने भारतीय समाज को असहनीय तकलीफ में झोंक दिया है। जो मरे, वे मरे लेकिन यह हर कोई समझ रहा है कि बेशुमार लोगों को बचाया जा सकता था। समाज को कचोट है कि मरने के बाद लोगों का अंतिम संस्कार कैसे-कैसे किया गया। कैसे बेबस लोगों को अपने सगे-संबंधियों के शव गंगा में बहा देने पड़े। ये सब देखकर जैसे देश को काठ मार गया।
जिस समय देश इतने बड़े स्वास्थ्य संकट से गुजर रहा था, मोदी सरकार ने अपनी आत्ममुग्धता, अक्खड़पन और अयोग्यता का ही परिचय दिया। और तो और, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को भी कहना पड़ा कि पहली लहर के बाद सरकार खुशफहमी का शिकार हो गई। विशेषज्ञ लगातार कह रहे थे कि दूसरी लहर आने वाली है और सरकार के पास पूरा समय था कि इसकी तैयारी करती। इस समय का इस्तेमाल उसे ऑक्सीजन और दवा की सप्लाई को चाक-चौबंद करने, अस्पतालों और आईसीयू में बेड की संख्या बढ़ाने, वैक्सीन उत्पादन को तेज करने के साथ-साथ बाहर से वैक्सीन मंगाकर देश भर में वैक्सिनेशन का अभियान चलाने और इन सब मोर्चों पर केंद्र और राज्य में बेहतर तालमेल सुनिश्चित करने में होना चाहिए था। लेकिन क्या हुआ? इन सभी मोर्चों पर मोदी सरकार बुरी तरह विफल रही।
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इन कारणों से तो मोदी सरकार की लोकप्रियता कम हुई ही। इनके अलावा भी लोगों ने देखा कि कैसे खुद नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने बंगाल चुनाव प्रचार के दौरान कोविड संबंधी नियमों की धज्जियां उड़ाईं। बंगाल के चुनाव में पूरी जान लगा देने के बाद भी ममता बनर्जी को सत्ता से हटाना तो दूर, सौ के आंकड़े से भी पीछे रह जाना भी बतलाता है कि मोदी की लोकप्रियता का हाल क्या है।
मोदी सरकार की खुशफहमी पर मोहन भागवत ने जो टिप्पणी की है, वह भी तो यही बताती है। देश ही नहीं, पूरी दुनिया हैरान है कि मोदी ने समय से पहले ही कोरोना पर जीत का ऐलान कैसे कर दिया। प्रधानमंत्री का 8 अप्रैल को मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में यह कहना कि ‘हमने कोविड को बिना वैक्सीन हरा दिया’ इसी खुशफहमी का इजहार है। इससे पहले 21 फरवरी को बीजेपी ने कहा थाः ‘गर्व की बात है कि भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के योग्य, संवेदनशील, प्रतिबद्ध और दूरदृष्टिपूर्ण नेतृत्व में न केवल कोविड-19 को परास्त किया बल्कि नागरिको में आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का विश्वास भी भरा। पार्टी उनके नेतृत्व में कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में भारत की गौरवपूर्ण जीत की प्रशंसा करती है।’ पार्टी ने जब यह प्रस्ताव पास किया, नरेंद्र मोदी वहां मौजूद थे। जाहिर है, उन्होंने इस झूठ को प्रचारित होने दिया।
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इसमें शक नहीं कि देश में जिस तरह मोदी की लोकप्रियता घटी है, उसकी वाजिब वजहें हैं। लेकिन इसके साथ ही लोगों के मन में कई सवाल भी हैं। पहली बार वे लोग भी मोदी और उनकी सरकार से सवाल कर रहे हैं जिन्होंने आंखें मूंदकर उनका समर्थन किया। इन सवालों को घरों में होने वाली सामान्य बातचीत और दोस्तों-साथियों के बीच होने वाली गपशप से लेकर सोशल मीडिया और यहां तक कि मुख्यधारा के मीडिया के एक तबके में भी साफ देखा-सुना जा सकता है। ऐसे हालात में गैर-बीजेपी पार्टियों के लिए मौका है और आम लोगों के प्रति एक दायित्व भी कि 2024 के लिए एक ठोस विकल्प देने को आगे आएं।
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