इतनी करारी शिकस्त के बाद आखिर विपक्ष खुद को कैसे उबारेगा? हम में से वे लोग जो राजनीति में नहीं हैं, इतनी विशाल हार का सही अर्थ कभी नहीं समझ पाएंगे। हार की असली समस्या निजी तौर पर शुरु होती है। विश्वास डिग जाता है और इस बात की शर्म की लोग आपको अब किस नजर से देख रहे हैं। अपने काम के दौरान हम भी कई बार हार का सामना करते हैं या नुकसान उठाते हैं, लेकिन इसके बारे में तभी दूसरों को पता चलता है जब हम खुद उन्हें बताते हैं। लेकिन विपक्षी नेताओं की हार तो सार्वजनिक होती है, सबको पता होती है।
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ऐसे हालात में आपको अपने उन प्रतिद्वंदियों का सामना करना पड़ता है जो आप पर झपट पड़ने को तैयार बैठे हैं। युद्ध में तो हार होने पर या तो आत्मसमर्पण करना होता है या फिर मृत्यु का सामना करना होता है। लेकिन, राजनीति में पराजय जल्द ही अतीत हो जाती है। जो हो गया, सो हो गया। राजनीति में वर्तमान का सामना करना होता है, उन लोगों के साथ काम करना होता है जिन्हें कल तक आप गालियां दे रहे थे या जो आपको गालियां दे रहे थे। लेकिन बहस खत्म हो चुकी है और आप को अपमान सहना पड़ा है।
ऐसे में अब आगे क्या किया जाए?
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हारे हुए नेताओं को सलाह देने वालों की कमी नहीं होती, खासतौर से मीडिया की, जो लगातार ये बताता है कि कहां क्या गलती हुई। इनमें से कुछ तो सच में आपके काम की होती है, लेकिन मेरा मानना है कि ज्यादातर का कोई आधार नहीं होता। जिस न्यूज चैनल के लिए मैं स्टूडियो में मेहमान था, तो हमें इस बात पर हंसी आती थी कि हमारा पदनाम वरिष्ठ पत्रकार लिखा जाता था।
हकीकत यह है कि 30-40 साल का पत्रकारिता का अनुभव 35-40 मिनट की ऐसी जनसभा या रैली का विकल्प नहीं हो सकता जहां मौजूद भीड़ कुछ संदेश दे रही हो। असल में हार के कारण को हारे हुए व्यक्ति या नेता से ज्यादा अच्छे से कोई नहीं समझ सकता। हारा हुआ नेता तो सभी युद्धक्षेत्रों में घूम कर आया है। उन्होंने अपने सैनिकों और विरोधियों की आंखों में आंखें डालकर देखा है। उन्हें जमीनी हकीकत का अंदाज़ा है और उन्होंने इसे महसूस भी किया है।
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इसलिए बिना कोई सलाह दिए आइए देखते हैं कि ऐसे नेताओं के अगले कदम क्या होने चाहिए। जब पाकिस्तान के जनरल अय्यूब खान ने 1950 के दशक में खुद को राष्ट्रपति घोषित किया, तो उन्होंने सबसे पहले एक अभिनंदन पत्र लिखा। सैन्य भाषा में ऐसे पत्र का अर्थ होता है कि फौजी खुद को किन हालात में देख रहा है। मेरे विचार में यही पहला कदम नेताओं का होना चाहिए।
विजय का आंकलन करना आनंदपूर्ण होता है। सैन्य इतिहास के विद्यार्थी फारसलस में जूलियस सीज़र या फिर झेलम में सिकंदर की जीत के नक्शे का अध्ययन करने में घंटों बिताते हैं। हार का आंकलन थोड़ा दुखदाई होता है, लेकिन फिर भी ऐसा होना जरूरी है। हर राज्य में हर उम्मीदवार की हार की समीक्षा होनी चाहिए (मेरा तात्पर्य इस पर अंतिम फैसला देना नहीं है) और देखना चाहिए कि आज क्या हालात हैं। इसी के साथ विरोधियों के बारे में भी एक ईमानदार आंकलन होना चाहिए या सैन्य भाषा में कहें तो अभिनंदन पत्र होना चाहिए।
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इसके बाद बारी आती है जिम्मेदारी लेने की। यहां मेरा तात्पर्य दोष देने से नहीं है। मेरे विचार में यह सबसे आसान होगा अगर कोई नेता अपने पद से इस्तीफा दे दे और अलग राह पकड़ ले। हो सकता है यह सही रास्ता हो। लेकिन, इसकी एक प्रक्रिया होन चाहिए और पारदर्शिता से इस पर अमल होना चाहिए। बिना हार की समीक्षा किए और हार से हताश पार्टी का हौसला बंधाए बिना इस्तीफा देकर अलग हो जाना अहंकारपूर्ण हो सकता है। यह सब निस्वार्थ भाव से करना चाहिए।
मेरे विचार में इस चुनाव के दौरान विपक्ष कुछ खास कर भी नहीं सकता था। कई जगह समय से गठबंधन न होना, कुछ सीटों पर सही उम्मीदवार न उतारना आदि वह कारण नहीं हैं, जिनके चलते विपक्ष को इतनी बड़ी शिकस्त मिली है। किसी भी किस्म की रणनीति या चाल इतनी विशाल पराजय को नहीं टाल सकती थी। कारण कुछ बहुत गहरे हैं, जिनकी समीक्षा और जिन पर विचार होना जरूरी है।
फिर भी एक बात है जिसमें समूचा विपक्षा नाकाम रहा, वह है आक्रामकता की कमी, सबकुछ बहुत आसान समझ लेना, छुट्टियों पर जाना और गठबंधन पर समय रहते फैसला न लेना। इसके बाद भी अगर पराजय मिलती तो कम से कम यह तो नहीं होता कि हमने कोशिश नहीं की या हमें इसका अनुमान नहीं था। दरअसल कुछ ज्यादा ही बड़ी शक्तियां इन चुनावों में सक्रिय थीं।
एक और काम जो करना चाहिए, वह है गठबंधन सहयोगियों और मित्र दलों के साथ विमर्श। विपक्ष को सिविल सोसायटी का समर्थन था, यानी उन संगठनों का जो कई अहम मुद्दों पर सरकार से लड़ाई लड़ रहे थे। इनमें से कई संगठन एकदम जमीनी स्तर पर काम करते हैं और दशकों से संघर्ष कर रहे हैं। इनकी राय निश्चित ही पराजय के कारणों पर कुछ रोशनी डाल सकती है।
और एक बात जो पराजित दलों को करनी होगी, खासतौर से पुरानी पार्टियों को, कि वे अपने मूल सिद्धांतों की तरफ वापस जाएं और देखें कि आज उनकी पार्टी उन सिद्धांतों के कितने करीब है या नहीं है। इन दलों में कुछ तो ऐसा विशेष था जो भारतीय इनकी तरफ आकर्षित हुए थे। तो फिर वही या फिर उसका नया रूप लेकर क्यों न नए सिरे से लोगों को आकर्षित किया जाए। यह ऐसा सवाल है जिस पर संजीदगी से गौर करना जरूरी है।
इसके अलावा हौसला नहीं छोड़ना चाहिए। सिविल सोसायटी और एनजीओ की मिसालें सामने हैं जिन्हें सफलता से ज्यादा नाकामियों का सामना करना पड़ता है। वे तो हार नहीं मानते। स्वंयसेवा एक मकसद के लिए सामने आती है, लेकिन इसे आनंदपूर्ण और ऊर्जावान तरीके से करने की जरूरत है।
और आखिरी बात, राजनीतिक दलों को एक दिनचर्या तय करनी होगी। दिनचर्या तय करना बेहद रोचक होता है। सिर्फ समय से उठकर और काम पर चले जाने से भी आप संयोजित हो सकते हैं और इनके नतीजे काफी अच्छे होते हैं। दिनचर्या में हम उन छोटे-छोटे कदमों के बारे में तय कर सकते हैं जो हमें उठाने हैं, इससे हमें यह हौसला भी मिलता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं।
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