आज हम नये साल की दहलीज पर खड़े हैं। यह नया साल भी 21वीं सदी ने पिछले दो दशकों में जितना कुछ निगला है, उसे धीरे-धीरे पचायेगा। नई सदी की शुरुआत पर लगता था कि बीसवीं सदी के झेले दो-दो विश्व युद्ध, उनसे उबरने और दोबारा नया सृजित करने की तकलीफ, कई तरह की महामारियां, शीत युद्ध, देश की आज़ादी के सुख और बंटवारे के दुख अब बीते ज़माने की बातें बन जायेंगे। और बर्लिन दीवार और सोवियत रूस के विघटन और यूरोप के साझा बाज़ार के निर्माण के साथ ग्लोबल दुनिया में एक नई विश्व बिरादरी बनेगी। जहां अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीति तक हर मुहिम पर मानवजाति के लिये साझेदारी के नये मानदंड होंगे।
शुरू के दशक में कम से कम अर्थनीति के स्तर पर यह होने भी लगा था। आज़ादी के बाद से 3 फीसदी पर ठिठकी हमारे देश के विकास की रफ्तार (जिसे अर्थशास्त्री राजकृष्ण ने मज़ाक में हिंदू रेट आफ ग्रोथ का नाम दिया था) उछल कर 10 का आंकडा छूने लगी, साक्षरता-दर (खासकर महिलाओं की) उम्मीद से अधिक तेज़ी से बढ़ी और दक्षिण भारत तो उन्नति के हर पैमाने पर नित नई उजली इबारत लिखने लगा ।
उत्तर के हिंदी पट्टी के कुछ पिछड़े इलाके अलबत्ता तब भी उस दर से तरक्की करते नहीं दिखते थे।विपक्ष का कहना था कि इसकी बड़ी वजह भ्रष्टाचार और बहुसंख्य हिंदू हितों की कीमत पर अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण थे। लिहाज़ा 2014 में जब उत्तर भारत में रिकार्ड बहुमत हासिल कर आई नई सरकार ने धुंआधार प्रचार से खुद को हिंदू हृदय सम्राट के नेतृत्व में भ्रष्टाचार और कालाधन खत्म कराने वाली मुहिम का स्वयंभू ठेकेदार घोषित कर दिल्ली में अपना चिमटा गाड़ दिया, तो उम्मीदों में उछाल आना स्वाभाविक था।
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पर, धूनी की लौ में और जो हो, असली ताप नहीं था। लिहाज़ा पढ़े-लिखे मध्यवर्ग ने जल्द ही पाया कि सारे बड़े मर्ज़ों के इलाज बुदबुदाते मंत्रों के साथ राख की चुटकी से भभूत से किये जाने लगे हैं और कहीं कोई बड़ा फायदा होता नहीं दिख रहा। रही सही कसर नोटबंदी ने और फिर 2018 में अफरातफरी के बीच लगाये गये गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) ने पूरी कर दी और शहरी उपक्रमी और नौकरीपेशा जन ही नहीं लगातार बदहाल हो रहे खेतिहर ग्रामीण भी उम्मीदें खो बैठे।
इसके साथ विभेदकारी सोच को कहीं दबे छिपे तो कहीं खुल कर बढ़ावा दिया जाने लगा। आज, जब कभी खून का स्वाद चख चुकी भीड़ कहीं गो-रक्षा तो कभी लव जिहाद और कभी सिर्फ पहनावे के आधार पर पाकिस्तानी जासूस का लांछन लगा कर सरेआम लोगों को मार रही है, और कानून व्यवस्था के रखवाले की बुलंदशहर में सरेआम हत्या के बाद भी आरोपी छुट्टा घुम रहा है, तो लग रहा है कि 2014 में बड़े ढोल बजा कर दिखाये गये सपनों का कैलकुलस निपट झूठा है |
विडंबना एक यह, कि साल 2018 गांधी जी की 150वीं जयंती का भी साल था। गांधी, जिन्होंने माथे पर हाथ धरे गुलामी झेलते गरीब और थके देश को अन्यायी की आंख में आंख डाल कर देखने और सत्याग्रह की अड़ियल लड़ाई से बिना हथियार सत्ता छीनने की ताकत दी थी। एक खोखले हो चुके समाज के बीच से गांधी ने भारत के मर्म में छिपी आध्यात्मिकता, नैतिकता को फिर से खोज निकाला था और युगों से जाति धर्म और वर्गभेद के पोखरों में बंटे समाज को एक महासागर बना दिया।
2018 में हमने दूसरी विडंबना के बतौर गांधी की उस विरासत के कई ऐसे दावेदार राजनीति के खंभों से प्रकट होते देखे, जिनकी विचारधारा के एक घोषित पक्षधर ने ही कभी गांधी को हिंदू विरोधी बताकर गोली मारी थी। गांधी की विरासत पर खींचतान होने से आज़ादी की लड़ाई का संदूक खुला तो हमने पाया कि पटेल और सुभाष बोस को भी अपना बनाने के लिये पंडों की एक जमात उमड़ी आ रही है ।
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इस खींचतान के बीच 2018 एक उपजाऊ साल कैसे बन सकता था? अपनी पूर्ववर्ती सरकार की हर मुहिम पर खिल्ली उड़ाना सत्तारूढ सरकार को यकायक भारी पड़ने लगा है। वहीं नई तकनीकी, जिसकी मदद से उसने 2014 में अपने हक में एक विशाल सुनामी तैयार कराई थी, अब दुधारी तलवार साबित हो रही है क्योंकि विपक्ष ने भी उसका चतुर इस्तेमाल शुरू कर दिया है।
सरकार नोटबंदी को अग्रगामी कदम कहती है तो उसके पूर्व वित्तीय सलाहकारों और मंत्रियों के बयान मीडिया में प्रकट होने में देर नहीं लगती, जो इसे एक आत्मघाती और बिना सलाह मशवरे के उठाया कदम मानते हैं। जीएसटी टैक्स लाती है या नरेगा की तहत पैसा आवंटित करती है तो टीवी और सोशल मीडिया पर वे पुराने वीडियो चल जाते हैं जहां उसने 2010 से 14 तक इसके मूल प्रस्तावक कांग्रेस को आड़े हाथों लिया था। वह कांग्रेस को वंशवादी भ्रष्टाचारी कहती है तो इससे पहले कि जनता सर सहमति में हिलाये, खुद उसके पार्टी प्रधान से लेकर कतिपय बड़े मंत्रियों के वंशधरों की संपत्ति में आ गई उछाल और बैंकों का कर्ज़ चुकाये बिन भागे धनकुबेरों से उनके करीबी बंधनों के चर्चे हवा में टिड्डी दल की तरह छा जाते हैं।
राफेल मामले में भी जनता को लग रहा है कि सरकार पाकदामनी के सारे दावों के बाद भी एकदम बेदाग तो नहीं हुई। जो शीर्ष नेतृत्व कभी शोला था, वह अब मनमोहन सिंह के शासन के आखिरी दिनों की तरह एक मौनकलाकृति बन चला है।
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इस तरह आम चुनाव का साल 2019 गहरी परछाइयां ले कर ही आ रहा है। अफसोस यह नहीं कि वह कई चुनौतियाां लेकर आ रहा है, बल्कि यह कि लगता नहीं सरकार के पास उनसे कमर कस कर निबटने का कोई बढ़िया कैलकुलस या ऐसे सपनों का ज़खीरा बचा है जिनको मतदाता अभी भी 2014 की तरह भरोसेमंद मान लें।
अगली सरकार किसकी बनती है, इसका दारोमदार उस युवा पीढ़ी पर है जिसके 25 फीसदी सदस्य पहली बार मतदान कर रहे होंगे। अभी उनके सवाल बहुत धुंधले हैं और कभी नौकरियों तो कभी दाखिले के लिये आरक्षण की सीमा बढ़ाने घटाने से जुड़े हुए नज़र आते हैं। लेखकों कलाकारों के मन में भी यही सवाल हैं और उनके अध्यापकों, अभिभावकों के मन में भी कि हमारे यह बच्चे इस तरह के बंटे हुए प्रतिगामी सोच वाले माहौल में कितने सुरक्षित हैं, जहां शक के चलते भीड़ पीट-पीटकर किसी युवा को ही नहीं, उसे बचाने को आये पुलिस अफसर को भी मार देती है। जहां एक किशोरी को बलात्कार के बाद सरेआम ज़िंदा जला दिया जाता है, वहां बेटी बढ़ाओ बेटी पढ़ाओ का नारा कितना सार्थक रह जाता है ?
दूर के ढोल की तरह दूर के देवता भी सुहाने लगते हैं। इसलिये ग्रामीण युवा शहरों को भागते हैं और शहरी युवा भी जो उनकी ही तरह इन सवालों के जवाब खुद नहीं जानते, कभी उनको अमेरिका यूरोप में तलाशते हैं तो कभी चीन में। पर इन सब देशों ने पिछले एक साल में आव्रजकों की भीड़ को रोकने के लिये वीज़ा और दाखिले की दीवारें और भी ऊंची कर दी हैं। नतीजतन वे फिर भीतर पलटते हैं और अपनी खीझ और गुस्सा देश पर निकालते हैं।
2019 में जो भी सरकार आये, उसका सबसे पहला काम इस गुस्से की ऊर्जा को रचनात्मकता की तरफ ले जाने का ही होना चाहिये। दरअसल मूल सवाल यह है कि हमारे चाहे न चाहे नई अर्थव्यवस्था, राज समाज और मीडिया इन दिनों तकनीकी दक्षता और यांत्रिक बुद्धि पर आधारित बनते जा रहे हैं। पर यह तकनीकी उन्नति हमको कामकाज के लिये तरह तरह के मेहनत बचाने वाले उपकरण देता है। उपक्रमों के खर्चे बचाने को रोबो और सघन चिकित्सा के लिये रोबो डॉक्टर देता है, आराम देता है, नई नई मनोरंजन विद्यायें और मन को आराम देने को गोलियां देता है। पर इस मानवविहीन ज्ञान के बीच हम मानव जाति के काम क्रोध मद मोह लोभ के पुतले किस तरह जियें ? राज्य और संस्था के अत्याचार पहले हम लोग सह लेते थे क्योंकि उनका चेहरा और दंडविधान आचरण के नियम और गलतियां सब मानव ही बनाते थे और हमारे गुहार लगाने पर कुछ मानव ही आकर उनको दुरुस्त भी कर देते थे।
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लेकिन आज समाज और राजकीय व्यवस्था बड़ी हद तक डिजिटल ज्ञान और संप्रेषण पर टिक गये हैं। और पार्टी मुख्यालयों के चुनावी वॉर रूम ही नहीं, बाज़ार से लेकर चिकित्सा विज्ञान तक में हर शोध और बोध हमारी स्वीकृति या जानकारी बिना लोकतंत्र या संविधानों की ऐसी तैसी करते हुए हमारे जीवन का हर गोपनीय ब्योरा आधार या बैंक के कार्डों की मार्फत मिले डाटा के कच्चे माल की बतौर मोटे मुनाफे पर बेचा जा रहा है।
दुनिया की सबसे महंगी करंसी बिट कॉइन पूरी तरह अगोचर है। और जबकि पर्यावरण लगातार खतरनाक ज़द छू रहा है, अमेरिका, रूस, चीन जैसे बड़े देश उसके निराकरण की बात चलते ही लगातार हम और हमारेवादी बन कर विश्व बिरादरी की चिंता को बेमतलब बना रहे हैं ।
ऐसे मे 2019 की जन्मकुंडली लिखने के बारे में हम कितनी दूर तक सोचें ?
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