‘शाहनवाज़ हुसैन निपट चुके हैं, मुख्तार अब्बास नकवी बस एक नाम भर हैं, ऐसे में बीजेपी को हर चुनाव में जरूरत पड़ती है तो असदुद्दीन ओवैसी की। ओवैसी जब भी मुंह खोलते हैं, तो बीजेपी के खाते में हजारों वोट चले जाते हैं।‘ यह कहना है एक्टिविस्ट एस बी भास्कर का।
भास्कर बताते हैं कि ओवैसी को जो कुछ बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, अगर किसी और मुस्लिम नेता ने इसका दस फीसदी भी बोला होता तो उस पर देश द्रोह का मुकदमा हो गया होता। दरअसल यह ओवैसी और बीजेपी के बीच की सांठगांठ है। बीजेपी को ओवैसी के भाषणों से वोट मिल जाते हैं और बदले में ओवैसी का कारोबार बिना रोकटोक चलता रहता है। न तो ईडी की उन पर नजर पड़ती है और न ही सीबीआई आदि की। वामपंथी विचारधारा वाले भास्कर का कहना है कि किसी भी राजनीतिक दल को, और खासतौर से बीजेपी को तो ऐसे ‘प्यारे दुश्मन’ की हमेशा जरूरत रहती है।
बिहार काडर के एक रिटायर्ड आईपीएस अफसर एम ए काजमी बताते हैं कि, “दरअसल शाहनवाज़ हुसैन का क्या किया जाए, यह बीजेपी को भी नहीं पता है। उनकी उम्र इतनी हुई नहीं है कि उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेजा जाए। कुछ नेताओं को लगता है कि भागलपुर से टिकट काटने से बीजेपी को उमा भारती के इस भाई से छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन शाहनवाज़ हुसैन भी अड़े हुए हैं। अपमान सहने के बावजूद वह पार्टी के लिए प्रचार करने में जुटे हैं।“
हकीकत यह है कि ओवैसी ने तेलंगाना में अपने राजनीतिक साझीदार टीआरएस के जरिए मोदी की अगुवाई वाले एनडीए में पांव अड़ा रखा है। इससे दोनों के राजनीतिक हित सधते हैं। हैदराबाद में ओवैसी को कोई दिक्कत नहीं होती है और बदले में केंद्र से मोलभाव के लिए वे के चंद्रशेखर राव को छूट दे देते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के लिए वोट जुटाने के अलावा ओवैसी महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बीजेपी विरोधी वोटों को काटने का काम भी करते रहे हैं।
लेकिन बिहार के सीमांचल ने ओवैसी के असली रंग को पहचान लिया और उनकी मंशा समझते हुए उन्हें बिहार से बाहर का रास्ता दिखा दिया। 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार को सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं की समझदारी का नतीजा भी माना जाता रहा है। इस इलाके में ओवैसी के उम्मीदवार की जमानत तक जब्त हो गई थी।
बिहार के सीमांचल में चार लोकसभा सीटें हैं। इनमें पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज और अररिया है। इनमें तीन सीटों के साथ ही इलाके की बांका और भागलपुर में 18 अप्रैल को मतदान है।
बिहार में 2015 की हार से विचलित हुए बिना बीजेपी के कथित हमदर्द ओवैसी एक बार फिर बिहार के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने में पैर अड़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अपने भाषणों में इस्तेमाल भाषा और शब्दों के जरिए ओवैसी माहौल को विभाजनकारी बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ते। इस बार ओवैसी ने किशनगंज सीट से अख्तरुल ईमान को उतारा है। अख्तरुल ईमान जमाते इस्लामी की छात्र इकाई के नेता रहे हैं। गौरतलब है कि पूर्व में आरएसएस के साथ जमाते इस्लामी पर भी पाबंदी लग चुकी है।
इलाके के कांग्रेस नेता मोहम्मद मूसा कहते हैं कि, “इस तरह पूर्वांचल के मुस्लिम मतदाताओं की समझदारी की फिर से परीक्षा है कि वह अख्तरुल ईमान को चुनते हैं या महागठंबधन के उम्मीदवार डॉ मोहम्मद जावेद को।“ इस सीट से जेडीयू ने सैयद महमूद अशरफ को उतारा है।
मोहम्मद मूसा का कहना है कि, “अख्तुरल ईमान का अतीत दागदार रहा है, इस बिना पर तो उन्हें सार्वजनिक जीवन से ही अलग हो जाना चाहिए था। 2014 में अख्तरुल ईमान जेडीयू के उम्मीदवार थे और उन्होंने ऐन चुनावों के बीच में अपना पर्चा वापस ले लिया था। इससे उस समय उनकी पार्टी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की काफी किरकिरी हुई थी। अख्तरुल ईमान ने उस समय कांग्रेस के उम्मीदवार इसरारुल हक को समर्थन दे दिया था।”
प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि 2014 में नीतीश को धोखा देने वाले अख्तरुल ईमान ने अपने सरनेल ईमान तक का ध्यान नहीं रखा। ऐसे में इस बार क्या वह सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं को बांटने में कामयाब होंगे जिससे एनडीए को फायदा पहुंचे?
अल्लामा इकबाल का एक शे’र है:
‘वफादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले ईमां है
मरे बुतखाने में तो काबे में गाड़ो बरहमन को’
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