देश में जो राजनीतिक-प्रशासनिक प्रहसन चल रहे हैं, खाने के तेल के दाम में लगी आग उसका एक और उदाहरण है।
इस साल सरसों की फसल का बंपर उत्पादन हुआ है। रबी मौसम के दौरान 89.5 लाख टन सरसों का उत्पादन हुआ जो पिछले साल के मुकाबले 19.33 फीसदी अधिक है। पिछले साल, यानी 2020 में 75 लाख टन सरसों का उत्पादन हुआ था। ऐसे अवसरों पर पिछले छह-सात साल में जैसा होता रहा है, केन्द्र सरकार का दावा है कि उसकी नीतियों के कारण तिलहन की फसल में रिकॉर्ड उत्पादन हो रहा है। इसके बावजूद सरसों तेल की कीमत लगातार बढ़ रही है।
केन्द्रीय उपभोक्ता मंत्रालय के मुताबिक, 23 अक्तूबर, 2013 को सरसों के तेल की कीमत 96.12 रुपये प्रति किलो थी जो 23 अक्तूबर, 2020 को बढ़कर 128.84 रुपये और 23 अक्तूबर, 2021 को 185.85 रुपये हो गई। ये आंकड़े बताते हैं कि सात साल में तेल की कीमत लगभग दोगुनी हो गई है। वैसे, यह औसत कीमत है क्योंकि अलग-अलग शहर में इसकी कीमत अलग-अलग है। मसलन, 23 अक्तूबर, 2021 को दिल्ली में सरसों तेल की कीमत 200 रुपये प्रति किलो थी, मुंबई में 204 रुपये, जम्मू में 212 रुपये, श्रीनगर में 207, लखनऊ में 213, दंतेवाड़ा में 200 रुपये।
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इसमें एक और पेंच है। जिन कीमतों का जिक्र उपभोक्ता मंत्रालय कर रहा है, ऑनलाइन बाजार में वे कुछ अलग हैं। इस प्लेटफार्म पर कच्ची घानी के नाम पर सरसों तेल की कीमत 250 रुपये प्रति किलो तक वसूली जा रही है। सरसों तेल का बाजार लगभग 40 हजार करोड़ रुपये का है। सबसे ज्यादा बिक्री फॉर्च्यून की है। इसके बाद रुचि सोया का नंबर है जिसे पिछले दिनों बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि ने खरीद लिया था।
वैसे, भारत जितना खाने के तेल का उत्पादन करता है, उससे लगभग दोगुना दूसरे देशों से आयात करता है। भारत का कुल खाद्य तेल उत्पादन 7.5-8.5 मिलियन टन है जबकि भारत विदेशों से 15 मिलियन टन आयात करता है। देश में सरसों के तेल के बाद सबसे अधिक खपत रिफाइंड ऑयल की है। मलेशिया और इंडोनेशिया से 90 लाख टन रिफाइंड पाम ऑयल आयात होता रहा है। ऑयल रिफाइनरीज के संगठन सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन (एसईए) ऑफ इंडिया सरकार से लगातार मांग करती रही है कि सरकार रिफाइंड तेल के आयात पर प्रतिबंध लगा दे, ताकि स्थानीय रिफाइनरी अपनी क्षमता के मुताबिक तेल उत्पादन कर सकें। ये रिफाइनरी केवल 40 से 45 फीसदी ही उत्पादन कर पाती हैं।
जब मलेशिया के प्रधानमंत्री ने सीएए (नागरिकता संधोशन कानून) को लेकर टिप्पणी की, तो जनवरी, 2020 में सरकार ने मलेशिया से तेल आयात बंद कर दिया और नेपाल तथा बांग्लादेश से भी आयात के लिए समझौते किए। लेकिन वहां पाम ऑयल का उत्पादन काफी कम है। अंततः तेल के बढ़ते दामों को देखते हुए सरकार ने मलेशिया पर लगाए प्रतिबंध दिसंबर तक के लिए हटा दिए। फिर भी, हालात नहीं सुधरे।
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लेकिन खाने के तेल के दाम बढ़ने के पीछे सिर्फ यही वजह नहीं है। बड़ा कारण कृषि कानून है। सरकार ने 5 जून, 2020 को आवश्यक वस्तु (संशोधन) (ईसी-ए) अध्यादेश, 2020 जारी किया जिसे सितंबर में एक कानून की शक्ल दे दी गई। इससे सरकार ने खाद्य वस्तुओं के भंडारण पर स्टॉक लिमिट खत्म कर दी; व्यापारी जितना चाहे, उतना स्टॉक कर सकते हैं। इसका असर अप्रैल, 2021 से शुरू हुई रबी सीजन के फसल की खरीद के साथ ही दिखने लगा था। एकाएक सरसों की फसल के दाम बढ़ने लगे। किसान सरसों की फसल लेकर मंडियों तक नहीं आए और व्यापारी खेतों में जाकर सरसों की फसल खरीदने लगे। सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 4,650 रुपये प्रति क्विंटल था लेकिन किसानों को पहले दिन से ही 5,000 रुपये प्रति क्विंटल का रेट मिलने लगा और धीरे-धीरे यह रेट 7,000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया।
हालत यह हो गई कि हरियाणा सरकार जब मंडियों में सरसों नहीं खरीद पाई, तो उसे घोषणा करनी पड़ी कि गरीबों को सरसों तेल के बदले एक तय रकम नगद दी जाएगी। अंत्योदय अन्न योजना और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को हरियाणा सरकार हर महीने दो लीटर सरसों का तेल 20 रुपये प्रति लीटर प्रति परिवार की दर से देती थी। लेकिन अप्रैल, 2021 में जब सरकार सरसों की खरीद नहीं कर पाई तो जून, 2021 में सरकार ने प्रति परिवार 250 रुपये प्रति माह देने की घोषणा की।
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लेकिन किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर सरसों की फसल खरीद कौन रहा है? उस समय सरकारें यह जरूर दावा कर रही थी कि उनकी नीतियों की वजह से किसानों को सरसों की फसल के बढ़िया दाम मिल रहे हैं। लेकिन जब इसका सीधा असर उपभोक्ताओं पर पड़ने लगा और तेल के दाम बढ़ने लगे, तो मोदी सरकार ने मई, 2021 के दूसरे सप्ताह में कहा कि मुंद्राऔर कांडला बंदरगाहों में आयातित खाद्य तेलों का स्टॉक कुछ एजेंसियों द्वारा पैदा की गई समस्या के कारण फंसा हुआ है। कस्टम और भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के अधिकारी समस्या का समाधान कर रहे हैं जिसके बाद आयातित तेल भारतीय बाजार में आने से कीमतें कम हो जाएंगी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ, तो सरकार ने 30 जून, 2021 को कच्चे पाम ऑयल पर लगने वाली बेसिक कस्टम ड्यूटी को 15 से घटाकर 10 प्रतिशत और अन्य पाम ऑयल पर 45 से घटाकर 37.5 प्रतिशत कर दी गई। तब भी तेल के दाम कम नहीं हुए। अगस्त में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए 11,040 करोड़ रुपये का मिशन शुरू किया। लेकिन इसका न तात्कालिक असर होना था, न हुआ।
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अब केन्द्र सरकार ने बढ़ती कीमतों का ठीकरा जमाखोरी पर फोड़ा। राज्य सरकारों से कहा गया कि वे आवश्यक वस्तुअधिनियम (ईसीए) 1955 के तहत मिले अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए कारोबारियों, व्यापारियों, प्रसंस्करण करने वाली इकाइयों को अपने स्टॉक का खुलासा करने को कहे। मोदी सरकार ने लगभग ऐसा ही फैसला दालों के मामले में भी लिया था। यह वही आवश्यक वस्तुअधिनियम, 1955 है जिसे मोदी सरकार ने बदल दिया है और देश के किसान इस कानून का विरोध कर रहे हैं। सरकार ने यह कदम 10 सितंबर, 2021 को उठाया लेकिन इसका कोई असर नहीं दिख रहा। सात साल पहले की तुलना में इस साल मई में जो दाम 30 से 50 फीसदी अधिक थे, अक्तूबर के आखिरी सप्ताह में उनमें 50 से 70 फीसदी तक की वृद्धि हो चुकी है।
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