कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसानों की मुख्य मांगे हैं कि सरकार ने इन कानून के जरिए एमेसपी यानी न्यूनतम समर्थ मूल्य खत्म कर दिया है और कार्पोरेट को बाजार से खुली खरीद की छूट दे दी है। किसानों का कहना है कि ऐसा होने से कार्पोरेट फसलों के दाम खुद तय करेंगे और मनमर्जी कीमतों पर फसल खरीदेंगे। इससे किसानों को लागत निकालना भी मुश्किल हो जाएगी। आखिर सरकार एमएसपी लागू करने से क्यों बच रही है, यह समझना जरूरी है।
मोदी सरकार दावा तो करती है कि वह किसानों को उनकी फसलों की लागत का डेढ़ एमएसपी देगी। यानी जितना पैसा किसान द्वारा फसल उगाने में लगा है उसका डेढ़ गुना। तो फिर दावा करने के बाद भी सरकार एमएसपी लागू करने से बच क्यों रही है। दरअसल अगर सरकार एमएसपी लागू करती है तो उसके बजट का बड़ा हिस्सा एमएसपी पर ही खर्च होगा। विशेषज्ञों का अनुमान है कि मौजूदा एमएसपी पर अगर सरकार फसलें खरीदती है तो उसे करीब 17 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे।
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यहां जानना जरूरी है कि केंद्र सरकार कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिश पर हर साल करीब 22 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी तय करती है। इनमें खरीफ सीजन की 14 फसलें हैं और रबी की छह फसलें हैं। इसके अलावा जूट और कोपरा के लिए भी एमएसपी तय की जाती है। साथ ही गन्ने के लिए फेयर एंड रिम्यूनरेटिव प्राइस यानी एफआरपी तय की जाती है।
हालांकि एमएसपी पर सरकार सिर्फ धान और गेहूं की खरीद व्यापक पैमाने पर करती है, क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए इन दोनों अनाज की जरूरत होती है।
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इसके अलावा दलहनों और तिलहनों की खरीद भी प्रमुख उत्पादक राज्यों में होती है, लेकिन यह खरीद उसी सूरत में होती है, जब संबंधित राज्य फसल का बाजार भाव एमएसपी से कम होने पर इस बाबत प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजते है। विशेषज्ञों का कहना है कि एमएसपी निर्धारण का मतलब है यही है कि किसानों को फसलों का इतना भाव अवश्य मिलना चाहिए। इसलिए जब किसी दलहन व तिलहन की फसल का बाजार भाव एमएसपी से कम हो जाता है, तो वहां सरकारी एजेंसी किसानों से एमएसपी पर खरीद करती है।
लेकिन सारी फसल सरकार ही खरीदे ऐसा नहीं है। सरकार कुल फसल उत्पादन का करीब एक तिहाई हिस्सा ही खरीदती है, ऐसे में बाजार भाव ऊपर जाना स्वाभावित है। इस तरह किसानों को अपनी फसल का वाजिब दाम मिलने लगता है। वहीं कुछ राज्यों में सरकार मक्का व अन्य फसलें भी खरीदती है।
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एमएसपी पर खरीद अनिवार्य करने का मतलब यह भी है कि निजी कारोबारियों को इससे कम दाम पर फसल खरीदने की छूट नहीं होगी। कृषि अर्थशास्त्री विजय सरदाना ने आईएएनएस के साथ बातचीच में कहा कि अगर प्राइवेट सेक्टर के लिए एमएसपी पर खरीद अनिवार्य किया जाएगा, तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में फसलों का भाव ज्यादा होने पर निजी कारोबारी आयात करना शुरू कर देगा। ऐसे में सरकार को सारी फसल किसानों से खरीदनी पड़ेगी, तो आज के रेट के हिसाब से इसके लिए सरकार को 17 लाख करोड़ रुपये खर्च करना होगा। यह सरकार के बजट का एक बड़ा हिस्सा होगा। इसके बाद एक लाख करोड़ रुपये फर्टिलाइजर सब्सिडी और एक लाख करोड़ रुपये फूड सब्सिडी यानी खाद्य अनुदान पर खर्च हो जाएगा।
ध्यान रहे कि भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2020-21 में 30,42,230 करोड़ रुपये के व्यय का प्रस्ताव रखा है, जोकि 2019-20 के संशोधित अनुमान से 12.7 फीसदी अधिक है।
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एक और बात है जो इस बारे में देखना सही है, और वह यह कि अगर सरकार को सारी फसलें खरीदनी पड़ेगी तो उसके भंडारण को लेकर भी मुश्किलें पैदा होंगी। सरदाना कहते हैं कि एमएसपी अनिवार्य करने में एक फसल की क्वालिटी को लेकर भी मुश्किलें आएंगी क्योंकि यह तय करना होगा कि किस क्वालिटी का एमएसपी होगा और उससे कमजोर क्वालिटी का क्या रेट होगा और कौन खरीदेगा।
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प्रदर्शनकारी किसानों को नये कृषि कानून के बाद एमएसपी पर खरीद जारी रखने को लेकर आशंका है। इस पर खाद्य सचिव सुधांशु पांडेय का कहना है कि देश में जब तक सार्वजनिक विरतण प्रणाली रहेगी तब तक सरकार को एमएसपी पर अनाज खरीदना ही पड़ेगा, इसलिए यह आशंका निराधार है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा लाए गए नए कृषि कानून से एमएसपी पर खरीद में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि एमएसपी खाद्य सुरक्षा से जुड़ा है।
किसानों का भी यही कहना है कि अगर नए कृषि कानून आने से एमएसपी पर फर्क नहीं पड़ेगा तो फिर एमएसपी खत्म क्यों की जा रही है।
(आईएएनएस इनपुट के साथ)
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