किसी भी देश के नागरिकों को अपने देश के किसी भी कोने में बिना किसी से मंजूरी लिए रहने और काम करने का अधिकार होता है. आम तौर पर स्थानीय प्रशासन अपने इलाके में रहने वाले हर शख्स की सुरक्षा और कल्याण के लिए जिम्मेवार होता है. विदेशों में रहने और काम करने के लिए वीजा और वर्क परमिट की जरूरत होती है. वहां जिम्मेदारियां भी थोड़ी बंटी होती है. कोरोना वायरस के फैलने से दोनों ही मामलों में समस्याएं सामने आईं हैं. विदेशों में रहने वाले भारतीयों को, चाहे वुहान रहा हो, या तेहरान, भारत सरकार को वापस लाना पड़ा है. दूसरी ओर जर्मनी, रूस, यूक्रेन और इस्राएल जैसे देश भारत में रहने वाले अपने नागरिकों को लॉकडाउन के बावजूद वापस ले गए हैं.
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आप्रवासियों या प्रवासियों की एक मनःस्थिति होती है. संकट की घड़ी में वे अपने वतन में, अपने घर में और अपनों के बीच सुरक्षित महसूस करते हैं. उन्हें लगता है कि वे अपनों की देखभाल कर पाएंगे और अपने उनकी देखभाल कर पाएंगे. असुरक्षा और सुरक्षा की यही भावना उन लोगों में दिख रही थी जिन्हें पिछले दो दिनों में जर्मन सरकार भारत से जर्मनी लाई है. यही भावना उन भारतीयों में भी है जो अस्थायी रूप से जर्मनी में रह रहे हैं, भारत जाना चाहते हैं लेकिन विमान सेवाओं के बंद होने के कारण जा नहीं पा रहे हैं.
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भारत में जर्मन दूतावास और जर्मनी में भारतीय दूतावास अपने अपने नागरिकों को सहारा देने की कोशिश कर रहे हैं. उनसे भारत की प्रांतीय सरकारें भी सीख ले सकती हैं. भारत जैसे विशाल देश में अगर प्रांतों में दूसरे प्रांतों का प्रतिनिधि दफ्तर हो जो अपने प्रांत के वहां रहने और काम करने वाले लोगों का ख्याल रखे तो वह नौबत ना आए जो पिछले दिनों देखने को मिला है. घरों के लिए सड़कों पर पैदल निकले प्रवासी मजदूर, सिर पर सामान की गठरी और गोद में छोटे बच्चे लिए. उनकी परेशानी का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है. उस पर से ऐसे कुछ मजदूरों की पीटती, उनसे उठक बैठक करवाती स्थानीय पुलिस. बाहरी प्रांतों के मजदूरों की स्थानीय प्रशासन सहायता करेगा, यह मिथक टूट गया है.
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अब प्रांतीय सरकारों को अपने मजदूरों की सुरक्षा के लिए सरकारी ढांचा बनाने की जरूरत है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अच्छी पहल की है. साथी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर अपने प्रांत के मजदूरों का ख्याल रखने को कहा है और साथ ही यह भी कहा है कि इसका खर्च उनकी सरकार उठाएगी. उन्होंने यह भी भी वादा किया है कि दूसरे प्रांत के मजदूरों का उनके प्रांत में ख्याल रखा जाएगा और उसका खर्च भी मध्य प्रदेश की सरकार उठाएगी. इसी तरह के पत्र बिहार और बंगाल जैसे दूसरे प्रांतों के मुख्यमंत्रियों ने भी अपने साथियों को लिखे हैं.
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मनमोहन सिंह की सरकार ने पहली बार 2004 में विदेशों में काम करने वाले भारतीयों को राष्ट्रविरोधी और भगोड़ा समझने के बदले उन्हें देश के लिए विदेशी मुद्रा की आय का स्रोत समझा था और उनका ख्याल रखने के लिए प्रवासी भारतीय मंत्रालय बनाया. राज्यों को भी प्रवासी मामलों का मंत्रालय बनाना चाहिए. भारत में 45 करोड़ घरेलू प्रवासी हैं जो देश में ही दूसरे इलाकों में रहते हैं. इनमें से ज्यादातर अपने जिले या राज्य में ही दूसरी जगह पर रहते हैं, लेकिन 2017 के आर्थिक सर्वे के अनुसार 10 करोड़ से ज्यादा दूसरे प्रांतों में काम करते हैं. ये संख्या इतनी भी कम नहीं है जिसके कल्याण के बारे में ना सोचा जाए. इसलिए भी कि वे सालाना करीब 130 अरब यूरो कमाते हैं और इसका करीब एक तिहाई 40-45 अरब यूरो उत्तर और पूर्वी भारत में अपने परिवारों को भेजते हैं.
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ये हालत तब है जब कोई ये ख्याल नहीं रख रहा है कि उन्हें उचित तनख्वाह मिल रही है या नहीं. न्यूनतम वेतन से कम के आकलन के बावजूद ये रकम भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद के दो फीसदी के बराबर है. इस ट्रांसफर का भारत के गरीब प्रांतों के लिए महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि 2019 के बजट के हिसाब से भारत सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य पर सिर्फ 20 अरब यूरो खर्च किया है. भारत के राज्य अगर इसे समझें और देश की संघीय व्यवस्था में एक दूसरे के साथ सहयोग करें तो दक्षिण के उन्नत राज्यों को मजदूर मिलेंगे और उत्तर के पिछड़े राज्यों को बेरोजगारी कम करने में तो मदद मिलेगी ही, राज्यों का विकास करने के लिए पर्याप्त संसाधन भी मिलेंगे.
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