नागरिकता (संशोधन) विधेयक को लेकर आम लोगों में जिस तरह का गुस्सा है, सड़कों पर उत्पात मचाया जा रहा है, प्रशासन नाम की चीज लगभग गायब हो गई है, उससे लगता तो यही है कि असम में 1983 जैसे हालात आ गए हैं। तब, इसी तरह की स्थितियों में असम आंदोलन सुलग उठा था। उस दौरान 855 असमिया युवाओं ने अपनी जान दे दी थी। 1983 में नेल्ली नरसंहार की घटना भी हुई थी जब भीड़ ने 2,191 बांग्ला भाषी मुसलमानों की हत्या कर दी थी। केंद्र की नरेंद्र मोदी- अमित शाह सरकार ने वही हालात फिर से पैदा कर दिए हैं।
असम के लोगों को स्वाभाविक ही लग रहा है कि इस कानूनके जरिये हिंदू बांग्लादेशियों को असम में बसाया जाएगा और असमिया लोग अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। ब्रिटिश राज में एक बार असमिया भाषा को हटाकर बांग्ला को राजभाषा बना दिया गया था। तब काफी संघर्ष कर असमिया को राजभाषा का दर्जा मिल पाया था। अतीत के उस दंश को असमिया लोग भूले नहीं हैं।
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असम के लोग एनआरसी की पीड़ादायक प्रक्रिया से होकर हाल ही में गुजरे हैं। उनको लगता था कि 24 मार्च, 1971 ही कट ऑफ तिथि है जिसके आधार पर विदेशियों का बहिष्कार होगा। नए कानून में यह तिथि 31 दिसंबर, 2014 निर्धारित कर दी गई है जो असम समझौते का उल्लंघन है और जो एनआरसी को भी अप्रासंगिक बना देगी।
यही वजह है कि समाज के सभी तबके के लोग सड़क पर उतरकर प्रतिवाद कर रहे हैं। मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल को खलनायक बताया जा रहा है। प्रसिद्ध फिल्मकार जाहनु बरुवा ने राज्य सरकार का पुरस्कार लौटाकर विरोध जताया है। असम के प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता रवि शर्मा ने बीजेपी की सदस्यता छोडते हुए कहा हैः नागरिकता संशोधन विधेयक पर बीजेपी के अड़ियल रुख को देखते हुए मैं त्यागपत्र दे रहा हूं। इस लड़ाई में मैं जनता के साथ रहना चाहता हूं। इससे पहले लोकप्रिय गायक जुबीन गर्ग की अगुवाई में राज्य के कलाकार विरोध प्रदर्शन कर चुके हैं। सभी शैक्षणिक संस्थानों में छात्र मशाल जुलूस निकालकर विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं। 10 दिसंबर को पूर्वोत्तर राज्यों के छात्र संगठनों के मंच- पूर्वोत्तर छात्र संगठन की तरफ से आहूत बंद को व्यापक जनसमर्थन मिला।
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राज्य में सभी तबके के लोग इस कानून को भारत के संविधान की आत्मा पर प्रहार मानते हैं। उनका मानना है कि यह कानून संविधान में दिए गए नागरिकता, समानता और न्याय के सिद्धांतों का हनन करता है। असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने कहा है कि असम गण परिषद (एजीपी) इस विधेयक का विरोध जारी रखेगी। इस कानून के चलते असम और पूर्वोत्तर की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान बिखर जाएगी। जब उनसे पूछा गया कि असम गण परिषद के अध्यक्ष अतुल बोरा ने विधेयक का समर्थन कैसे किया है तो उन्होंने कहा कि यह बोरा का निजी विचार हो सकता है, पार्टी कभी इसके समर्थन के बारे में सोच भी नहीं सकती।
असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी कहा कि हमें गांधी जी के अहिंसक आंदोलन का अनुसरण करते हुए सड़क पर उतरकर इस कानून का विरोध करना पड़ेगा। जब लाखों लोग सत्याग्रह करते हुए जेल जाना पसंद करेंगे तो मोदी सरकार जनता की आवाज सुनने के लिए मजबूर हो जाएगी। हम लोगों ने ब्रिटिश सरकार को झुका दिया था, तो फिर मोदी सरकार को भी झुकने के लिए मजबूर कर सकते हैं।
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वरिष्ठ पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैदर हुसैन ने कहा कि असमिया लोगों के अस्तित्व के सामने संकट उत्पन्न हो गया है। यह विधेयक असमिया समाज की रीढ़ को तोड़कर रख देगा और असम के समाज के भाईचारे को समाप्त कर देगा। इस विधेयक के जरिये पूर्वोत्तर की जनजातियों में फूट डालने की साजिश रची गई है, इसीलिए हम लोगों को एकजुट होकर इस साजिश को नाकाम करना होगा।
प्रसिद्ध बुद्धिजीवी डॉ. हीरेन गोहाईं भी इसी राय के हैं। उन्होंने साफ कहाः कोई भी असमिया व्यक्ति इस कानून का समर्थन नहीं कर सकता। ऐतिहासिक रूप से असमिया लोगों की अपनी विशिष्ट पहचान है। इस विधेयक को लागू करने पर असमिया लोग अल्पसंख्यक बनकर जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे। इसके खिलाफ छात्रों ने राज्य भर में जो आंदोलन शुरू किया है, मैं उसका समर्थन करता हूं।
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कृषक नेता अखिल गोगोई ने कहाः यह अलोकतांत्रिक कानून है जो संविधान का उल्लंघन करता है। असमिया लोग इसे हरगिज स्वीकार नहीं करेंगे। अगर यह विधेयक लागू हो गया तो कोई बंगलादेशी असम का मुख्यमंत्री बन जाएगा और बांग्लादेश के एक करोड़ सत्तर लाख हिंदू असम आकर भारतीय नागरिक बन जाएंगे। मोदी सरकार धर्म के आधार पर असम के समाज में फूट डालने की साजिश रच रही है। किसी भी हालत में हम लोग इस साजिश को सफल होने नहीं देंगे।
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