प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन के दूसरे चरण को 14 अप्रैल से 3 मई तक बढ़ाने का ऐलान किया था तो उनका फोकस आगे की तैयारियों के बजाए निरर्थक मुद्दों पर ज्यादा था। पूरे देश में कोरोना टेस्टिंग किट्स की उपलब्धता बढ़ाना सिर्फ भाषण तक सीमित साबित हुआ। इसका प्रमाण है कि देश के कई प्रदेशों में केंद्र की ओर से उपलब्ध कराई जा रही खराब किटों से कोहराम मचा हुआ है। इसी तरह देश के हर प्रदेश में बिना काम के भूखे-प्यासे फंसे प्रवासी श्रमिकों को सुरक्षित तौर पर उनके ठिकानों पर पहुंचाने के रोडमैप पर वे अब तक चुप हैं। क्योंकि करोड़ों गरीब लोगों के पास अपनी बात उठाने का कोई मंच नहीं है।
अब लॉकडाउन-2 के अंतिम चरण में आगामी 27 अप्रैल को मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग बैठक करने की जहमत तब उठाई जा रही है, जब कई प्रदेश कोरोना से निपटने में संसाधन और भयावह नकदी के संकट से जूझ रहे हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने राज्य को केंद्रीय सहायता, सीएसआर कोटे में राज्य के उद्योगों की ओर से हाल में प्राप्त पीएम केयर फंड की राशि, उनकी योजनाओं के कोटे का बजट, टैक्स और जीएसटी फंड में उनके हिस्से की रकम उन्हें तत्काल मुहैया कराने में हीला हवाली का आरोप लगाया है।
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केंद्र की मोदी सरकार के इस गलत व्यवहार पर कई प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने खुलकर रोष जताया हैं, खासकर जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इस संकटकाल में हालात से निपटने में सहयोग के बजाय मोदी सरकार पर पश्चिम बंगाल के साथ बदले की भावना से असहयोग करने का आरोप लगाया है।
दरअसल मोदी सरकार ने पिछला पूरा महीना राज्यों के साथ समन्वय बढ़ाने के अधिक प्रयास करने, केंद्र से उनकी शिकायतें दूर करने और सिर्फ लॉकडाउन को ही उपचार मानने की गलतफहमी से बाहर निकलने की कोशिशों को भगवान भरोसे छोड़ कर गंवा दिया। क्या दुनिया में कई देश ऐसा होगा, जिसके देश के भीतर ही करीब 4 करोड़ प्रवासी आबादी हो और उन साधनहीन लोगों को बिना कोई पूर्व सूचना दिए ही उनको अपने हाल पर मरने या चौराहे पर बिना किसी सहारे के छोड़ दिया गया हो।
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लॉकडाउन के एक माह बीतने के बाद भी केंद्र सरकार की ओर से प्रवासी श्रमिकों के लिए कोई राहत पैकेज घोषित नहीं किया गया। देश भर में जगह-जगह भूखे-प्यासे और अभावों में फंसे इन करोड़ों श्रमिकों के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की घोषणा में एक भी शब्द नहीं था। बिना रोजगार के एक माह से छोटे-छोटे कमरों में परिवार और ज्यादातर जगहों पर एक ही कमरे में 10 से 15 प्रवासी श्रमिक बिना रोजी-रोटी के दिन गुजारने को विवश कर दिये गए।
कई क्षेत्रों में बिना राशन कार्ड के भी सबको राशन देने की घोषणा तो हुई लेकिन जमीन पर हालात वैसे के वैसे हैं। प्रवासी मजदूरों में अधिकांश के पास कोई राशन कार्ड नहीं है। न उनके पास पैसे बचे हैं और न ही लॉकडाउन में घरों को जा पा रहे हैं। इन्हें विवश होकर आम दूकानों से ऊंची कीमतों पर राशन पानी लेने को विवश होना पड़ रहा है।
जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर ज्यां द्रेज भारत के उन प्रमुख अर्थशास्त्रियों में शामिल हैं जो मानते हैं कि केंद्र सरकार को सबसे पहले देश के हरेक परिवार और व्यक्ति को सस्ते गल्ले से राशन की सुविधा का लाभ कम से कम आगामी एक वर्ष तक देने की घोषणा करनी चाहिए थी। ज्ञात रहे कि प्रोफेसर ज्यां द्रेज मनरेगा जैसी योजनाओं का ब्लूप्रिंट तैयार करने के प्रमुख सूत्रधार रहे हैं।
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इसी तरह की मांग कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी पीएम मोदी को 13 अप्रैल को एक पत्र लिखकर की है। खाद्य सुरक्षा योजना का विस्तार करने, मुफ्त अनाज को तीन माह तक देने और जिनके पास भी देश भर में राशन कार्ड नहीं है, उनको भी अपने परिवार की गुजर-बसर के लिए पर्याप्त राशन-पानी दिया जाए।
मोदी सरकार का सबसे कमजोर पक्ष यही रहा है कि उसने अपने ही देश में केरल जैसे प्रदेशों का अनुसरण करने से मुंह मोड़ लिया। जबकि जनवरी में सबसे पहले केरल में ही पहला संक्रमित रोगी पाया गया था। बिना वक्त गंवाए केरल सरकार ने बेहद ठोस आईसोलेशन स्वास्थ्य व्यवस्था के अलावा समाज के हर तबके के नागरिकों के लिए जरूरत के सामान की सुलभता सुनिश्चित करने के लिए सभी संभव कदम उठाए।
इंडियन स्टैटिकल इंस्टीट्यूट बंगलुरु की प्रोफेसर मधुरा स्वामीनाथन कहती हैं, “सबसे बड़ी बात तो यह है कि केरल अकेला ऐसा प्रदेश है, जिसने सीमित संसाधनों के बावजूद राज्य में उन हजारों श्रमिकों को सीधी राहत दी, जो लॉकडाउन के बाद बेरोजगार हो गए और उनके पास रहने खाने का ठिकाना तक नहीं रहा।"
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प्रधानमंत्री मोदी की अपील का निजी और असंगठित क्षेत्र पर कोई असर नहीं पड़ा है। बड़े पैमाने पर देशभर में निजी क्षेत्र की ईकाइयों में छंटनी तेज हो गई है। देश भर में जिला श्रम कार्यालयों में लॉकडाउन के बाद नौकरियों से निकाले जाने की खबरों की बाढ़ सी आ गई है। नोएडा में ज्यादातर बड़ी और करोड़ों का टर्नओवर करने वाली कंपनियों ने भी प्रधानमंत्री की अपील ठुकराते हुए अपने संस्थानों में छंटनी और भी तेज कर दी।
ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) की महासचिव अमरजीत कौर कहती हैं, "यह हैरत है कि प्रधानमंत्री का देश के हालात पर कहीं कोई नियंत्रण ही नहीं है। उनके पास इस तरह के आंकड़े जुटाने की फुर्सत ही नहीं है कि दिल्ली के साथ ही नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद में क्या हो रहा है।" दूसरी ओर देश के हरेक प्रदेश में नामी गिरामी निजी कंपनियों में बेशर्मी से कर्मचारियों और श्रमिकों को लॉकडाउन खत्म होने के पहले ही नौकरियों से निकालने की होड़ लगी है।
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