महामारी के दिनों से 'विश्वास' शब्द किसी तरह की आशंका दूर करने के लिए जादुई छड़ी-जैसा है। विज्ञान के स्वयंभू हाई प्रीस्ट डॉ. एंथनी फॉसी द्वारा प्रसारित इस मुहावरे की याद हैः 'विज्ञान पर भरोसा रखें'? इस आकर्षक वाक्य ने विज्ञान को परिभाषित किया जैसा कि वह और उनके अनुयायियों की इच्छा थी। इससे अलग विचार रखने वाले लोगों को गलत सूचना फैलाने वाले षडयंत्रकारी विचारक कह दिया गया। विज्ञान के लिए बहुत ही जरूरी असहमति और बहस को दबा दिया गया। विज्ञान हठधर्मिता में विकृत हो गया।
दुनिया ने आंखें मूंदकर उस अमेरिका का अनुसरण किया जिसने आंखें बंदकर फॉसी का अनुसरण किया। सभी वैज्ञानिक सिद्धांतों के उल्लंघन के बावजूद उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि अगर आप उन पर हमला करेंगे, तो आप विज्ञान पर हमला कर रहे हैं। अल्बर्ट आइन्स्टीन ने चेतावनी दी कि 'शक्ति को बिना सोचा-समझा आदर सत्य का सबसे बड़ा दुश्मन है।' एंथनी फॉसी के प्रभामंडल ने सुनिश्चित किया कि उन्हें चुनौती न दी जाए। आखिरकार, वह मनुष्य थे। कोई आलोचक न होने ने उन्हें मजबूत बनाया। वह लापरवाह हो गए और निश्चय करने में उन्होंने गलतियां कीं। इससे मानवता को नुकसान हुआ और भावी पीढ़ी उन्हें सहृदयता से याद नहीं करेगी।
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हम वैसी ही हालत झेल रहे हैं- राजनीति में और विज्ञान में भी। विज्ञान आज वैज्ञानिक सिद्धांतों की जगह राजनीति से दिशानिर्देश ले रहा है। दो बार चुनाव जीतने और तीसरी बार भी जीतने की आस लगाने वाले सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के नेता फॉसी की तरह ही आलोचना का स्वागत नहीं करते। जिस तरह फॉसी ने कहा कि अगर आप उनकी आलोचना करते हैं, तो आप विज्ञान की आलोचना करते हैं, इन नेताओं के दर्प और उनके आंखें मूंदे समर्थकों की नजर में, अगर आप उनकी आलोचना करते हैं, तो आप राष्ट्रीय हित की आलोचना करते हैं।
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में एक कठोर संपादकीय में अब्बासी ने लिखा था कि 'जब अच्छे विज्ञान को मेडिकल-राजनीतिक गठजोड़ द्वारा दबाया जाता है, तो लोग मरते हैं।' क्या संसद से बिना बहस ही हाल में पारित 'जन विश्वास विधेयक' द्वारा मासूम लोगों के साथ इसी किस्म की धोखाधड़ी के लिए हम अभिशप्त हैं?
लोकसभा ने 29 जुलाई और राज्यसभा ने 2 अगस्त को जन विश्वास (प्रावधान संशोधन) विधेयक पारित किया। विधेयक को दिसंबर, 2022 में पेश किया गया था और इसे समीक्षा के लिए संसदीय समिति को भेज दिया गया था। यह देश में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बढ़ावा देने के खयाल से 42 कानूनों में 183 प्रावधानों को प्रमुख तौर पर दंड से मुक्त करता है। इसमें औषध एवं प्रसाधन कानून, 1940 में संशोधन के जरिये कुछ अपराधों के लिए 'अर्थदंड लगाकर मुक्ति' का प्रावधान है, मतलब, जेल जाने की जगह अर्थदंड चुकाकर मुक्ति मिल सकती है। इसके जरिये औषध एवं प्रसाधन कानून, 1940 के सेक्शन 27 (डी) में संशोधन किया गया। यह ऐसे अपराधों को 'अर्थदंड लगाकर मुक्ति' की अनुमति देता है जिसमें समझौता हो सकता है और जहां शिकायतकर्ता अपने आरोप वापस लेने पर सहमत हो सकता है। शुक्र है, गैर-अर्थदंड-मुक्ति वाले अपराध अधिक संगीन अपराध हैं जिनमें समझौता नहीं हो सकता है।
प्रथम दृष्टि में, यह एक अन्य आकर्षक मुहावरे 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन' को प्रकट तौर पर पुष्ट कर रहा है जो बिजनेस के लिए फार्मास्युटिकल उद्योग के लिए भारत को पसंदीदा देश बनाएगा। यह लोगों की सुरक्षा और स्वास्थ्य के साथ समझौता होगा या नहीं, यह बहस का विषय है। दुनिया की फार्मेसी बनने की दौड़ में क्या गुणवत्ता को नुकसान होगा?
चर्चा में रही किताब 'द ट्रुथ पिल' के लेखक दिनेश ठाकुर ने ट्वीट किया कि 'बहुत छोटी-सी बहस के साथ जन विश्वास विधेयक, 2023 को पारित संसद के दोनों सदनों से पारित कर दिया गया। यह विधेयक उद्योग की इस बहुत पुरानी इच्छा को पूरा करता है कि किसी घटिया दवा से आपको शारीरिक नुकसान होता है, तब भी किसी को दंड के लिए जिम्मेदार नहीं माना जाएगा।' सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी यह कहकर चिंता जताई कि 'जब हम कोई दवा खरीदते हैं, तो हम मानते हैं कि सरकार ने इसका परीक्षण किया है कि यह काम करेगी और हमें नुकसान नहीं पहुंचाएगी। लेकिन प्रस्तावित संशोधन वैसी दवाओं के लिए दंड को घटा देगा जो अच्छी गुणवत्ता वाली नहीं हैं। यह बड़े उद्योग के लिए लाभकारी है लेकिन हम सब के लिए नुकसानदायक है। बहुत खतरनाक।'
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अलग से भी, दोनों सदनों सेे पारित जन विश्वास विधेयक संशोधन का घटिया दवा के लिए दंडात्मक कार्रवाई पर नरम रुख रखना पर्याप्त गंभीर है। जन स्वास्थ्य के गोलपोस्ट के साथ छोटी लेकिन बढ़ती जगह वृहत्तर संदर्भ में लेने पर यह मुद्दा डरावना बन जाता है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और बायोटेक्नोलॉजी विभाग इस वक्त कुछ जगहों से आए ऐसे अनुरोधों पर विचार कर रहे हैं जो अगर स्वीकार कर लिए गए, तो बाजार में आने से बायोसिमिलर (ऐसी दवा जो एक अन्य स्वीकृत बायोलॉजिकल उत्पाद है) के लिए तय नियमों को ढीला कर देंगे। दवाओं को कम कीमत का बनाकर उन्हें वहन करने योग्य बनाने के प्रयास में ये छूटें रोगी की सुरक्षा के साथ समझौता होगा।
एनीमिया और अन्य कमियों वाले रोगों से मुक्त करने में भूमिका के वैज्ञानिक प्रमाण के बिना ही जन वितरण प्रणाली के अंतर्गत फोर्टिफाइड चावल देने की स्कीम जब सरकार ने लागू की, तब भी विज्ञान राजनीति और व्यावसायिक हितों के मामले में पीछे चली गई। और खराब बात यह है कि चावल में आयरन की मात्रा बढ़ाना कुछ लोगों को नुकसान पहुंचा सकता है। एक कदम आगे जाते हुए सरकार ने एनीमिया को मुक्त करने में इसकी विफलता के भविष्य में प्रमाण न जुटाने देने के खयाल से भविष्य के राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे से इस पारामीटर को ही हटाने का फैसला किया है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) पूरे भारत में परिवारों के प्रतिनिधित्व वाले सैंपल में बड़े पैमाने पर, कई चक्रों में किया जाने वाला सर्वेक्षण है। पिछले सर्वे एनएफएचएस-5 ने खुलाया किया था कि देश में 57 प्रतिशत से अधिक महिलाएं और 67 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं। सरकार ने प्रभाव का उचित प्रमाण न होते हुए भी एनीमिया को खत्म करने के लिए बेवजह जल्दबाजी में आयरन-फोर्टिफाइड राइस की स्कीम लागू कर दी। अंततः, सरकार ने खराब सूचना देने वाले और असुविधाजनक सच्चाइयों के संदेशवाहक को ही खत्म कर दिया। इसने तुच्छ आधारों पर इटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज (आईआईपीएस) के निदेशक के एस जेम्स को निलंबित कर दिया।
राजनीतिक तेजी के लिए और व्यापार तथा उद्योग को लाभ पहुंचाने के खयाल से तर्क या विज्ञान के बिना संशोधन लंबे वक्त में लोगों को नुकसान पहुंचाएंगे। सरकार के वैज्ञानिक सलाहकारों को सच्चे तथ्यों और आंकड़ों पर जोर देने का नैतिक साहस दिखाना चाहिए, भले ही इससे उनकी नौकरी पर खतरा हो। और सरकार में रहने वाले लोगों को भी अपने खुशामदी करियर वैज्ञानिकों की तुलना में अपने आलोचकों की बातों पर ध्यान देना चाहिए।
(अमिताव बनर्जी पुणे के डॉ. डी.वाई. पाटिल विद्यापीठ में कम्युनिटी मेडिसिन के प्रोफेसर हैं।)
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