घरेलू सेविकाओं के संगठन पीजीपीएस ने ट्रेड यूनियन का अधिकार मिलने के बाद बीते 22 जून को कोलकाता में एक रैली का आयोजन कर अपने हक की मांग उठाई। अपने किस्म की इस पहली रैली में दो हजार से ज्यादा महिलाएं शामिल हुई थीं। रैली ने इलाके में ट्रैफिक ठप कर दिया था। संगठन ने इन महिलाओं को कई मौलिक सुविधाएं मुहैया कराने की मांग उठाई है। उसने दूसरों के घर का कामकाज करने वाली इन महिलाओं को रोजाना न्यूनतम 54 रुपये प्रति घंटे की दर से मजदूरी देने और घर का शौचालय इस्तेमाल करने की अनुमति देने की मांग की है। संगठन की दूसरी मांगों में हर महीने चार दिन की छुट्टी, वेतन समेत मातृत्व अवकाश, पेंशन, रोजगार का समुचित कांट्रैक्ट, एक वेलयफेयर बोर्ड का गठन और बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था करना शामिल है।
38 साल की तापसी मोइरा का जीवन वर्ष 2014 में घरेलू सेविकाओं के संगठन पीजीपीएस का सदस्य बनने के बाद से ही बदलने लगा है। संगठन ने साल 2014 में ट्रेड यूनियन का दर्जा पाने के लिए आवेदन किया था। उसके बाद तापसी मोइरा लगभग रोज चार घरों का कामकाज निपटाने के बाद श्रम विभाग के दफ्तर जाती थी। यह पता लगाने के लिए कि उनके आवेदन का क्या हुआ। लगभग चार साल के संघर्ष के बाद इस महीने तापसी और उनके जैसी कई महिलाओं की मेहनत रंग लाई है। राज्य सरकार ने उनको ट्रेड यूनियन का प्रमाणपत्र दे दिया है। इससे संगठन की सदस्याओं में भारी उत्साह है।
देश में घरेलू कामकाज करने वाली महिलाएं अब भी असंगठित क्षेत्र में हैं और अकसर इनके शोषण और इनके साथ मारपीट की खबरें सामने आती रहती हैं। लेकिन इनका कोई ताकतवर संगठन नहीं होने की वजह से ऐसे मामलों में कोई कार्रवाई नहीं होती। कई जगह उनसे बहुत ज्यादा काम लिया जाता है और साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं दी जाती। पीजीपीएस की अध्यक्ष विभा नस्कर बीते 13 वर्षों से लोगों के घरों में साफ-सफाई का काम करती हैं। वह बताती हैं, “जिन घरों में हम काम करते हैं, वहां के लोग हमें इंसान नहीं समझते। हमें जो खाना दिया जाता है वह बासी और बेकार होता है।”
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विभा बताती हैं कि कई घरों में घरेलू सेविकाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में दो-तिहाई तादाद महिलाओं की है। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक लाख से ज्यादा महिलाएं यह काम करती हैं। यह महानगर से सटे आसपास के कस्बों से रोजाना तड़के यहां पहुंचती हैं और कई घरों का काम निपटाने के बाद देर शाम घर लौटती हैं।
ट्रेड यूनियन अधिकार मिल जाने के बाद क्या घरेलू सेविकाओं की समस्याएं कम हो जाएंगी? इस सवाल पर विभा बताती हैं कि पहले तो हमें चार साल इस अधिकार के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी। अब ट्रेड यूनियन का दर्जा पाने के बाद हम अपने हक में जोरदार तरीके से आवाज उठा सकते हैं। वह कहती हैं कि बीते 22 जून को आयोजित रैली तो महज शुरूआत थी। अपनी मांगों के समर्थन में समिति बड़े पैमाने पर आंदोलन की रूप-रेखा बना रही है। विभा मानती हैं कि उनकी राह आसान नहीं है। लेकिन ट्रेड यूनियन के दर्जे ने घरेलू कामकाज करने वाली महिलाओं के लिए उम्मीद की एक नई किरण तो पैदा कर ही दी है। विभा कहती हैं, “हम अपने अधिकारों की यह लड़ाई भी देर-सबेर जीत कर रहेंगे।”
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