डमरू लेकर डोले काशी
हौले हौले बोले काशी...।
काशी का यह डोलना ही उसका अपना मिज़ाज है। कब किसी पर डोल जाए या फिर कब किसी से डोल जाए। चुनाव की तारीख जैसे-जैसे करीब आती जा रही है बनारस अपनी मौज में आता जा रहा है। अड़ियां, चाय-पान की दुकानें, बाजार या फिर चकल्लस करती भीड़ के स्वर में तल्खी आने लगी है। अब वह नारे का साथ देने के बजाय खामोश होकर अपनी असहमति का इजहार करने लगी है।
खास तौर पर मोदी मोदी के मारे पर तो और भी। अब उन ठिकाने पर बहस मुबाहिसे की तासीर भी बदलने लगी है जहां मोदी के अलावा कोई नहीं था। एकाएक बदलते परिदृश्य के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ज़ुबान है जिसने उन्हें मुश्किल में डाल दिया है।
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काशी के मन की बात यहां के अड़ियों से जानी जा सकती है। अड़ी मतलब ऐसी जगह जहां सुबह शाम नियमित रूप से कुछ लोग जुटते हों। इनमें ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे या फिर बुद्धिजीवी किस्म के होते हैं, जो देश दुनिया की बातों पर अपनी बेलाग टिप्पणी करते हैं। बनारस में ऐसी जगह को ठीहा भी कहते हैं।
गौदौलिया, दशाश्वमेध, चौक, मैदागिन, लहुराबीर और अस्सी लंका की अड़ियां मशहूर रही हैं। इन पर आम जनता से लेकर बड़े बड़े नेता, प्रोफेसर, डाक्टर, इंजीनियर, कलाकार और पत्रकार तक मौजूद रहते हैं। अड़ियां दर असल बनारस की नब्ज होती हैं। शहर के भीतर क्या चल रहा है, यह जानने के लिए सबसे आसान रास्ता है, इस नब्ज को टटोलना।
इधर बीच प्रधान मंत्री की ओर से गठबंधन और कांग्रेस पर किए जा रहे जुबानी हमले अड़ियों के केंद्र में रहे। मैदागिन की अड़ी पर शिव कुमार, गणेश यादव और प्रकाश बाबू बनारसी अंदाज में बतियाते मिलते हैं- ‘देखा गुरु, ई बनारस है, या कोई क आत्मा नाहि दुखावत। मोदी बाबा राजीव गांधी पर बोल के ठीक नाहि कइलन। अरे भाई जे दुनिया में हौ नाहि ओके ललकारे क का मतलब भयल। ए बात से फरक पड़ी। सही पूछा त बनारस क मन डोले लगल हौ। अगर कहीं काशी डमरू लेके डोल गयल त लेवे के देवे पड़ जाई।..’
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यह सच है कि मोदी के हालिया बयानों ने विपक्षियों को ही नहीं खुद बीजेपी और संघ के खेमे को भी हैरत में डाल दिया है। बीजेपी की एक महिला कर्मठ कार्यकर्ता ने नाम छुपा रखने के आग्रह के साथ कहा कि प्रधान मंत्री की भाषा ठीक नहीं। संघ के एक कार्यकर्ता का तो यहां तक कहना था कि मोदी जी के बड़बोलेपन से पार्टी और संघ की गंभीरता पर बट्टा लग रहा है। उन्होंने चौंका देने वाली जानकारी दी कि संघ के एक घटक ने सच पूछिए तो चुनाव से ही किनारा कस लिया है।
संघ के कार्यकर्ता की इस बात में दम इसलिए भी लग रहा है कि प्रचार में बढ़चढ़ कर भागीदारी करने वाले संघी इस बार तुलना में मैदान में कम दिख रहे हैं। एक दूसरे भाजपाई ने बताया कि सही पूछिए तो संघ के लोगों और बीजेपी के पुराने कार्यकर्ता मोदी के नामांकन के दिन ही बिदक गए थे जब उनके स्थान पर गुजरात से आए लोगों ने मोर्चा संभाल लिया था।
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दशाश्वमेध की अड़ी पर कुछ ऐसी ही बातचीत में मशगूल मिलते हैं-राजा सेठ, विनय सिंह, शुभाशीष और बद्री। यहां भी मोदी जी के जुमले और बेरोजगारों से पकौड़ा तलने की बात पर रार मची हुई थी। इस तरह के रार की संख्या में इजाफे को लेकर सरकारी कर्मचारी संतोष कुमार का कहना है इसे हल्के से लिया जाना ठीक नहीं, आप इसे बदलाव की आहट कह सकते हैं।
अड़ियों से हटकर हाट बाजार में भी चर्चाओं ने उड़ान भरना शुरू कर दिया है। इनमें हर जगह मोदी-मोदी की चर्चा सबसे ज्यादा निशाने पर है। वंदना शर्मा अध्यापिका हैं और मानती हैं ज्यादातर स्थानों पर यह नारा चंद लोगों की ओर से प्रायोजित लगता है। दूसरे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी एक दूसरे को चिढ़ाने के उद्देश्य से भी इसका प्रयोग कर रहे हैं। वे इस बर्ताव को लोकतंत्र के लिए घातक मानती हैं।
बाजार में उठने बैठने वाले कम पैसे वाले अथवा छोटे व्यापारी नोटबंदी के बाद अपने बिजनेस के धराशायी होने का हवाला देने से नहीं चूक रहे। बहुत से ऐसे लोग हैं जो बीजेपी के लोगों का सामना न हो जाए, इस बात से भी परहेज कर रहे।
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काशी अपने सर्वधर्म, समभाव के कारण ही सर्वप्रिय रही है। यही वजह है कि यह धर्म नगरी होते हुए भी कभी कट्टर नहीं हो पाई। साधु संतोष की एक बड़ी जमात काशी के इस स्वभाव की अगुवाई करते मिलते हैं। किंतु, वह यह भी नहीं चाहती कि कोई उसकी आस्था से खिलवाड़ करे।
काशी के धर्मावलंबियों की एक जमात ने मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट कारीडोर और उससे जुड़ी कार्यवाही को दिल से ले रखा है। इस जमात के विरोध को भी बीजेपी शासन में हल्के ढंग से लिया गया। कारीडोर निर्माण में देवी देवताओं की मूर्तियों का टूटना, अनेक मंदिरों का ध्वंस, कई परिवारों का बेरोजगार, बेदखल हो जाना स्थानीय मुद्दे के तौर पर लोगों के मन से बाहर आ रहे हैं।
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने तो आंदोलन ही खड़ा कर रखा है। कांग्रेस ने भी टूटे मंदिरों को बनवाने की बात कर मुद्दे को गरम कर दिया है। मोदी की ओर से यह कहा जाना कि कारीडोर बनवा कर उन्होंने भोले बाबा को मुक्त कर दिया है, भी खासा चर्चा में है। खांटी काशीवासी इस बात को पचा नहीं पा रहा।
कारीडोर निर्माण में जिन रहवासी या दुकानदारों की रोजी-रोटी छिन गई अथवा वे किसी अन्याय के शिकार हुए उनका दर्द अकथनीय है। इन सबकी अकेलेपन पर लड़ाई लेने वाले कृष्ण कुमार शर्मा का मानना है कि चुनाव में इनकी आह जरूर रंग ले आएगी। इस तरह देखा जाय तो मोदी की चुनावी डगर को एकदम से आसान नहीं कहा जा सकता।
यह सही है कि मोदी के मुकाबले कोई ऐसी शख्सियत नहीं है, पर गठबंधन और विरोधी ताल ठोंक कर कह रहे हैं कि इस बार के नतीजा पूर्वांचल सहित बनारस को भी चौंका सकता है।
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