उत्तराखंड क्या सचमुच ओडीएफ यानी खुले में शौच मुक्त राज्य है। ये जानने के लिए तीर्थनगरी ऋषिकेश से बेहतर जगह कौन सी हो सकती है। जहां देश-विदेश से श्रद्धालु आते हैं। जहां गंगा आरती देखने बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। जो योग की राजधानी कहा जाता है। देवभूमि के द्वार के नाम से जाना जाता है। जहां से राज्य के चारधामों की यात्रा शुरू होती है।
ओडीएफ नहीं तीर्थनगरी ऋषिकेश, तो उत्तराखंड कैसे
ऋषिकेश के त्रिवेणी घाट से आगे गंगा नदी के किनारे ये चंद्रेश्वरनगर बस्ती है। ज्यादातर घरों में लोगों ने किराये के लिए कमरे निकाले हैं। जिनमें कई-कई किरायेदार रहते हैं। जबकि इन घरों मे शौचालय सिर्फ एक है। यहां एक सुलभ कॉम्प्लेक्स भी बना है। और जब हम यहां पहुंचे तो इस पर ताला लटका मिला। मैंने इसकी तस्वीर खींची, तो आसपास के लोग खुद-ब-खुद आ गये। मैंने लोगों से शौचालय को लेकर बातचीत शुरू की। जवाहर प्रसाद ने बताया कि ये सुलभ शौचालय बिलकुल सही है। पानी का कनेक्शन है। कुछ समय तक बिजली भी रही। लेकिन 2013 में आई आपदा के बाद से ही इस पर ताला लटका है। वे बताते हैं कि यहां कोई बैठने को तैयार नही, इसीलिए ये शौचालय लोगों के इस्तेमाल के लिए खुल नहीं रहा। मैंने पूछा कि क्या बिना शौचालय के उनका काम चल जाता है, तो यहां के निवासी श्यामरति साहनी ने बताना शुरू किया कि एक-एक घर में 17-17 लोग रह रहे हैं। एक शौचालय से कहां काम चलेगा। इसलिए सुबह सवेरे लोगों को गंगा घाट की ओर ही भागना पड़ता है। चंद्रेश्वरनगर के निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता राजेश शाह हमें घाट के उस ओर भी ले गये जहां लोग सुबह शौच के लिए जाते हैं। जहां नाले का गंदा पानी गंगा में मिलता है।
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इस बस्ती से बाहर निकले तो ऋषिकेश की बरसाती नदी चंद्रभागा के किनारे मलिन बस्ती पर नजर पड़ी। नदी के दोनों तरफ टाट-पट्टियों से पूरी अवैध बस्ती बसी है। जिसमें हजारों की संख्या में लोग रहते हैं। जिनके पास सिर छुपाने को ठीक से छत नहीं, शौचालय कहां से होगा। इस बस्ती के लोग भी चंद्रभागा के किनारे ही शौच मुक्त होते हैं। कुछ दूर आगे चलकर चंद्रभागा के किनारे ही हमें एक नहीं बल्कि दो-दो बायो-ट्वायलेट यानी जैविक शौचालय बने मिले। दोनों पर ही ताले लटके हुए थे। शौचालय के नीचे सूअर छांव की आस में बैठे हुए थे। वहीं थोड़ा आगे बढ़े तो कुछ घोड़े भी बैठे हुए मिले। इनका मल भी चंद्रभागा नदी ही ढो रही थी। इन जैविक शौचालयों के दूसरे छोर पर खड़े जूस वाले ने हमें बताया कि जब मुख्यमंत्री आए थे, उसी समय दो दिन ये शौचालय खुले, उसके बाद से तो इन पर ताले ही लटके रहते हैं। चंद्रभागा का दुर्भाग्य है कि बाजार के लोग भी मल-मूत्र त्याग के लिए उसी के किनारे पहुंचते हैं।
इसके बाद हमने एक और बस्ती का रुख किया। गोविंदनगर मलिन बस्ती है। यहां कूड़े-कचरे के ढेर में ढेरों बच्चे हंसते-मुस्कुराते और खेलते मिले। हमने इनसे पूछा कि शौचालय कहां जाते हो तो सबने दूसरी तरफ बहते नाले की ओर इशारा किया। इस बस्ती की आबादी भी करीब दो हजार की होगी। यहां के लोगों ने महिलाओं के लिए खुद ही पुराने चिथड़े-कपड़े से ढांप कर शौचालय नुमा कुछ बना रखा है। महिलाएं कहती हैं कि हम लोग इसी का इस्तेमाल कर लेते हैं और बस्ती के बाकी लोग तो नाले की तरफ ही शौचालय के लिए जाते हैं।
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ऋषिकेश और कर्णप्रयाग रेलवे लाइन भी शुरू होने को है। तीर्थनगरी के छोटे से रेलवे स्टेशन पर ढेर सारे यात्री बाहर ही बैठे हुए मिले। रेलवे स्टेशन की सड़क के दूसरे ओर एक शौचालय और बना है। जो दरअसल पिछले तीन सालों से बन रहा है। कभी इसका डिज़ायन फेल हो जाता है। तो कभी कुछ और खामी आ जाती है। तो जो यात्री अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। शौचालय की जरूरत पूरी न होने पर इस निर्माणाधीन शौचालय के आजू-बाजू ही निवृत्त हो रहे थे।
तीर्थनगरी ऋषिकेश में ओडीएफ उत्तराखंड के दावे पूरी तरह खोखले नजर आए। जबकि ये क्षेत्र विधानसभा अध्यक्ष हरबंश कपूर का है। जब मैं ताला बंद शौचालयों की तस्वीर ले रही थी, विधानसभा अध्यक्ष की गाड़ी उसी सड़क से गुजर रही थी। जाहिर ये कि तालाबंद जैविक-शौचालयों पर उनकी नजर पड़ती तो होगी ही।
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कैग की रिपोर्ट ने झुठलाए ओडीएफ के दावे
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कैग की रिपोर्ट में वर्ष 2017 में राज्य को खुले में शौचमुक्त यानी ओडीएफ करने की घोषणा पर सवाल खड़े किये गये हैं। उत्तराखंड विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान 20 सितंबर को कैग की रिपोर्ट सदन में पेश की गई। कैग ने अपने भौतिक सत्यापन में पाया कि मई 2017 में उत्तराखंड को ओडीएफ करने की घोषणा गलत थी। उस वक्त राज्य में खुले में शौच मुक्त नहीं हुआ था। गंगा किनारे सात जनपदों में स्थित 132 पंचायतों के 265 गांवों को खुले में शौचमुक्त का दावा कैग की रिपोर्ट में गलत पाया गया। पड़ताल में पाया गया है कि 1143 निजी शौचालयों में से 41 शौचालय तो बन हीं नहीं पाए थे, जबकि34 शौचालय निर्माणाधीन थे। गंगा किनारे की ढलानों पर अब भी कूड़ा डाला जा रहा है, जो नदी में जा रहा है। ऋषिकेश, देवप्रयाग और हरिद्वार में मल शोधन संयंत्रों का कम उपयोग किया जा रहा था। हरिद्वार में 35 एमएलडी सीवर बिना निस्तारण के ही गंगा में डाला जा रहा है। ऋषिकेश में 16 एमएलडी में से सिर्फ 6 एमएलडी सीवर का ही निस्तारण किया जा रहा है।
ओडीएफ पर राज्य सरकार की सफाई
कैग की रिपोर्ट से उठे सवालों ने ओडीएफ उत्तराखंड की स्थिति पर राज्य सरकार को असहज कर दिया। राज्य के अपर सचिव और नमामि गंगे प्रोजेक्ट के निदेशक डॉ राघव लंगर ने बताया कि खुले में शौच से मुक्त ग्राम पंचायतों की घोषणा जनपदों द्वारा बेसलाईन सर्वेक्षण 2012 में निर्धारित लक्ष्यों के आधार पर की गई थी। शौचालयों के निर्माण के बाद अगस्त 2015 से दिसम्बर 2016 के बीच इन ग्राम पंचायतों को खुले में शौच की प्रथा से मुक्त घोषित किया गया था। मौजूदा समय में भी 132 ग्राम पंचायतों में 430 परिवार जिनके पास शौचालय की सुविधा नहीं है वे या तो बेसलाईन सर्वेक्षण 2012 में छूट गये थे या जनसंख्या वृद्धि और परिवार टूटने के कारण बढ़ गये हैं।
अपर सचिव और निदेशक नमामि गंगे डॉ लंगर ने पूरे राज्य के बारे में ये भी बताया कि मई 2018 में जनपदों द्वारा किये गये त्वरित सर्वेक्षण के आधार पर पूरे राज्य में लगभग 83,945 शौचालय विहीन परिवारों को चिन्हित किया गया है। इनके घरों में शौचालय निर्माण के लिए Extra Budgetary Resources के 100.73 करोड़ रुपये की अतिरिक्त रकम की मांग राज्य ने केंद्र सरकार से की है।
ऐसे बने हम ओडीएफ: प्रकाश पंत
ओडीएफ राज्य घोषित होने पर अपनी पीठ खुद थपथपा रही राज्य के निवासी ही सरकार के इस दावे का मखौल उड़ाते हैं। कैग की रिपोर्ट सामने आने के बाद कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत ने कहा कि सीएजी ने जो बिंदु उठाए हैं उनका समाधान कर लिया जाएगा। उन्होंने पिछली सरकार पर जिम्मेदारी थोपते हुए कहा कि 2017 में हमारी सरकार बनने के बाद मार्च से लेकर मई तक तीन महीने में 45 हजार शौचालय बनवाये। इसमें पूरे देश में उत्तराखंड को चौथे राज्य के रूप में ओडीएफ बनने का पुरस्कार मिला।
आंकड़ों में हेरफेर या कागजी शौचालयों से उत्तराखंड ओडीएफ नहीं होने वाला। राज्य में अब भी मलिन बस्तियों में हजारों लोग रहते हैं। वे ओडीएफ उत्तराखंड में खुद को कहां मौजूद पायें। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता मिशन पर कैग ने तो सवाल उठाए हैं। तीर्थनगरी ऋषिकेश में गंगा के किसी शांत किनारे पर उठते बदबू से शहरी क्षेत्रों की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। जो सार्वजनिक शौचालय बने भी हैं उनके ताले मुख्यमंत्री के आने पर ही खुलते हैं। दावे और पुरस्कार से दूर उत्तराखंड सरकार को ओडीएफ के लिए अभी और कड़ी मेहनत करनी होगी।
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