ठीक विधानसभा चुनाव से पहले हरक सिंह रावत के पार्टी से अलग हो जाने से उत्तराखण्ड में सत्ताधारी बीजेपी की चुनावी रणनीति गड़बड़ा गयी है। अब तक बीजेपी गढ़वाल मण्डल में अधिक से अधिक सीटें जीतने के प्रति आश्वस्त हो कर कुमाऊं पर ज्यादा फोकस कर रही थी। चूंकि बीजेपी का असली मुकाबला पूर्व मख्यमंत्री हरीश रावत से ही है और हरीश रावत का गृह क्षेत्र कुमाऊं मण्डल में ही है, इसलिये बीजेपी का फोकस कुमाऊं पर ही अधिक था।
उधर गढ़वाल क्षेत्र में उसके पास हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज, रमेश पोखरियाल निशंक और विजय बहुगुणा जैसे नेता थे जिनके बलबूते उसे एक तरह की बेफिक्री थी। लेकिन हरक सिंह रावत के पाला बदलने के बाद गढ़वाल में भी उसका आधार कमजोर हुआ है।
बीजेपी के लिए चिंता का एक और कारण है, वह यह कि उत्तराखंड को लेकर अब तक जितने भी सर्वे आये उनमें हरीश रावत को मुख्यमंत्री के तौर पर सबसे पसंदीदा नेता माना गया। हरीश रावत के बारे में मतदाताओं की ऐसी राय को प्रायोजित चुनावी सर्वेक्षण भी नहीं झुठला पाये।
बीजेपी की समस्या यह रही कि हरीश रावत की काट के लिये कुमाऊं में उसके पास अकेले भगत सिंह कोश्यारी थे जिन्हें उसने राज्यपाल बनाकर महाराष्ट्र भेज दिया। कोश्यारी पर्दे के पीछे तो सक्रिय हो सकते हैं मगर चुनावी पिच में फ्रंटफुट पर नहीं खेल सकते।
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स्थिति यह है कि बीजेपी को कुमाऊं में व्यापक जनाधार वाले नेताओं की कमी का सामना करना पड़ रहा है। कोश्यारी के बाद अन्य नेताओं में बची सिंह रावत और प्रकाश पन्त का निधन हो चुका है। यशपाल आर्य जैसे बड़े राजनीतिक कद के नेता वापस कांग्रेस में लौट गये है। इसके विपरीत कांग्रेस के पास हरीश रावत के अलावा गोविंद सिंह कुंजवाल, करन महरा और प्रदीप टमटा जैसे नेता हैं। कुंजवाल, महरा और हरीश धामी का जनाधार ही है जो कि वे 2017 की प्रचंड मोदी लहर में भी कांग्रेस के टिकट पर जीत गये।
चर्चा है कि कुमाऊं में कोश्यारी की कमी पूरी करने के लिये ही बीजेपी ने उनके राजनीतिक चेले पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया था। जबकि अजय भट्ट को रमेश पोखरियाल निशंक को हटा कर केंद्र में राज्यमंत्री बनाया गया। मुख्यमंत्री बनने के बाद धामी भी कुमाऊं मंडल का व्यापक दौरा करते रहे हैं और अपना आधार मजबूत करने के लिये वह कई योजनाओं का ऐलान करते रहे हैं। इसके अलावा तराई में सिख मतदाताओं को रिझाने और किसान आंदोलन के असर को खत्म करने के लिए राज्यपाल के तौर पर ले.जनरल (रिटा) गुरुमित सिंह की नियुक्ति के बाद, उनके साथ नानकमत्ता गुरुद्वारे में मत्था टेक चुके हैं।
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वैसे सरकार में इस समय कुमाऊं और गढ़वाल की बराबर की हिस्सेदारी है। धामी मंत्रिमंडल में दोनों मंडलों से 6-6 मंत्री हैं। हालांकि गढ़वाल से बीजेपी के पास 34 विधायक हैं, फिर भी मंत्रियों की संख्या सिर्फ 6 ही है।
पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने गढ़वाल की कुल 41 विधानसभा सीटों में से 34 सीटें जीती थीं और कांग्रेस के हिस्से में सिर्फ 6 सीटें ही आई थीं। गढ़वाल मण्डल में 2017 के चुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के पीछे मोदी लहर के अलावा सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत और विजय बहुगुणा जैसे बड़े नेताओं का कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी खेमे में जाना भी एक कारण था। इन तीनों नेताओं का गढ़वाल में व्यापक जनाधार रहा है, इन्हीं के दम पर बीजेपी एंटी इंकमबैेसी के बावजूद गढ़वाल में जीत की उम्मीद लगाए बैठी थी। बीजेपी गढ़वाल को अपना अभेद्य किला मानती रही, ऐसे में उसने सारा फोकस कुमाऊं पर केंद्रित किया था।
लेकिन इस समय स्थितियां अलग हैं। इस बार हरक सिंह रावत बीजेपी से नाता तोड़ चुके हैं।सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा की घोर उपेक्षा की जाती रही है। दरअसल मुख्यमंत्री बनने की आस लेकर बीजेपी में आए इन नेताओं को धामी जैसे नौसिखिये का मातहत बना दिया गया। इससे पहले भी उन्हें कभी त्रिवेन्द्र रावत द्वारा तो कभी तीरथ द्वारा अपमानित किया गया। इसके अतिरिक्त बी सी खंडूरी और मनोहरकांत ध्यानी जैसे वरिष्ठ नेता एक तरह से निष्किृय हो चुके हैं।
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बीजेपी ने अति आत्मविश्वास में पार्टी अध्यक्ष का पद मदन कौशिक को दियास लेकिन मदन कौशिक के बड़बोलेपन और ऊलजुलूल बयानों के कारण गढ़वाल में उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता। ले दे कर हरक सिंह रावत बीजेपी के खेवनहार हो सकते थे, लेकिन वे साथ छोड़ चुके हैं।
गढ़वाल में आधार खिसकने के बाद बीजेपी को अब कुमाऊं को लेकर भी अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ रहा है। कुमाऊं में 29 सीटें हैं जिनमें से फिलहाल 24 बीजेपी के पास हैं। लेकिन कई चुनावी सर्वेक्षण इस बार बीजेपी के 24 से सिमट कर 10 तक और कांग्रेस के 5 से उछलकर 20 तक पहुंचने का पूर्वानुमान लगा रहे हैं।
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