उत्तराखंड के बहुचर्चित सरकारी नौकरियों में बैकडोर नियुक्ति के मामले में विधानसभा अध्यक्ष द्वारा जांच कराये जाने की घोषणा के बाद घोटालों की गेंद भले ही विधानसभा अध्यक्ष के पाले में चली गई हो मगर सरकार के सिर से यह बला अभी टली नहीं है। क्योंकि मनमानी और गलत तरीके से नियुक्तियों की ज्यादा शिकायतें सरकारी विभागों की हैं। विधानसभा की सीधी भर्तियों में भी मंत्रियों, बीजेपी के नेताओं और यहां तक कि आरएसएस के नेताओं और मुख्यमंत्री कार्यालय में कार्यरत लोगों के नाम भी आ रहे हैं।
इसलिए बदनामी के छींटे पूरे सत्ताधारी प्रतिष्ठान पर पड़ रहे हैं। पिछले 6 सालों में बीजेपी की सरकारों के कार्यकाल में न तो पहले इतना बवंडर उठा था और न ही सत्ता पक्ष की इतनी बदनामी हुई थी। इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव के आलोक में केवल दो पूर्व विधानसभा अध्यक्ष ही नहीं बल्कि कई मंत्री भी संकट में नजर आ रहे हैं। चूंकि छींटे मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर भी पड़े हैं, इसलिए इन असाधारण परिस्थितियों में धामी सरकार को भी काफी महफूज नहीं कहा जा सकता है।
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स्पीकर ऋतु खण्डूड़ी ने जब विधानसभा में बैकडोर नियुक्तियों की जांच का ऐलान किया तो साथ ही यह भी कहा कि वह प्रधानमंत्री की ईमानदारी से बहुत प्रभावित हो कर ही राजनीति में आयीं और उन्होंने प्रधानमंत्री का ‘‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’’ का नीति वाक्य हमेशा शिरोधार्य रखा है। जाहिर है कि उन्हें बीजेपी आलाकमान से कठोर कदम उठाने के निर्देश मिले होंगे।
कठोर कदम इसलिए भी कि इस मामले में कांग्रेस शासन के स्पीकर गोविन्द सिंह कुंजवाल पर भी गंभीर आरोप हैं। लेकिन स्पीकर ऋतु खण्डूड़ी ज्यादा से ज्यादा पिछली नियुक्तियों को रद्द कर सकती हैं। लेकिन जिनकी सिफारिशों पर विधानसभा में नियुक्तियां हुईं उनका वह क्या बिगाड़ लेंगी? जबकि जनता का आक्रोश नौकरी पाने वालों के खिलाफ नहीं बल्कि सत्ता के गलियारे में और सत्ताधारी दल में बैठे सिफारिश करने वाले सफेदपोशों के खिलाफ है।
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विधानसभा की नियुक्तियों की जांच बिठा कर मुख्यमंत्री धामी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो गए। विधानसभा के बाहर सरकारी विभागों में भी बैकडोर नियुक्तियों के नित नये खुलासे हो रहे हैं। पब्लिक डोमेन में मंत्रियों द्वारा नियमों का उल्लंघन कर सीधे नियुक्ति आदेश जारी किये जाने वाले दस्तावेज जारी हो रहे हैं। धामी पिछली विधानसभा के अंतिम दिनों में भी मुख्यमंत्री थे और उस दौरान भी कुछ मंत्रियों ने मानमानियां की थीं।
एक मंत्री ने तो बिहार के अपने नाते रिश्तेदारों की नौकरियां शिक्षण संस्थानों में लगवा दी थी। सहकारिता विभाग में हुई नियुक्तियों के खिलाफ भी बवाल हुआ मगर जांच नहीं हुई। एक मंत्री ने कुछ लोगों की सीधी नियुक्ति के आदेश तक जारी कर दिए। उस मंत्री से इसीलिए सचिवों की भी नहीं नहीं निभी।
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सबसे बड़ा बवंडर अधीनस्थ चयन सेवा आयोग की परीक्षाओं के पेपर लीक मामले में हो रहा है। होगा भी क्यों नहीं? यह गिरोह कई सालों से सरकारी नौकरियां बेचता रहा। सरकार इस मामले में एसटीएफ से जांच करा रही है और उसमें विशेष जांच एजेंसी को काफी हद तक सफलता मिल भी रही है। एसटीएफ ने सरकारी नौकरियों की दलाली कर करोड़ों रुपये कमाने वाले हाकम सिंह सहित इस नेटवर्क से जुड़े कई लोगों को गिरफ्तार तो कर लिया, फिर भी हाकम सिंह की सत्ता के गलियारे में ऊंची पहुंच ने सरकार द्वारा निष्पक्ष जांच कराने के दावे पर सवाल उठा दिये हैं।
यह बात सही है कि हाकम सिंह के जिन सत्ताधारियों के साथ फोटो वायरल हो रहे हैं उनका हाकम के काले कारनामों में शामिल होना जरूरी नहीं है। अक्सर हाकम जैसे लोग अपने नापाक इरादों को अंजाम देने में प्रभावशाली या सत्ताधारी लोगों से अपने मतलब के लिये करीबियां बढ़ाते ही हैं और इन करीबियों का प्रचार भी करते हैं। मंत्री या आला अफसर हाकम सिंह के काले कारनामों में साथ हों या न हों मगर उनके कारण हाकम अपना प्रभाव बढ़ाने में कामयाब अवश्य रहा। इसलिए जितने पूर्व और वर्तमान सत्ताधारियों से हाकम की करीबियां रहीं, उनके दामन तक कुछ न कुछ छींटे अनजाने में ही सही, मगर चले तो गये ही हैं। सोशल मीडिया में हाकम के साथ सत्ताधरियों की तस्वीरों में लोगों को नेताओं के असली चेहरे अब नजर आ रहे हैं।
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उत्तराखंड विधानसभा में मनमानी नियुक्तियां किसी से छिपी नहीं हैं। लेकिन जांच तब हो रही है जब सरकारी विभागों में नौकरियों के रैकेट के खुलासे से बवंडर मच गया। सरकार शयद ये सोच रही है कि विधानसभा की बैकडोर भर्तियों के मामले में कांग्रेस के स्पीकर गोविन्द सिंह कुंजवाल के साथ अपने प्रेम चन्द अग्रवाल की बलि चढ़ाने से सारे पाप कट जाएंगे। इसलिए सरकार ने अपने विभागों और मंत्रियों की ओर उठ रही उंगलियों की दिशा विधानसभा की ओर मोड़ दी।
लेकिन इससे भी सरकार का संकट कम होता नजर नहीं आता। स्पीकर के रूप में कुंजवाल और प्रेमचन्द ने केवल अपने रिश्तेदारों या चहेतों की नियुक्तियां नहीं कीं। उन्होंने जितनी ज्यादा नौकरियां दी उतने ही ज्यादा प्रभावशाली या सत्ताधरी लोगों को लाबान्वित किया है। पता चला है कि कुंजवाल ने अपने जमाने में बीजेपी के कुछ नेताओं को भी उपकृत किया था। वही स्थिति प्रेम चन्द अग्रवाल की भी है। बीजेपी के शासन में आरएसएस नेताओं की बात टालने की मजाल किसी में नहीं होती।
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बीजेपी में एक संगठन महामंत्री होता है जिसकी नियुक्ति संगठन नहीं बल्कि आरएसएस करता है। भले ही प्रदेश संगठन की कार्यकारिणी भंग हो जाए मगर संगठन मंत्री या महामंत्री अपने पद पर तब तक बना रहता है जब तक आरएसएस चाहे। वह न केवल सरकार पर नजर रखता है, अपितु सरकार को इशारे पर चलाता भी है। उत्तराखंड विधानसभा में आरएसएस के कुछ नेताओं के प्रभाव से भी नियुक्तियां हुई हैं। विधानसभा के अलावा भी मंत्रियों के मार्फत ऐसे नेताओं को अपनों को एडजस्ट करने के अवसर मिले होंगे। बैकडोर नियक्तियों में मुख्यमंत्री के निजी स्टाफ के लोगों के भी नाम आ रहे हैं।
ऐसे में चारों तरफ से घिरने के बावजूद अगर धामी सरकार स्वयं को महफूज मान रही है तो वह बहुत ही गफलत में है। लोकसभा के 2024 में होने वाले चुनाव की तैयारियां अगले साल 2023 से शुरू हो जानी हैं जिसके लिए अब कुछ ही महीने बचे हुए हैं। ठीक लोकसभा चुनाव से पहले इतना जनाक्रोश और ऐसी बदनामी शायद ही बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व सहन करेगा। वैसे भी उत्तराखंड की 5 लोकसभा सीटों में से हरिद्वार और नौनीताल सीट पर विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जो गत हुई उससे दो सीटों पर कांग्रेस की नजर टिकी हुयी है।
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इसलिए बीजेपी पाक साफ पार्टी होने का दंभ भरने के लिए किसी की भी बलि चढ़ा सकती है। बदनामी के इन छींटों को धोने के लिए विधानसभा में हुई तदर्थ नियुक्तियां तो रद्द होंगी ही साथ ही धामी मंत्रिमंडल के कुछ लोगों पर गाज भी गिर सकती है। हालांकि फिलहाल मुख्यमंत्री धामी की कुर्सी सुरक्षित कही जा सकती है, फिर भी सरकार को दीर्घजीवी कतई नहीं कहा जा सकता। अगर विधानसभा की नियुक्तियों के बारे में कठोर निर्णय लेने पर ऋतु खण्डूड़ी की लोकप्रियता का ग्राफ उछला तो फिर सत्ता के खेल में उलट पुलट होने में देर नहीं लगेगी। वैसे भी ऋतु खण्डूड़ी के साथ उनके पिता की राजनीतिक विरासत भी है। ऋतु खण्डूड़ी की दिल्ली में सक्रियता पर भी सत्ता के दावेदार धड़ों की पैनी नजर रहती है।
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