सामाजिक संगठन ‘रिहाई मंच’ ने 2007 में लखनऊ कचहरी में हुए बम विस्फोट के मामले में दो अभियुक्तों को दोषी करार देने वाली विशेष अदालत से अपने फैसले पर आज पुनर्विचार का अनुरोध करते हुए कहा कि उसके निर्णय को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जाएगी।
रिहाई मंच की ओर से बोलते हुए सेवानिवृत्त पुलिस महानिरीक्षक एसआर दारापुरी ने कहा कि एक विशेष अदालत ने इस बात की जानकारी दी।
23 अगस्त को मामले के अभियुक्तों तारिक कासमी और तारिक हुसैन को दोषी करार दिया गया था और सजा सुनाने के लिए 27 अगस्त की तारीख तय की गई है।
वरिष्ठ अधिवक्ता मोहम्मद शोएब पिछले 11 साल से इस केस में जान को जोखिम में डाल कर लगे हुए थे। उनका कहना है कि 11 साल तक चले मुकदमे में दो मिनट में फैसला दे दिया गया। यही नहीं, बिना बचाव पक्ष को मौका दिए ही फैसला सुना दिया गया। सरकारी वकील की लिखित बहस और नजीरें आने के दिन जज ने यह फैसला सुनाया।
यह केस 2007 का है, जब लखनऊ अदालत में बम विस्फोट होने के आरोप में स्पेशल इंवेस्टिगेशन टीम ने 5 लोगों - तारिक कासमी, खालिद मुजाहिद, सज्जादुर रहमान,अख्तर वानी और आफताब आलम अंसारी को गिरफ्तार किया था।
मोहम्मद शोएब ने बताया कि इस केस में 5 में से 2 आरोपियों - आफताब आलम को जनवरी 2008 और सज्जादुर रहमान को 14 अप्रैल, 2011 को रिहा कर दिया गया था। वहीं खालिद की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई थी। बाकी बचे 2 आरोपियों - तारिक कासमी और अख्तर वानी का केस चल रहा था।
2008 से मोहम्मद शोएब इस केस से जुड़े हुए हैं। इस केस की पैरवी करने की वजह से उन पर लखनऊ से लेकर बाराबंकीअदालत में हमला हुआ था और इसके बाद से इस केस की सुनवाई जेल में होने लगी थी। इस मामले में निमेष जांच आयोग बैठाया गया था, जिसने 2012 को तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। काफी दबाव के बाद इस रिपोर्ट को विधानसभा में रखा गया था। रिपोर्ट में साफ तौर से यह कहा गया था कि तारिक कासमी और खालिद को एसटीएफ ने जिस तरह से 22 दिसंबर, 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास से गिरफ्तार कर दिखाया, वह संदिग्ध लगता है।
गौरतलब है कि बचाव पक्ष का दावा है कि तारिक कासमी को एसटीएफ ने 12 दिसंबर, 2007 को रानी की सराय, आजमगढ़ और खालिद को मडियाहू, जौनपुर से गिरफ्तार किया था। इन दोनों जगहों पर इनकी गिरफ्तारी के विरोध में स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन भी किया था। निमेष जांच आयोग ने सिफारिश की थी कि जिन पुलिस वालों ने इन दोनों को गलत ढंग से हिरासत में रखा और प्रताड़ित किया, उनकी शिनाख्त करके उन्हें सजा दी जानी चाहिए।
अधिवक्ता मोहम्मद शुऐब को इस बात पर गहरा क्षोभ है कि जब 16 अगस्त, 2018 को जेल कोर्ट लखनऊ में तारिक कासमी और मोहम्मद अख्तर का मुकदमा सुनवाई के लिए लगा था, उस वक्त अपनी बहस जारी रखते हुए अभियोजन पक्ष ने लिखित बहस और नजीर पेश करने के लिए समय मांगा था। न्यायालय ने 23 अगस्त, 2018 को सुनवाई के लिए तारीख तय की थी। हर तारीख पर पीठासीन अधिकारी 11 से 11.30 बजे तक अदालत में आ जाती थीं, लेकिन 23 अगस्त को वह लगभग 3 बजकर 35 मिनट पर जेल में स्थित अपने चेंबर में पहुंचीं। लगभग 4 बजे वे अपने विश्राम कक्ष से बाहर आईं और उन्होंने दो मिनट में फैसला सुना दिया।
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अप्रैल 2018 में बहस पूरी होने के बाद तत्कालीन न्यायाधीश का स्थानांतरण कर दिया गया था। इसके चलते बचाव पक्ष ने मुकदमे के स्थानांतरण की याचिका दी, ताकि फैसला हो जाए। जिस जज ने पूरी बहस सुनी है, उसके लिए फैसला देना आसान है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
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